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इंद्रजाल

"कैसी हो?"

"बस, वैसी ही जैसी रोज़ रहती हूँ। कुछ ख़ास बात तो नहीं हुई है। सब कुछ वैसा ही चल रहा है।"

"हूँ . . . चाहता था तुम्हें सरप्राइज़ दूँ। लेकिन बात पेट में पच नहीं रही है।"

"क्या बात है? अब जब नहीं पच रही तो बोल भी दो।"

"चलो, बोल ही दे रहा हूँ कि मैं कल आ रहा हूँ,"अमित ने रोशनी से फोन पर कहा। 

"कल?"

"हाँ।"

"तो पहले क्यों नहीं बताया?"

"अचानक आकर तुम्हें चौंकाना चाहता था। लेकिन दिल नहीं माना। आख़िर कह ही दिया तुमसे। ठीक है, तो मैं कल पहुँच रहा हूँ सुबह नौ बजे . . . समझो दस बजे तक। पर स्टेशन छोड़ने और घर पहुँचने में कुछ समय तो लग ही जाएगा।"

"हाँ . . . वह तो है। ..ओ के, आओ। बेस्ट ऑफ़ जर्नी, डियर!"

"थैंक यू! ठीक है, तो कल मिलते हैं।"

"हाँ, सफ़र के बीच-बीच में भी फोन करते रहना ताकि पता चले कि तुम किस स्टेशन से गुज़र चुके।"

"हाँ-हाँ! ये भी कोई कहने की बात है? फोन तो करता ही रहूँगा। ओ के, बाय!"अमित ने हँसते हुए कहा। 

वह रोशनी के पास जाते हुए काफ़ी उत्साहित था। इतनी जुगाड़ करके तो उसने हफ़्ते दिनों की छुट्टी ली थी। रोशनी के साथ जब वह रहता है तो उसे लगता है कि वह कितना भरा-भरा-सा है। ऐसे अकेले आधा-अधूरा रहकर जीवन जीना कितना मुश्किल होता है? पर करता भी क्या? जब मियाँ-बीवी दोनों नौकरीपेशा हैं, तो ज़रूरी नहीं कि दोनों की नौकरी एक ही स्थान पर हो। और फिर तबादले क्या इतनी आसानी से हो जाते हैं? कभी-कभी तो तबादलों के बारे में सोचना भी संभव नहीं होता। दोनों में से कोई एक नौकरी छोड़कर दूसरे के पास चला जाए तो ही दोनों साथ रह सकते हैं। यह बात उसके संदर्भ में तो ऐसी ही थी। 

काश! उसे वाराणसी में कोई नौकरी मिल जाती। ऐसा सोचकर वह‌ छटपटा उठता। उसने बहुत कोशिश की। लेकिन संभव नहीं हो पाया। अभी भी वह हाथ-पैर मार रहा था और सोचता था कि न हो तो वही अपनी नौकरी को अलविदा कह कर चला जाय, जिससे कि दोनों साथ रह सकें। 

रोशनी की नियुक्ति वाराणसी के एक महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में हो गई थी। तो अब जब उसे छुट्टी मिलती वह स्वयं चला जाता और कुछ दिन उसके साथ रहकर फिर से फ़ाइलों में लगने-भिड़ने की नई ऊर्जा लेकर लौटता था। उसे उन दंपतियों को देखकर ईर्ष्या होती थी जो पास-पास के शहरों में रहते थे और पति हर सप्ताहांत में अपनी पत्नी के पास जाकर दो दिन मज़े से बिता लेता था। लेकिन उसके लिए कहाँ संभव हो पा रहा था ऐसा?

रोशनी के पास जाने की सोच कर ही एक अजीब-सी ख़ुशी से भर उठता था वह। यह उसका अपना प्यार था या रोशनी के प्रेम का प्रभा-मंडल या दोनों, इसका विश्लेषण करना उसके लिए मुश्किल था। पर वह सोचता तो उसे लगता कि यह वही थी जो उसके जीवन में उजाला फैलाये हुए थी। अमित और रोशनी दोनों साथ-साथ कॉलेज में पढ़ते थे। कैसे एक-दूसरे के प्रति वे आकर्षित हुए और एक-दूसरे को अपना जीवनसाथी बनाने का निर्णय लिया, पता ही नहीं चला। दोनों अपना कैरियर पूरा करने के बाद शादी के बंधन में बँध गए। बहुत ही सुगमता से सब कुछ संपन्न हुआ। दोनों के माता-पिता भी राज़ी थे, बल्कि रोशनी की माँ को तो अमित बहुत पसंद आया था। कहती थीं, "मैं कितनी ख़ुशक़िस्मत हूँ कि दामाद ख़ुद ही मेरी बेटी का हाथ माँगने मेरे द्वार पर आ पहुँचा।" शादी के बाद जब तक वे दोनों साथ थे, उनकी ज़िंदगी ख़ुशियों से भरी हुई थी। लेकिन रोशनी की नियुक्ति होते ही जीवन अस्थिर हो गया था। 

रोशनी को नौकरी मिलने के बाद जब उसके वाराणसी जाने की बात आई तो दोनों बहुत दुःखी हुए थे। इन दोनों के बीच कोई तीसरा सदस्य भी नहीं आ पाया था अभी तक। इसलिए भी शायद साथ छूटने की अधिक कसक दोनों के दिलों में थी। दो से तीन होते तो उनका परिणय, एक परिवार में बदल जाता। फिर भी अमित को लगता कि अभी देर नहीं हुई है। रोशनी के नौकरी पकड़ते ही अमित की भाग-दौड़ का सिलसिला शुरू हो गया था। 

वहाँ जाकर रोशनी महाविद्यालय में अध्यापन में व्यस्त हो गई। रोशनी को पढ़ना-पढ़ाना अच्छा भी लगता था। इसीलिए वह कभी ख़ाली समय का रोना नहीं रोती थी। इधर अमित के लिए दिन-रात बहुत लंबे हो चले थे। उसे ताज्जुब लगता था कि रोशनी अकेली किस तरह अपना समय बिताती होगी? इस विषय में जब वह फोन पर उससे पूछता तो वह कहती, "समय ही कहाँ बचता है जो सोचूँ ख़ाली समय काटने के बारे में?"

वह कहता, "क्यों? मेरे लिए तो बचता है समय? और तब मुझे बहुत खलता है। समय काटने लगता है मुझे। तब सोचने लगता हूँ क्या करूँ? किससे बात करूँ? कैसे समय बिताऊँ? तुम रहती तो तुम्हारा साहचर्य रहता था। ऐसे बाहर घूमने जाना पड़ता है। दोस्तों के साथ समय बिताना पड़ता है, अनचाहे भी।"

इसी प्रसंग की बातचीत में एक बार रोशनी ने बड़े भोलेपन से कहा था, "नहीं यार! . . . कॉलेज से आने के बाद फिर अपना काम . . . .फिर कुछ लिखना . . . . फिर थोड़ा किचेन। तुम क्या समझोगे हम लोगों की व्यस्तता? कितने तरह के काम हो जाते हैं। पुरुषों की दुनिया अलग होती है और हमारी दुनिया अलग।"

वह सोचने लगता कि कभी तो स्त्रियाँ पुरुषों से अपनी बराबरी करने लगती हैं और कभी अपने को पुरुषों से बिल्कुल भिन्न बताती हैं, जैसे उनकी दुनिया कोई और दुनिया हो जो पुरुषों की अक़्ल से बाहर की चीज़ हो। तब इस बात से सहमत होने की ज़रूरत लगने लगती कि स्त्रियों को समझ पाना मुश्किल है। वे सचमुच पहेली होती हैं। लेकिन यह भी सही है कि उसे समय नहीं मिलता होगा।  नौकरी भी कर रही है और घर भी सँभाल रही है। बाहर-भीतर करते-करते उसके काम तो निश्चित रूप से दुगने हो गए होंगे। वह‌ जानता था कि रोशनी अस्त-व्यस्त तो नहीं रह सकती थी। उसे सारी चीज़ें क़रीने से रखने का नशा था। बदइंतज़ामी और गंदगी उसे ज़रा भी पसंद नहीं थी। तो इसमें शरीर और समय तो ख़र्च होगा ही। 

अभी तो अकेले रहते हुए सुबह-सुबह उठकर उसे अपने लिए एक कप चाय ही बनानी होती तो याद आता कि रोशनी उसके लिए बिस्तर तक चाय लेकर आती थी और दोनों साथ बैठकर चाय पीते थे। चाय पीते-पीते थोड़ी गपशप भी हो जाती। 

रोशनी के जाने के बाद उसकी अनुपस्थिति अमित को हरदम खलती रहती थी। वह थी तो दिन में कई बार चाय बनती और शाम को चाय के साथ स्नैक्स में गरम पकौड़े भी तले जाते जिसकी शुरुआत रोशनी करती और उन्हें प्लेट में लगाने का अंतिम रूप अमित दिया करता। यह सब याद करते ही उसकी अपनी बनाई अदरक वाली ज़ायकेदार चाय भी बेस्वाद हो उठती और उसके चारों ओर का सन्नाटा और गहरा जाता। उसके दफ़्तर जाने के समय वह उसके कपड़े निकाल देती। अमित कहता, "क्या अपने कपड़े मैं ख़ुद नहीं निकाल सकता जो तुम परेशान होने लगती हो? "

इस पर वह जवाब देती, "हाँ, तुम कुछ का कुछ पहन कर चले जाओगे। यह मैं जानती हूँ। इसीलिए कपड़ों के मैच मिलाकर निकालती हूँ कि तुम ढंग से तैयार होकर ऑफ़िस जाया करो।"

मेज़ पर नाश्ता तैयार, साथ में ऑफ़िस के लिए लंच-बॉक्स भी पैक कर रखा रहता।  ये सारी रोशनी की स्मृतियांँ थीं जो उसकी अनुपस्थिति में साये की तरह उससे लिपटी रहती थीं। अब तो गाहे-बगाहे छुट्टियों में रोशनी के साथ जो चंद दिन गुज़रते, वे ही उसके अगले कुछ महीनों को अपनी मिठास से भरा रखते। रोशनी की बात करने की आदत उसे अपने एकाकीपन में ख़ासकर याद आने लगती थी।  कुछ अधिक ही बातें करती थी रोशनी। दिन-भर में क्या कुछ घटित हुआ? कौन आया? किसने क्या कहा? यह सब बिना पूछे उस तक पहुँच जाता। 

वीडियो चैटिंग पर वह उसे देखता तो लगता कि वह उससे दूर होकर और भी सुंदर हो गई थी। व्यस्त दिनचर्या के बावजूद निखर गई थी। जीवन की व्यस्तताएँ भी जीवन को अर्थ देती हैं और अनजाने ही अपने में सिमटने और उलझने से बचाती हैं। रोशनी अकेली होती हुई भी अकेली नहीं थी। दिन महाविद्यालय में बीत जाता और शाम को अपने ही छूटे-बचे काम, जिन्हें समय निकालकर उसे निपटाना ही होता था। 

रेल अपने गंतव्य पर पहुँचने ही वाली थी कि डब्बे के सभी यात्रियों में एक सरगर्मी समा गयी। सब उठकर अपना-अपना सामान बर्थ के नीचे से खींचकर निकालने लगे। अगले स्टेशन पर उतरने के लिए अमित के पास सिर्फ़ एक स्काई बैग था। उसने भी जल्दी से उसे बर्थ के नीचे से निकाला और बाहर निकलने की जल्दबाज़ी में दरवाज़े पर जाकर खड़ा हो गया। दोनों हैंडल पकड़कर बाहर से झरझर आती हुई हवा खाने लगा। अभी उसे अपने भीतर काफ़ी ऊर्जा महसूस हो रही थी! ट्रेन की गति धीमी होते ही वह सरकती ट्रेन से नीचे उतर गया और स्टेशन से बाहर आकर एक ऑटो रिक्शा लेकर चल दिया। 

सुबह का समय था और रविवार का दिन। सड़कें ख़ाली-ख़ाली-सी थीं। दुकानें अभी बंद थीं और थोड़ी देर बाद खुलतीं भी तो छिटपुट दुकानें ही खुलतीं। इधर जब से वह वाराणसी आने लगा था तब से यह रास्ता जाना-पहचाना हो गया था और यह शहर अपने गाँव-घर जैसी ख़ुशबू बिखेरने लगा था। 

मकान के सामने पहुँचकर उसने कॉल बेल बजाई तो रोशनी ने दरवाज़ा खोला। ओठों पर वही जानी-पहचानी मुस्कुराहट थी। अमित को देखते ही उससे लिपट गई और बोली, "अच्छा हुआ कि ट्रेन समय पर आ गयी, नहीं तो यह अक़्सर लेट ही रहती है। रास्ते में कोई दिक़्क़त तो नहीं हुई?"

"नहीं, आराम से सफ़र कट गया। मैं भी यही मना रहा था कि ट्रेन समय पर पहुँच जाए, नहीं तो लेट चलती हुई ट्रेन में सफ़र करने से बड़ी बोरियत होती। ख़ैर, बताओ कैसी हो?"

"कैसी दिख रही हूँ तुम्हें?"

"ख़ूब निखर गयी हो। यह शहर तुम्हें ख़ूब रास आ रहा है, लगता है।"

रोशनी ने कहा, "हाँ, अच्छा तो लग रहा है यहाँ आकर . . .। पता नहीं क्यों यह शहर अजनबी नहीं लगता। बहुत अपना-सा लगता है। तुम फ़्रेश हो लो। मैं खाना लगाती हूँ।"

रोशनी किचन में चली गई। उसने अमित के पसंद का खाना बनाया था।  वह डायनिंग टेबल पर खाना लगाने लगी तो इधर अमित नहाने में व्यस्त हो गया, नहीं तो आदतवश वह भी किचन में जाकर रोशनी का हाथ बँटा देता। 

अमित जब से आया था तब से वह देख रहा था कि रोशनी बहुत व्यस्त दिखाई दे रही है। उसका बोलना कम हो गया था। पहले वाली रोशनी होती तो रसोई में खाना बनाती हुई भी बकबक करती रहती। खोद-खोदकर उससे सवाल करती। उसकी सारी बातें जान लेने की कोशिश करती और अपनी भी सारी बातें बताती। लेकिन अभी वह चुप थी जैसे उसके पास कहने के लिए कुछ न हो या बोलने का मन न कर रहा हो। उसे लग रहा था कि रोशनी अचानक सयानी हो गई है। बहुत बड़ा बदलाव आ गया है उसमें। 

उसके हाथ में फोन था और काम के बीच-बीच में रह-रह कर वह अपने फोन पर कुछ देखने लगती।  स्क्रीन पर कुछ पढ़ती, फिर कुछ टाइप करती। 

खाना खाने के बाद अमित ने सोचा कि अब तो कुछ इत्मीनान से बातें होंगी। उन दोनों का समय साथ-साथ गुज़रेगा। दोनों बिस्तर पर आये। पर अमित को घोर ताज्जुब हुआ जब उसने देखा कि वह दूसरी ओर करवट लेकर घूम गई है और फोन पर कुछ टाइप कर रही है। अमित उससे कुछ अधिक बात नहीं कर पाया। जो बात करता, जो कुछ भी पूछता, उसका वह हाँ-हूँ, ना-नहीं में टालने वाला जवाब दे देती। वह सफ़र के कारण थका हुआ था जिससे अनायास ही उसकी आँखें झपक गईं। 

हल्की नींद लेने के बाद जब उसकी आंँखें खुलीं तो बग़ल में रोशनी नहीं दिखी। रसोई में वह किसी से बातें करती हुई चाय बना रही थी। अमित उठा और सीधे रसोई में चला गया। देखा वह दो कपों में चाय ढाल रही है और बातों में व्यस्त है। अमित को देखकर अपनी बात ख़त्म करते हुए उसने कहा, "तुम चाय लो। मैं कुछ नमकीन निकालती हूँ।"

अमित ने चाय के दोनों कप उठा लिये और बैठक की ओर चल दिया यह कहते हुए, "तुम भी आओ।"

"हाँ, नमकीन लेकर आ रही हूँ।"

शाम होने लगी तो दोनों बालकनी में आकर बैठ गए। आकाश अपना आसमानी रंग छोड़ कर अब नारंगी हो चला था। ठंडी हवा चल रही थी। एक लंबे अंतराल के बाद रोशनी के साथ थोड़े अंतरंग क्षण अमित को मिले थे जिनमें वह डूब जाना चाहता था। गली में एक बच्चा मोगरे के फूलों के गजरे बेचता हुआ चला जा रहा था। अमित ने उसे पुकार कर दो गजरे ख़रीद लिए। गुलाबी साड़ी में देवकन्या-सी लगती हुई रोशनी को आँखों में भरने की कोशिश करते हुए अमित ने  कहा, "लाओ तुम्हारे बालों में ये गजरे सजा देता हूँ।"

"तुम्हें बालों में गजरा सजाना आता भी है क्या?"

रोशनी ने हँसते हुए पूछा। 

अमित ने कहा, "हाँ, क्यों नहीं? कृष्ण राधा का शृंगार किया करते थे। पुरुषों में भी थोड़ा स्त्री-तत्त्व होता है और कभी-कभी जो जितना अधिक पुरुष होता है उसमें उतना ही अधिक स्त्री-तत्त्व भी होता है, जैसा कि कृष्ण में था। देखो, मैं इन गजरों को तुम्हारे हेयर पिन के साथ लगा देता हूँ। ये गजरे तुम्हारे कंधे तक झूलेंगे और तुम लगोगी बिल्कुल राधा जैसी।"

"तुम तो कविता करने लगे।"

"जब तक तुम्हारे साथ हूँ तभी तक कविता सूझेगी। उसके बाद तो . . . बस . . ."

रोशनी ने कहा, "तो कोशिश क्यों नहीं करते यहाँ आ जाने की?"

"जी-जान से कर रहा हूँ। देखो, कब सफलता मिलती है?"

अमित ने उन मोगरे के गजरों को उसके बालों में सजा दिया और अपलक उसे निहारता रहा। फिर आलिंगन में बाँध लिया। उस रात कितने सारे सपने थे उसकी आँखों में, पर बिस्तर पर जाते ही रोशनी पलंग पर एक ओर बैठकर अपने फोन में व्यस्त हो गयी। न जाने वह क्या पढ़ रही थी और क्या टाइप कर रही थी! उसकी आँखें फोन पर केंद्रित थीं और वह अपनी ही दुनिया में डूबी हुई थी। अमित ने हाथ बढ़ाकर उसे खींचते हुए कहा, "अब तो इधर आओ।"

यह सुनकर रोशनी बोली, "हाँ-हाँ,  ज़रा रुको। इस व्हाट्स ऐप ग्रुप का जवाब तो दे दूँ।"

"दिन-रात तो तुम फोन में ही डूबी रहती हो। इतने दिनों पर हम मिले हैं। तुम्हें मुझसे बात करने की इच्छा नहीं होती है?"

"कैसी बातें करते हो अमित? तुमसे बात करने की इच्छा मुझे नहीं होगी? पर क्या है कि आजकल इतने सारे दोस्त बन गए हैं कि क्या करूँ? उनके ग्रुप का जवाब दे दूँ। इस ग्रुप में इतनी कविताएँ सब डालते हैं तो मुझे भी कुछ डालना पड़ता है? ना डालूंँ, ना कमेंट करूँ तो मित्र बुरा मान जाएँगे और फिर फ़ेसबुक . . . "

अमित ने उसे अपनी ओर खींच लिया, "छोड़ो फ़ेसबुक-वेसबुक . . .!"

पर न जाने रोशनी को क्या हो गया था! वह पहले वाली रोशनी नहीं थी। वह अपने को अमित से छुड़ाते हुए अलग होकर दूसरे कमरे में चली गई। उसकी उँगलियाँ जैसे किसी अदृश्य शक्ति से संचालित होती रहीं। कितना-कुछ सोचकर आया था अमित! क्या-क्या प्लान किया था! कंठ तक लबालब भरी हुई बातें कंठ में ही सिमटकर रह गईंं। 

सुबह से‌ ही वह व्यस्त और अनमनी दिखाई दे रही थी। चाय के बाद वह तैयार हुई और अपना मोबाइल पर्स में रखती हुई बोली, "खाना बनाकर रख दिया है, खा लेना अमित! कोई बात हो तो मुझे फोन करना . . . अच्छा बाय!"

फिर वह हाथ हिलाती हुई महाविद्यालय के लिए निकल गयी। अकेला अमित सोचने लगा कि अब वह क्या करे? समय कैसे गुज़ारे? क्यों ना दशाश्वमेध घाट जाकर गंगा-तट घूम ले? इस‌ शहर में वही एक जगह थी जो उसे बहुत पसंद थी। शांत नीली गंगा मन को अपनी ही तरह गहन और शांत बना देती थी। 

गंगा-तट पर जाकर वह‌ घंटे-भर बैठा गंगा के स्थिर जल को देखता रहा। तरह-तरह के ख़्याल मन में आते रहे। फिर जाने के लिए उठा तो दाना ख़रीदकर चिड़ियों को खिलाया‌।  कुछ देर तक घाट की छोटी-छोटी दुकानों में रुद्राक्ष, तुलसी, स्फटिक, पत्थर आदि की असली-नक़ली मालाएँ, पीतल और काठ के सामान और इसी तरह की बहुत-सारी चीज़ें देखता रहा। लेना तो था नहीं। फिर भी उत्सुकता खींच रही थी। किसी तरह समय भी बिताना था।  इसके बाद वह लौटकर आ गया और रोशनी का इंतज़ार करने लगा।  

जब वह आई तो उसे देखते ही अमित के मन में कुछ उम्मीद जगी जो रात तक उमड़ती-घुमड़ती रही। उसने सोचा कि अब तो रोशनी को फ़ुरसत मिली है कि वह अपने कुछ पल उसके साथ बाँटेगी। पर ऐसा सोचना बेकार था; क्योंकि रोशनी अब एक अलग ही दुनिया में जी रही थी। उन दोनों के बीच पसरा हुआ समय उसकी अंजली से पानी की तरह रिसता चला जा रहा था। महाविद्यालय से आने के बाद शाम से ही वह फिर मोबाइल पर व्यस्त हो गयी। उसकी आँखें स्क्रीन पर टिकी हुई थीं और तर्जनी तेज़ी से चल रही थी। जब रात तक यही सिलसिला चलता रहा तो सोने के समय अमित ने चिढ़कर कमरे की बत्ती बंद कर दी। यह देखकर रोशनी उठी और चुपचाप मोबाइल लेकर दूसरे कमरे में चली गई। फिर भी अमित की उम्मीद ख़त्म नहीं हुई। वह बिस्तर पर पड़ा-पड़ा रोशनी के आने का इंतज़ार करता-करता नींद की गिरफ़्त में आ गया। इसी तरह तनाव-भरे पलों को झेलते हुए एक सप्ताह बीत गया। उसे लगता रहा कि वह रोशनी के साथ लुका-छिपी खेल रहा था जिसमें छिपती थी रोशनी और ढूँढ़ता था वह! उसकी कई रातें टीवी देखते हुए बीत गयीं या रोशनी को मोबाइल पर व्यस्त देखते हुए। 

आज वह वापस जा रहा था। रोशनी ने उसके बैग में पूरियाँ और आलू की भुजिया बनाकर टिफ़िन के डब्बे में कुछ मिठाइयों के साथ रख दी, साथ ही पानी की बोतल भी। उसे बैग पकड़ाते हुए बोली, "देखो, बाहर का खाना मत खाना, अमित! तबीयत ख़राब हो जाएगी तो तुम्हें कौन देखेगा? मैंने तुम्हारे लिए खाने का डब्बा रख दिया है तुम्हारी पसंद की मिठाइयों के साथ। स्टेशन पहुँच कर फोन करना और रास्ते में भी फोन करते रहना। अपनी जानकारी देते रहना। ओके, टेक केयर!"

उसने एक बार आँखें उठाकर रोशनी को देखा। कुछ बोलने का मन नहीं हुआ। क्या-क्या बोलता और क्यों बोलता जब सुनने की ललक ही किसी को नहीं थी? मन में अगाध गहराई थी जहाँ उसके अनकहे शब्द आराम से रह सकते थे। एक अनपढ़ा ख़त लौट रहा था।  अमित कंधे पर बैग टाँगकर और हाथ में स्काई बैग लेकर बाहर निकला। यहाँ आते समय लगा था जैसे पैरों में पंख लगे थे और अभी यहाँ से जाते समय लग रहा था जैसे किसी ने पैरों में भारी पत्थर बाँध दिये हों। क़दम उठ नहीं रहे थे। चार क़दम चलने के बाद वह रुका और उसने पीछे मुड़कर देखा। रोशनी बालकनी में खड़ी हाथ हिला रही थी। उसने भी हाथ हिलाकर जवाब दिया और मुँह मोड़कर स्टेशन की ओर चल दिया। 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/10/10 11:23 PM

क्या ऐसा भी होता है...?

कृपया टिप्पणी दें

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