कहाँ छूटा ज़मीं-आकाश बचपन का हमारा
शायरी | ग़ज़ल अंजना वर्मा1 May 2025 (अंक: 276, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
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कहाँ छूटा ज़मीं-आकाश बचपन का हमारा
समय जो बीत जाता है नहीं आता दुबारा
हुए पोखर, कुएँ-तालाब के क़िस्से पुराने
किया ज़िंदा दफ़न इस झील को लोगों ने मारा
सगे थे सब हमारे देवता-परिजन ही जैसे
नदी-परवत हो पाहन या कि कागा ही बिचारा
चला करती जुगलबंदी हमारी मौसमों से
कभी होली, कभी कजली, अजब वो था नज़ारा
लगा करते घनी अमराइयों में ख़ूब झूले
किताबों का न बोझा था मगन बचपन हमारा
बजाकर ढोल बादल थे बरसते ख़ूब नभ से
नहाना, भीगना छुपकर वो बूँदों में हमारा
खुली नदिया, खुली धरती, खुले थे द्वार घर के
किसी से बात करने को समय था ढेर सारा
ज़रूरत आदमी को आदमी की तब बहुत थी
अकेला था नहीं कोई अकेलेपन का मारा
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