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गंगा-जमुना प्रेमाख्यान 

 

गंगा गर्भवती हो गई। वह रोज़ सिर झुकाए घर से निकलती थी। बॉडी लोशनों और रोगनों से परहेज़ करते हुए, जवानी की भभक को दबाए हुए, ज़मीन पर निग़ाहें गड़ाए हुए और वक्ष के उभार को बमुश्किल ढँकते हुए वह शराफ़त की बुत बनी फ़िरती थी। 

वह महानगर की किसी मल्टी-नेशनल कंपनी में स्टेनो थी। दिलचस्प बात यह थी कि वह बेनागा मंदिरों में जाकर घंटों-घंटों ईश-वंदना में तल्लीन रहती थी। उसकी सादगी और गंभीर चाल-चलन को देख, किसी को भी उससे किसी ओछे बर्ताव करने या आसपास फटकने की हिम्मत नहीं होती थी। क्या मजाल कि कोई कुलीग उसकी तरफ़ ग़लत निग़ाह से देखने की ज़ुर्रत करे? उसकी धारदार नज़रों की तरेर से अच्छे-अच्छों को पसीना आ जाता था। 

चुनांचे, गंगा कुआँरेपन में ही गर्भवती हो गई। लोग़-बाग़ ताज़्ज़ुब के सैलाब में डूब गए। उसकी जान-हाज़िर सहेलियाँ उससे कतराने लगीं। वह बात-बात में काजल के जिस उन्मत्त सेक्स की खिल्ली उड़ाती थी, उसी ने उसके नेक नाम पर खुलेआम कालिख पोती। काजल अपने बॉस, इन्चार्ज़ और सहकर्मियों के साथ अंतरंग होकर भी साध्वी होने के दर्प में झूम रही थी। कुआँरेपन में उसने अपने पाक-साफ़ चरित्र का दस्तावेज़ जो प्रस्तुत किया था! जैसाकि बताया जाता है, वह अपने संयम और शुचिता के बल पर बेड से लेकर पेट तक साफ़-सुथरी रही। लिहाज़ा, वह किस-किस की आहों और धड़कनों की सम्राज्ञी नहीं बनी? 

उसने गली-कूचों में अपने कूल्हे हिलाए, गोल-मटोल नितंब मटकाए, बाज़ारों और बसों में ज़िस्म-मर्दन किया। बहरहाल, वह गंगा की तरह कभी कलंकित नहीं हुई। इज़्ज़तदार ज़िन्दगी जीने के लिए उसने अपनी कुँवारी कोख को निरापद रखा। दूरदर्शन और रेडियो के विज्ञापनों, एड्स से बचाव के तौर-तरीक़ों, आधुनिकतम विधियों और मुफ़्त वितरित गर्भ-निरोधकों का भरपूर फ़ायदा उठाया। कभी-कभी उसे शुबहा भी हुआ कि दोस्तों के साथ शिष्टाचार का निर्वाह करते हुए उससे कोई ग़लती तो नहीं हो गई है। तब, वह किसी गाइनिकॅालोजिस्ट के पास जाती जो उसका ट्रीटमेंट करते हुए उसे साफ़-सुथरी होने या बने रहने का क्लीन चिट दे देती। 

गंगा भी हैरत में! आख़िर, वह पेट से हुई कैसे? बाप ने उसे उसके कुकर्म के लिए बेरहमी से पीटा। माँ ने ख़ानदानी पुरखों की शराफ़त का नगाड़ा बजा-बजा, उसे भरपूर धिक्कारा। भाई-बहनों ने भी ख़ूब कोसा। लेकिन, वह उन्हें कुछ भी नहीं बता सकी। वह बताए भी तो कैसे बताए? उसे तो ख़ुद कुछ पता नहीं। वह इतने बड़े हादसे से कैसे अनजान रही? मर्दों से दूरी बनाए रखना तो उसकी आदत थी। बसों में भी कोई मनचला उसकी गुरेर और झिड़क के कारण उससे फ़ासला ही बनाए रखता था। बस, उसे इतना याद है कि बसों में चढ़ते-उतरते हुए उसका बदन कभी-कभार पुरुषों से रगड़ खा जाया करता थ। लेकिन, किसी मामूली रगड़ से ही वह चिनगारी कैसे फूटी कि उसके जीवन में आग लग गई? 

गंगा तो बॉस के कमरे में उस चेयर या सोफ़े पर भी कभी नहीं बैठी जिस पर बैठकर स्टेनो काजल बॅास से घंटों-घंटों डिक्टेट हुआ करती थी। डिक्टेटशन के दौरान काजल पसीने से तर-बतर हो जाती थी। शलवार सिकुड़कर उटंग हो जाती थी। सलीक़ेदार समीज़ पर बेतहाशा सिलवटें उभर आती थीं। भीतर से बाहर तक सैकड़ों हड्डियाँ अपनी जगह से हिल जाती थीं। मांस पेशियाँ ढीली पड़ जाती थीं। 

लेकिन गंगा के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बड़ी ऐहतियात बरती थी उसने, जिस कारण उसे इसका ख़ामियाज़ा भी भुगतना पड़ा। उससे जूनियर चंपा असिस्टेंट मैनेजर बन गई थी। पर, गंगा तो स्टेनो से आगे प्रमोट नहीं हो पाई। प्रमोशन हो भी तो कैसे? इसके लिए उसमें ज़रूरी मेरिट नहीं थी। पिछले सात सालों से सभी लेडीज़ स्टाफ़ को दर्जनों इन्क्रीमेंट मिली। पर, उसे तो एक-दो भी नहीं मिल पाई। 

गंगा मार खाई. अंधकूप कमरे में क़ैद रही। भूखी-प्यासी रही। लेकिन, उसका हाल उतना बेहाल नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। इतना होने पर भी वह रोई नहीं, सोई नहीं, खोई नहीं। उसका दिमाग़ बीते चंद माहों में उस काले साए को ढूँढ़ता रहा, जिसने उसके साथ मुँह काला किया और उसे इस मुसीबत में डाल दिया। उसका मुँह आश्चर्य से खुला रहा। आँखें पथरा गईं और नींद से कोसों दूर रहीं। जीभ बिलगोह की तरह तलवे से चिपकी रही और हल्की-सी चीख को मुँह से बाहर नहीं धकेल सकी। वह इसी उधेड़बुन में पिछली छोटी-मोटी घटनाओं को याद करती रही कि वह बेवजह पेट से कैसे हो गई? महानगर की भीड़-भाड़ में कुँवारियाँ अपने अंग-प्रत्यंग का मर्दन कराकर भी कुँवारियाँ ही बनी रहती हैं। बारह से बयालीस तक बेख़ौफ़, बेदाग़ ज़िन्दगी जीती हैं। पर, वह सत्रह से सत्ताईस के बीच ही दग़ही कैसे हो गई? 

उसके बाप को अपनी बदनामी से उतना गुरेज़ नहीं था, जितना उसे उस पुरुष से डाह थी जिसका शुक्राणु उसकी बेटी के गर्भ में एक अनचाहे जीव का जनक था। उसे बेहद अफ़सोस था कि उसकी गंगा इतनी नासमझ कैसे निकली? उसका नाम तो महानगर की सबसे बेवुक़ूफ़ और गँवार लड़कियों में शुमार हो गया। आख़िर, कौन-सी बहू, बेटी या महरी इतनी नासमझ होगी जिसे इतनी समझ न हो कि वह विभिन्न सामाजिक मेल-मिलाप के दौरान ज़रूरी ऐहतियात बरत सके? उसे इस माहौल में सब कुछ जानने, समझने और कर-गुज़रने की खुली छूट है। उसे ऐहतियाती साधनों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए ज़्यादा ज़द्दोज़हद करने की भी ज़रूरत नहीं है। आँखें फाड़-फाड़कर देखने, यार-दोस्तों के आगे सँकुचाते हुए मुँह खोलने और कान पर ज़्यादा ज़ोर देने की भी ज़रूरत नहीं है। बस, तनिक सावधानी बरतनी पड़ती है। गंगा की माँ उसे बेनागा सीख देती रहती थी कि उसे अपने बॉस और कुलीग़ के साथ बात-व्यवहार में तनिक सावधानी बरतनी चाहिए और दीवारों, बस स्टैंड की शेडों आदि पर लिखे विज्ञापनों का भरपूर फ़ायदा उठाना चाहिए। हिंदुस्तानी लोकतंत्र भी गंगा जैसी लड़कियों को सावधान करने के लिए सदा ही मुस्तैद रहा है। जब तक सेक्स-एजूकेशन पाठशालाओं में पूरी तरह लागू नहीं हो जाता, वह बच्चों को सेफ़ सेक्स के तरीक़ों की मुनादी करता रहेगा। 

लोकतंत्र के इस समानतावादी परिवेश में औरत-मर्द को, हर पहर और हर डगर पर पूरी आज़ादी का मज़ा लेने का हक़ है। नंगे नाचने, खुलेआम प्रेमालाप करने और सेक्स विषयों पर बौद्धिक वाद-विवाद करके स्वयं को पश्चिमीवासियों के बराबर खड़ा करने का उन्हें लाइसेंस देकर इस लोकतंत्र ने ख़ासी मक़बूलियत हासिल की है। सो, वे मूड़ी-पूँछ समेत तृप्त हो रहे हैं। इसके चलते दिल्ली के मधुबनों अर्थात्‌ पार्कों में रमने-बसने वाली बुद्ध, महावीर, शिवाजी, गाँधी, सुभाष आदि की आत्माएँ (जिनके नाम पर इन पार्कों के नाम रखे गए हैं) भी ऐसे मनोरम दृश्यों को देखकर धन्य हो रही हैं। 

औरत-मर्दों में बराबरी के मसले पर टकराहट होनी मामूली-सी बात है। इसके नतीजे आज तक बुरे नहीं निकले हैं। देश में इतनी बड़ी जनसंख्या के फलने-फूलने और बढ़ने का भी यही कारण है। इन टकराहटों के कारण वे कपड़ों पर लगी गर्द को झाड़-पोंछकर और चिपचिपी सीलन को धूप दिखाकर ही बिल्कुल निश्चिंत हो जाते हैं। घर पहुँचकर डिनर करते हैं और बेड पर पसरकर, परस्पर टाँगें फँसाकर, उलझाकर टीवी के रोमांस में खो जाते हैं और अगले दिन ऑफ़िस में सीरियलों के पात्रों के बीच फ़सादों को सुलझाने के लिए बड़े चिंतित नज़र आते हैं। बहरहाल, वे टीवी के ख़्वाबग़ाह से उतरकर हमबिस्तर होने वाली सोनपरियों और अप्सराओं के साथ रास-अभिसार करते हैं। सूरज के सिर तक चढ़ने तक जब वे सपनों की सोन-सीढ़ियों से उतरकर अलसाते हुए नींद को बॉय करते हैं तो वे बौख़ला उठते हैं। क्योंकि घर की औरतों की पिचपिचाई आँखों से रू-ब-रू होना और उनकी बसियाई बदबूदार जम्हाइयों का नाख़ुशगवार वातावरण उन्हें क़तई रास नहीं आता। 

चुनांचे, गंगा के बाप की बौख़लाहट किसी ऐसी-वैसी वजह से नहीं थी। उसे गंगा न तो कभी अँगड़ाई लेकर बदन से जवानी फोड़ती नज़र आई, न ही कभी आईने के सामने पहर के पहर गुज़रने तक भौंहें, आँखें, होंठ, गाल, बाल आदि पर रंग-रोगन करती या सँवारती नज़र आई। उसने महानगर के आदर्श बापों की तरह गंगा को बख़ूबी जाँचा-परखा था। लेकिन, उसमें मर्दों के प्रति कोई ख़ास खिंचाव दिखाई नहीं दिया। उसे बड़ा इत्मिनान हुआ कि गंगा के पाँव कभी फिसलेंगे नहीं। इसलिए, उसने उसे ट्युशन पढ़ने और हिल स्टेशनों पर जाकर पिकनिक मनाने की खुली छूट दे रखी थी। उसे यह भी सुकून था कि गंगा ज़हीन नहीं है। उसे लेक्चररों और ट्युटरों से आए दिन यह शिकायत मिलती रहती थी कि गंगा पढ़ने-लिखने में बेहद कमज़ोर है। सो, उसने इस बात के लिए गंगा को कभी कोई सख़्त नसीहत भी नहीं दी। गंगा तो अपने टीचरों से स्कूली सबक़ सीखने के अलावा किसी अन्य ढंग से उनसे कृतार्थ होने से बेहद कतराती थी। न तो वह कभी उनसे नोट्स लेने उनके घर गई, न ही किसी कठिन सवाल का जवाब पूछने उनके चैंबरों में दस्तक दिया। दूसरी लड़कियाँ बड़ी ज़हीन थीं। वे ट्युटरों के स्कूटर के पीछे बैठकर उनके घर जाती थीं। क्लासिज़ ख़त्म होने के बाद शाम को लेक्चररों के बिल्कुल प्राइवेट रूम में कठिन सबक़ पर दोबारा रियाज़ करने जाती थीं। कोर्स से अलग और क्लास से बाहर, प्रैक्टिकल पाठ पढ़ती थीं और रात-दिन नोट्स तैयार करती-कराती थीं। उनकी मेधा से प्रभावित होकर उनके लेक्चरर उन्हें प्राइवेट ख़त लिखा करते थे और ख़तों में भी उनके गाइड बने रहते थे। लिहाज़ा, गंगा का शिक्षण इस स्तर तक कभी नहीं पहुँच सका। चूँकि दूसरी लड़कियाँ छात्र जीवन में और छात्र जीवन के बाहर मेहनतकश छात्राएँ थीं, इसलिए उन्हें ज़हीन घोषित कर दिया गया था। अपने शिक्षकों से बेहतर तालमेल के कारण वे केवल ज़हीन ही नहीं बनीं, बल्कि जल्दी ही नौकरीशुदा बनकर स्मार्ट बॉसों की चहेती स्टेनो और अकूत ज़ायदाद वाले घरानों की बहुएँ भी बनीं। बहरहाल, कमबख़्त, कमअक़्ल गंगा कुछ भी नहीं बन पाई, सिवाय कुँवारी माँ बनने के। 

गंगा के क्लासमेटों और लेक्चररों ने उसे भरसक निचोड़कर रस निकालने की कोशिश की। लेकिन, वह उनके लिए रस का एक क़तरा भी नहीं टपका सकी। रसहीन होने के कारण, वह बहुत धीरे-धीरे जवान हुई और हुई भी तो नाममात्र की। बिचारा समय भी ज़ोर लगा-लगाकर थक गया; लेकिन उसे ठीक से जवान नहीं बना सका। गंगा ने भी ऐन वक़्त अर्थात्‌ महानगर के टाइम के अनुसार साढ़े ग्यारह साल में जवान न होकर जवानी को ख़ूब ठेंगा दिखाया। लिहाज़ा, वह जवान भी ऐसे हुई कि पास-पड़ोस के वयस्क-अवयस्क मर्दों को इसकी भनक तक नहीं लगी। उसके बाप और भाई भी बेख़बर रहे। उससे दस साल छोटी बहन जमुना पिछले कई सालों से जवान हो रही है और दन्त्य कथाएँ रचने की क्षमता रखने वाले मजनुंओं की एक ज़मात तैयार कर रही है। उसमें ऐसे बेशुमार लच्छन हैं कि वह सदाबहार फ़िल्मी तारिकाओं की तरह अगले चालीस साल तक जवान ही होती रहेगी और बूढ़ी होते-होते भी वह न सत्रह से ऊपर रहेगी न सोलह से कम। क्लबों और पार्टियों में उसकी सदाबहार हुस्न और शबाब की चर्चाएँ हमेशा गरम रहेंगी। 

फ़िलहाल, जमुना अपने परिवार, पड़ोस, कॉलेज, टीचर, ब्वॅायफ़्रेंड सभी से अंतरंग है। वे उसे तारीफ़ों के कुतुबमिनार पर बैठाते हैं। पर, उसके पाँव कभी नहीं फिसलते। वह मधुबनों में बेमिसाल ऐहतियात बरतती है। टाकीज़ों के अंधे कोनों में ब्वॉयफ़्रेंडों से ख़ूब पंजे लड़ाती है, ज़िस्मानी ताक़त की आज़माइश करती है और धूप के उजाले में दाँतों, उँगलियों और पंजों के निशान को बहाने-बहाने में छिपा लेती है। वह कालेज़ का रास्ता भूलकर पालिका बाज़ार, कनॅाट सर्कस आदि के इर्द-गिर्द सीढ़ियों के किनारे, पार्कों के चारों ओर, लौह रेलिंगों पर बैठकर दूरदराज़ से आए, थके-माँदे पर्यटकों को अपनी आँखों के रास्ते अपने दिल के आरामबाग़ में सैर कराती है। वहाँ अपने तबाहक़ुन इशारों से उन्हें प्रेम-पाठ का ज़रूरी सबक़ सिखाती है। 

बेशक! जमुना अपने बाप की परख़ पर एकदम खरी उतरी है। आजकल उसका मुँहबोला भाई और उसके दोस्त भी उसे जी-भरकर परख रहे हैं। इन परखों पर खरी उतरने के कारण ही जब वह साढ़े दस साल की थी तो उसे ‘मैडम’ के नाम से संबोधित किया जाने लगा। 

यूँ तो ‘मैडम’ बनने के पहले चुनिन्दा हुनर का होना ज़रूरी है; लेकिन, अल्पायु में ‘मैडम’ से नवाज़े जाने पर इस उपाधि की महिमा को वहन करने की योग्यता जमुना जैसी ज़हीन लड़कियों में ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाती है। इसके संबोधन भर से बालिका का मन इतना प्रौढ़ हो जाता है कि उसका तालमेल किसी भी पुरुष के संग बैठ सकता है। उसके तन की कलियाँ फूट-फूटकर खिलने लगती हैं और ख़ुश्बू बिखेरने लगती है। आधुनिक सौन्दर्यवर्धक रसायन-अवलेह इन फूलों के रंग-रूप-गंध के विकास में सोने में सुहागे का काम करते हैं। लिहाज़ा, जब जमुना मैडम को कोई अनजान मर्द ‘सिस्टर’ या ‘बहनजी’ के संबोधन से पुकारता है तो उसका रंग-रूप-गंध छुई-मुई की भाँति मलिन हो जाता है। वह उस अभद्र और अशिष्ट पुरुष को दंडित करने के लिए ऐसे सरेआम मुँह बिचकाती है जैसे कि वह किसी निग्रो से रू-ब-रू हुई हो। वैसे, उसे उसको ‘बिहारी’ और ‘पूरबिया’ कहकर ही संतोष करना पड़ता है और अपनी हिक़ारत का इज़हार करना पड़ता है। इस तरह वह बिहार को असमय देश-निकाला देकर अपनी राष्ट्रभक्ति का भी क़ाबिले-तारीफ़ परिचय देती है और अपने व्यक्तित्त्व को और आकर्षक बना देती है। 

इन जैसी मुखर और संवेदनशील बाला के लिए इस महानगर का कोना-कोना, चप्पा-चप्पा प्रेरणादायक रहा है। वह बसों में बजने वाले कर्ण-स्फ़ोटक रैप-पॅाप गीत-संगीत में प्रवाहित भावों की लय पर आहें भरने वाले पुरुषों के मन के रहस्यों को भलीभाँति समझती रही हैं। इन्होंने उस गीत-संगीत की तर्ज़ पर सार्वजनिक स्थलों पर भावी ब्वॅाय फ़्रेंडों से आँखें चार करके न केवल हृदय के दुर्गम क्षेत्रों के ज़ज़्बातों का इज़हार किया है बल्कि इसी तरह ज़िन्दगी की यादगार योजनाएँ भी बनाई हैं और उन्हें कार्यान्वित किया है। 

जो बाला मन-कर्म-वचन से हिंदुस्तानियत प्रकट करने वाले पुरुष को देखकर फ़िसकारी न मारे, उसे जमुना मैडम जैसी बहिर्मुखी प्रतिभा का धनी नहीं माना जा सकता। उसके उम्र से पहले जवान होने का कारण भी यही है। वर्ना, इस महानगर की बच्चियाँ तो दीवारों पर लगे पोस्टरों को देखकर ही जवान होती हैं। यहाँ दीवारों से ही रज टपकता है जो उनकी तथाकथित झीलनुमा आँखों के रास्ते शरीर की निहायत ज़रूरी पेशियों और बोटियों में स्रावित होकर उन्हें असमय पुलकित-पल्लवित करता है। इस रज की आँच में उनकी बोटी-बोटी मक्के के लावे की तरह फूटकर निखर जाती है। नतीज़तन, इस निखार-प्रक्रिया में उन्हें उड़न-योग्य हल्केपन का अहसास होता है। इस तरह वे बेजान निग़ाहों की मार से भी फुदकने और कुलाँचे भरने लगती हैं। उसे ‘कुछ-कुछ’ होने लगता है। 

इस अवस्था को बाअदब ‘प्री-मैच्युरिटी’ कहते हैं जिसे तपस्वियों में मोक्ष और निर्वाण प्राप्त होने जैसा माना जाता है। इसकी कुछ विलक्षणताएँ होती हैं जिनसे जमुना मैडम का व्यक्तित्त्व समूलतः आत्मसात है। वह उम्र, अवस्था, पद आदि की तुच्छ सीमाएँ तोड़, जाति-धर्म के बंधन काट, लोगों में ऐसे रच-बस गई हैं जैसेकि कण-कण में भगवान। कच्ची उम्र में ही उन्हें पक्की उम्र वालों को शह देने की हैरतअंगेज़ महारत हासिल हो चुकी है। वह ज़िस्म और जान को दाँव पर लगाने से पीछे नहीं हटतीं। फ़िज़ूल संकोच, लज्जा, शुचिता आदि के फेर में भी नहीं पड़तीं। अंग्रेज़ी के शब्दों को टॅाफ़ी की तरह चुबलाती हैं और इसके भाव-प्रधान मुहावरों को चुईंगम की तरह कचकती हैं। सादी, दाग़, फ़ैज़, फ़िराक़ की कचोटने-कसकने वाली शेरो-शायरी से मासूम दिलों पर अपनी चोट-खाई संजीदग़ी का रोब जताकर छैल-छबीलों के दिल पर काबिज़ होती हैं। उन्हें आशिक़ी, जो अष्टयोग से भी ज़्यादा कठिन है, के मकड़जाल में फँसाती हैं। ग़ौरतलब है कि उनके लफ़्ज़ों में भूतपूर्व लखनउवा शाहज़ादियों की उर्दू-मिश्रित कूक है जिससे वह जन-जन के ख़्यालों की मलिका बनी हैं। उनकी चकरघिन्नी करती आँखों की पुतलियों में भक-भक करती ट्यूब लाइटों जैसी चपलता है। लहराती भौंहों में सागरीय ज्वार-भाटों की मारक क्षमता है। जीभ-लिसोढ़ते होंठों पर किसी अकथनीय प्यास के हमेशा बने रहने और किसी भी शीतल और गर्म वस्तु से न बुझने की कशिश है। 

आजकल मैडम, ‘जमुना’ के बजाए ‘जुम्मी’ के नाम से लोकप्रिय हो चली हैं। वैसे, उनके कुछ रिटायर्ड और ग़ैर-रिटायर्ड चहेते उन्हें प्यार से ‘चुम्मी’ कहकर भी पुकारते हैं। लेकिन, वह इसका कभी बुरा नहीं मानती हैं। बल्कि खिसियानी मुस्कराहट से उनका स्वागत ही करती हैं। लिहाज़ा, चुम्मी मैडम इतनी जल्दी मुखर-मैच्युर कैसे हुईं—इस रहस्य का ख़ुलासा करना गागर में सागर भरने जैसा दुष्कर है। उनके हवाई चुंबन क़ैद करने, अँक्खमारी की रोमांटिक भाषा समझने और गलबहियाँ खेलने वाले एक पितृ-मित्र चहेते ने उनके बारे में कुछ जानकारियाँ किस्तवार दी हैं। इन्हें मैं कमोवेश एकमुश्त देना चाहूँगा। अगर इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह में कोई कमी या भूल-चूक रह जाती है जो मेरे लिए घातक भी साबित हो सकती है तो मैं चुम्मी मैडम और उनके प्रौढ़-अप्रौढ़ ख़ूँख़ार चहेतों से पहले ही माफ़ी माँग रहा हूँ। मैं ऐसी एड़ी-चोटी की कोशिश करूँगा की मैं जो कुछ भी कहूँ, सच कहूँ और सच के सिवाय कुछ भी नहीं कहूँ। 

मैडम को पहले-पहल ऐंद्रिक रोमांच तब हुआ था जबकि वह अपनी सीनियरों के नक़्शे-कदम पर लिफ़्ट लेकर एक बाँके-मनचले के स्कूटर पर स्कूल की ओर मार्च कर रही थीं और उनके स्कूटरगामी चहेतों के कई क़तार उनका अनुगमन कर रहे थे। ऐसे मनचले अपनी कुशल ड्राइविंग के बल पर उनके साथ हार्ट-एक्सचेंज़ के फ़न में माहिर होते हैं। वे ‘टच ऐट फ़र्स्ट मीटिंग’ (शेक्सपीयर का ‘लव ऐट फ़र्स्ट साइट’ जो प्रेम की एक घिसी-पिटी परंपरा है, चलन से बाहर हो चुका है। नई पीढ़ी इस परंपरा से बाज़ आ गई है क्योंकि वे प्रथम दृष्ट्या प्रेम तो रोज़ कई-कई बार करते हैं जिसे निभा पाना आज की फ़ास्ट लाइफ़ में सम्भव नहीं है) को मूर्त रूप देने के लिए लिफ़्टार्थिन को उत्तल स्पीड ब्रेकरों, अप्रत्याशित ब्रेकों, औचक रेड लाइटों आदि के बदौलत इस तरह झटके देते हैं कि दोनों के वक्ष और पीठ परस्पर मर्दन करते हैं। ऐसे ही प्रथम मर्दन से चुम्मी मैडम मर्मस्थल तक आहत हुईं थीं। तब से उनकी देह में इतनी अबाध छुअन पिपासा जगी है कि वह हज़ारों लिफ़्ट लेने के बाद भी कुछ पल पहले तक अनबुझी रही हैं। अभी चंद मिनटों पहले मैं उनसे मिलकर आया हूँ जबकि वह बिपासा बसु द्वारा जॅान इब्राहिम को अथक बार-बार छूने के अंदाज़ में मेरे शरीर के हर हिज़्ज़े को बुरी तरह टटोलने की असफ़ल कोशिश कर रही थीं। 

लिफ़्ट देने की यह संस्कृति हमारे पौराणिक साहचर्य, समूहचरता, सहयोग आदि की भावनाओं से अनुप्राणित है। इसके कुछेक दृष्टांत भी हैं। वाल्मीकि ने सीता मइया को एक बड़ी शिष्ट लिफ़्ट दी थी। स्त्रियाँ भी लिफ़्ट परंपरा का निर्वाह करती रही हैं (यद्यपि आज यह परंपरा पुरुषों के बढ़ते अहंकार के कारण अप्रचलित है)। मसलन, शकुंतला ने दुर्गम जंगलों में दुष्यंत को लिफ़्ट दी थी। उनके लिफ़्ट देने के परिणाम भी कमोवेश सुपरिणामी रहे हैं। उन्हें भरत जैसी भारतीय संतान को अपनी कोख से उपजाने का श्रेय मिला; हालाँकि इस संतान को वैधता प्रदान करने के लिए उन्हें दुष्यंत की पत्नी होने का अहसास बार-बार दिलाना पड़ा था। लिहाज़ा, अगर दुष्यंत को मछली के पेट से अपनी अँगूठी न मिलती जिसे उन्होंने शकुंतला को प्रेम-चिह्न के रूप में दिया था तो शकुंतला भी उन्हें बतौर पत्नी याद न आती। ऐसे में भरत अवैध संतान घोषित होकर, कोई असामाजिक प्राणी होता और तब हमारे देश का नाम ‘भारत’ (‘भरत’ से भारत) न होकर न जाने क्या होता? 
अस्तु, हमें बेहद फ़ख़्र है कि पुरुष वर्ग लिफ़्ट देने के प्रति अत्यंत जागरूक बना हुआ है। यह जागरूकता अब टोलों, गाँवों और छोटे-मोटे क़स्बों में भी महामारी की तरह फैल रही है। बहरहाल, बालिका विद्यालयों और महाविद्यालयों तथा महिला-प्रधान संस्थाओं के इर्द-गिर्द बहुतेरे पुरुषों को भनभनाते देखा जा सकता है। यहाँ उनके संवेदनशील वाहन उसी तरह धीमी गति से चलने लगते हैं जिस तरह विष्णुवाहन गीध अपने स्वामी के भक्तों की भावनाएँ भाँपकर धीरे-धीरे ज़मीन पर उतरने लगते हैं। 

सो, चुम्मी मैडम ने बड़े नेम-धरम से लिफ़्टदाताओं को कृतार्थ करते हुए, उनका क्षणभंगुर गर्लफ़्रेंड बनकर होटलों-रेस्तराओं और सुविख्यात मधुबनों में उनके साथ रास-विहार किया है। उम्मीद है कि पचास तक वह इसी प्रकार की ज़िन्दगी में मस्त-व्यस्त रहेंगी। उसके बाद वह अपनी उन सीनियरों के नक़्शे-कदम पर अमल करेंगी जिन्होंने सब्ज़ी में नमक और खीर में चीनी के कम या अधिक होने जैसे गंभीर विवादों की परिणति तलाक़ में होने तक आख़िरकार, पत्नी बनने का ठेका ले ही लिया है। इस तरह जुम्मी मैडम ने असंख्य लिफ़्टदाता मर्दों को पुण्य का भागीदार बनाते हुए स्कूटर से मैच्युर होना शुरू किया और अपनी सीनियरों की भाँति निषिद्ध बेलाओं में दिल्ली विहार करके मैच्युरिटी की पराकाष्ठा को छुआ है। यह बात स्मरणीय है कि मैच्युर होने की लालसा रखने वाली कमसिन लड़कियाँ दिल्ली विहार करके ही पूर्ण स्त्रीत्त्व को प्राप्त होती हैं और सार्वजनिक रूप से भद्र महिला के रूप में सम्मान-संबोधन का पात्र बनती हैं। हरे-भरे मैदानों में आलिंगनरत प्रेमियों को जी-भर सांगोपांग निहारकर उनके भीतर जो उमंग पैदा होती है, उससे उन्हें यह अहसास होने लगता है कि उनके भीतर की औरत अँगड़ाई लेने लगी है और अब वह बाहर मूर्त रूप में प्रकट होकर ज़िन्दगी को सर्वांगीण भोगने वाली हैं। 

चुनांचे, मैडम ने ‘डेटिंग’ के माध्यम से बच्चों से लेकर प्रौढ़-अप्रौढ़ पुरुषों तक प्रेम के रोमानी भाव का संचार किया है। उनके साथ परस्पर पंजों को जकड़कर, डेटिंग के सिद्धांत के अनुसार क़दम से क़दम मिलाकर दौड़ते हुए पंजों पर उँगलियों के दबाव और हथेलियों के आपसी मसाज़ से प्रेम-तरंगों, प्रेम के भौतिक-अभौतिक उत्तेजनाओं और इसके मुखर-दमित भावों-अनुभावों को व्यक्त करने की एक नई विधा का सूत्रपात किया है। उनके साथ जॉगिंग करते समय परस्पर बाज़ू-मर्दन करना और जानबूझकर उलझकर आलिंगनबद्ध गिर जाना, होंठों को प्रकंपित-प्रसंकुचित कर अकथनीय इरादे उद्घाटित करना, एक-दूसरे की आँखों की तथाकथित सुरमई झीलों में डूबते-उतराते हुए भौंहों की प्रत्यंचा को कानों तक खींच-तानकर भावनाओं के तल पर गुमसुम बैठी गुप्त इच्छाओं को समझना आदि जैसी योग-साधनाओं को मैडम ने बड़ी मेहनत-मशक़्क़त से सीखा है। बेशक! इतनी छोटी उम्र में स्त्री-पुरुष के बीच के गूढ़ रहस्यों को उस सीमा-रेखा तक जानकर जहाँ तक कोई भी व्यक्ति किसी भी काल या देश में नहीं जान पाएगा, मैडम ने मानव-दुर्लभ प्रचंड क्षमताओं और प्रखर बुद्धि का परिचय दिया है। 

चुम्मी मैडम दिल्ली के संध्या विहार में नानाविध क़द-काठी वालों की सहचरी रही हैं। समूची दिल्ली ने उन्हें मदन-मस्त-मोदक कंदराओं, हरे-भरे लॉनों, वृक्षों की छायाओं आदि में जाने-अनजाने पुरुषों के साथ रास-अभिसार करते देखा है। इस तरह उनके द्वारा रचित प्रेम-मिथकों ने राधा-कृष्ण से संबंधित प्रेम-प्रसंगों वाले मिथकों को बिल्कुल धूमिल कर दिया है। लोगों को लैला-मजनूँ, शीरी-फ़रहाद, ऐन्टोनी-क्लियोपेट्रा जैसे प्रख्यात पौराणिक प्रेमियों की घिसी-पिटी कथाओं को भूलने के लिए मजबूर कर दिया है। क्योंकि उनके वैरायटीदार प्रेम-प्रपंच में नानाविध गांधर्व कलाओं और इंद्र की अप्सराओं की होश-चूसक अदाओं का जो पुट मिलता है, उसका दृष्टांत पौराणिक प्रेमियों में क़तई नहीं मिलता है। हज़ारों साल पहले किसी वात्स्यायन ने अपने भविष्यदर्शी चक्षुओं से चुम्मी मैडम की प्रेम-पगी छवियों और उनकी प्रेम-कलाओं को देख लिया था जिसका अत्यंत चित्रोपम और व्यावहारिक निरूपण अपनी महान कृति–'कामसूत्र’ में किया है। इसीलिए, चुम्मी मैडम में हज़ारों वात्स्यायन पैदा करने और लाखों ‘कामसूत्र’ रचने की क्षमताएँ विद्यमान हैं। 

चुम्मी मैडम के पित्र-मित्र बताते हैं कि सेक्स एजूकेशन के प्रचार-प्रसार में उनके महती अनुभवों का लाभ उठाकर समूचे राष्ट्र को उनका ऋणी बनाया जा सकता है। उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों से समस्त भारतवासियों को फ़ायदा पहुँचाया जा सकता है। सो, उनके पित्र-मित्र महोदय एक सेक्स यूनिवर्सिटी खोलने की महत्त्वाकांक्षी योजना बना रहे हैं। इस यूनिवर्सिटी में सेक्स लैबोरेटेरी, भारी संख्या में क्लासिज़, लाइब्रेरी, प्रैक्टिकल डिपार्टमेंट, रिसर्च विंग, सेमिनार हॉल, हॉस्टल, प्रोफ़ेसर्स रेज़ीडेंस आदि सभी होंगे। उन्होंने अपना प्रस्ताव शिक्षा विभाग, गृह मंत्रालय को भेज दिया है जिसमें चुम्मी मैडम की उपलब्धियों की विशद चर्चा करते हुए उन्हें सेक्स यूनिवर्सिटी का पहला और आमरण वाइस चांसलर बनाने की वक़ालत की गई है। लिहाज़ा, विश्व में इस अद्वितीय यूनिवर्सिटी की भारत में अविलंब स्थापना के लिए देश-विदेश के बड़े-बड़े धन्ना-सेठों से भारी-भरकम अनुदान प्राप्त हो रहे हैं। स्वयंसेवी संगठन हर प्रकार से अपनी निःशुल्क सेवाएँ प्रदान करने के लिए सहर्ष आगे आ रहे हैं। कतिपय मल्टी-नेशनल कंपनियाँ भी इसके आद्योपांत विकास की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लेने को तैयार हैं। चूँकि इस संस्था को मिलने वाली व्यापक लोकप्रियता का पूर्वाभास हमारी सरकार को मिल गया है और इसके बड़े बाज़ार के बारे में भी उसे देशवासियों का रुझान पहले से पता चल गया है, इसलिए वह लगे हाथ देशभर के स्कूलों और कालेज़ों में सेक्स एजूकेशन तत्काल लागू करने पर आमादा है। कुछ राज्यों में तो इसे लागू भी कर दिया गया है। ऐसा अंदेशा है कि दूसरी सेक्स यूनिवर्सिटी की स्थापना स्वयं सरकार करने जा रही है और वह चुम्मी मैडम की कृपापात्र बनने के लिए सारे हथकंडे अपना रही है। वह अपने अफ़सरों को उसके पास भेजकर, उसका ख़ुशामद कर रही है और उसे हर सम्भव प्रलोभन दे रही है ताकि वह उसे अपनी यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर अप्वाइंट कर सके। 

यह बड़ी दिलचस्प बात है कि गंगा की नामूसी ने उसकी महान बहन (मैं यहाँ उन्हें परिस्थितिवश सम्मानपूर्वक ‘मैडम’ संबोधित न करने की गुस्ताख़ी के लिए माफ़ीनामे की फ़रियाद करता हूँ) के एकदम विपरीत व्यक्तित्त्व को हमारे सामने उजागर किया है। उनसे तो सभी जीव-अजीव मन-कर्म-वचन के आधार पर कृतार्थ हुए हैं। सभी ने उन्हें भरपूर देखा, सूँघा, छुआ, चखा और भोगा है। उनकी मन-बसिया छवि को पूजा-सँजोया है। निष्प्राण और मनहूस हो चले दिलों को सजीव बनाया है। संघर्ष की तेज धूप में सूख चुके लोगों को रसवान बनाया है। 

ख़ेदवश! उनके इस प्रभाव को लोगों ने पूरी तरह आत्मसात नहीं किया है। बहरहाल, यहाँ लोग-बाग हर पल उत्फुल्लित, उमंगित, उत्प्रेरित और उत्कंठित क्यों होते जा रहे हैं? दिल्ली इतनी रमणीक तीर्थस्थली क्यों बनती जा रही है कि दूरदराज़ के लोग रोज़ी-रोटी तलाशने के बहाने यहाँ आकर हमेशा खोए-खोए से कुछ तलाशते फिरते हैं? इसका गूढ़ रहस्य यही है कि वे यहाँ आकर चुम्मी मैडम की सोहबत में जीना-मरना पसंद करते हैं। इसका श्रेय मैडम को ही जाता है जिनके बारे में यह सोलह आने सुनिश्चित-सा लगता है कि इंद्र के दरबार से सभी अप्सराओं को स्वर्ग-निकाला देकर इन्हें पूरे मान-मन्नौवल के बाद आमंत्रित किया जाने वाला है। इनके सशरीर स्वर्ग-प्रयाण के बाद इस देश में जगह-जगह इनकी मूर्तियाँ मंदिरों में प्राण-प्रतिष्ठित की जाएँगी ताकि इस दुनिया में प्रलय होने तक चुम्मी मैडम प्रेम की इकलौती देवी के रूप में पुरुषों के दिलों में विराजमान रहें। 
लेकिन, आजकल दिल्ली सहमी-सहमी सी है, ख़ासतौर से यहाँ की कुआँरियाँ जिन्हें कुलच्छनी गंगा के बारे में फैली अफ़्वाहों की वजह से यह भय सताने लगा है कि कहीं उन जैसी ‘लड़कियाँ’ भी अकारण दाग़दार न हो जाएँ जबकि वे सारे ऐहितियात बरतती हैं! इसके विपरीत, पुरुषवर्ग गुमान में चौड़ा होता जा रहा है। उसे अपनी क्षमताओं का अंदाज़ा अब जाकर लगा है। सतयुग और त्रेतायुग से चली आ रही पौराणिक किंवदंतियों में बताई गई बातें अत्यंत आश्चर्यजनक रूप से इस नामुराद कलियुग में सही साबित हो रही हैं कि पुरुष के देखने या हल्के स्पर्श-भर से स्त्रियाँ सौभाग्यवती हो जाया करती थीं। पुरुष के पसीना या ख़ून का एक क़तरा भी स्त्री के जिस्म पर टपक जाए तो उसकी कोख भर जाती थी। तपस्या, प्रार्थना या वरदान भी उनकी बाँझ गोद को हरा-भरा कर देता था। लिहाज़ा, ऐसी माँएँ समाज में सम्मान की पात्र होती थीं और उनकी संतान को ऋषि-पुत्र, सूर्य-पुत्र, समुद्र-पुत्र या किसी देवता-विशेष का पुत्र पुकारकर उसका समाजीकरण किया जाता था। 
ऐसी प्रबल सम्भावना है कि गंगा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा। या तो किसी देवता के आगे उसकी कोई प्रार्थना फलीभूत हुई होगी या किसी मनचले पुरुष की निग़ाह या स्पर्श से वह गर्भवती हुई होगी। ऐसी भी अटकलें हैं कि किसी अतिमानवीय (सुपरनेचुरल) शक्ति ने उस पर रीझकर उसे इस तरह कृतार्थ किया होगा। यूँ भी आजकल भूत-प्रेतों के अस्तित्त्व के बारे में पुख़्ते सबूत मिल रहे हैं और देश-विदेश की कतिपय मीडिया एजेंसियाँ उनके फोटो खींचकर उनकी गतिविधियों के बारे में विश्वसनीय जानकारियाँ दे रही हैं। जहाँ तक गंगा के चाल-चलन पर कोई शक-शुबहा करने का सम्बन्ध है, उसमें ऐसा कोई लक्षण नहीं मिलता कि उसे बदचलन घोषित किया जा सके। अगर उस पर लगाए गए लाँछन सही होते तो वह इतनी ग़मगीन नहीं होती! बेशक! वह तन-मन से पाक-साफ़ है। मेरा तो पक्का विश्वास है कि उसके गर्भ से कोई अवतारी जन्म लेने वाला है क्योंकि प्रचलित विश्वास के अनुसार, ज़्यादातर अवतारी आत्माएँ कुआँरियों की कोख से ही जन्म लेती हैं। 

इसलिए, मेरे प्रिय देशवासियों! तुम सावधान हो जाओ क्योंकि पापियों का नाश करने वाला और दीन-दुःखियों की पीड़ाओं को हरने वाला एक महापुरुष गंगा की कुँआरी कोख से पैदा होने वाला है। मीडियाजनों से मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि वे गंगा के ख़िलाफ़ फ़िज़ूल अफ़वाह फैलाने से बाज आएँ और उसका स्वागत एक दुर्लभ माँ के रूप में करें जिसे शीघ्र ही एक देवमाता का दर्ज़ा दिया जाने वाला है! मैं उनकी इकलौती बहन चुम्मी देवी के पितृ-मित्र अर्थात्‌ तात से भी अनुरोध करूँगा कि वह ख़ुद चुम्मी मैडम को गंगा के अनुकूल हवा का रुख़ बदलने के लिए उसे बहलाएँ-फुसलाएँ। 

चुम्मी मैडम की साँठ-गाँठ न केवल इस देश के बहुसंख्यक बाँके मर्दों से है बल्कि पवनदेव से भी है। अतः हे तात! चूँकि आपको चुम्मी मैडम के निहायत क़रीब रहने का सौभाग्य प्राप्त है, इसलिए आप उनसे सभी माध्यमों से गंगा (जो भले ही हर नज़रिए से मैडम से भिन्न है, लेकिन है तो उसकी सगी बहन) के दामन पर लगे दाग़ को मिटाने के लिए व्यापक प्रोपेगैंडा का बंदोबस्त करें। यदि मैडम की कृपादृष्टि हो तो वह पवनदेव को एक हिदायत दे सकती हैं कि पवनदेव हवा में ऐसी तासीर पैदा करें ताकि संपूर्ण जनमानस में गंगा के प्रति न केवल अगाध स्नेह बल्कि अपार सम्मानभाव भी उमड़ सके। पहले भी पवनदेव ने मैडम की सेवा बड़ी तन्मयता से की है। न केवल उनके रंग-रूप-गंध को सर्वत्र विस्तारित किया है बल्कि कॉस्मेटिक कंपनियों को बेहतर सौंदर्यवर्धक क्रीम-पावडर बनाने की प्रेरणा भी दी है। महानगर की कोठियों में सजे गमलों में फूलों को बिल्कुल अलग ढंग से खिलने का अवसर दिया है; अन्यथा प्रदूषण ने तो उनका हुलिया ही बदल डाला था। वैसे तो, पेट्रोल का धुआँ, तंबाकू की भभक, शराब की ग़मक, मोटर-यंत्रों का कर्णभेदक शोर आदि पवनदेव के तन-मन में रचा-बसा है जिस कारण वह यहाँ से स्थायी प्रवास करना चाहते हैं। किन्तु, चुम्मी मैडम की मीठी हाय-हैलो, अंगुलियाँ फोड़ने की चनक, उनकी अंगड़ाइयों की कड़क, साँसों के उच्छवास, बदन की ख़ुशबू आदि जैसे मनमोहक घटकों के कारण पवनदेव यहाँ से प्रवास करने के इरादे से बाल-बाल बचे हुए हैं। वर्ना, आज यहाँ लोगबाग मुँह में ऑक्सीज़न की नली डाले और कंधे पर ऑक्सीज़न का सिलिंडर लादे दिल्ली-विहार करते नज़र आते। 

एक नज़रिए से देखा जाए तो गंगा की वजह से चुम्मी मैडम की मक़बूलियत में चार चाँद लगे हैं। लोग गंगा को देखकर मैडम को कुछ इस तरह याद करते हैं कि ‘देखो, यही है–दुनिया की सबसे अच्छी लड़की मतलब चुम्मी मैडम की बहन।’ बेशक! गंगा की बुराइयों ने मैडम की अच्छाइयों को और चमकदार बनाया है। अब, मैडम को और अधिक दिलचस्पी से देखा जाने लगा है। उनकी सराहना और मुक्त कंठ से की जाने लगी है। जो लिजलिजी कहानी गंगा की ज़िन्दगी से जुड़ी हुई है, उसने मैडम से जुड़े मिथकों को और अधिक लिज़्ज़तदार बना दिया है। यूँ भी, इस देश में कुँआरी माँओं की परंपरा कोई नई नहीं है। पर, गंगा द्वारा स्थापित परंपरा थोड़ी-सी लीक से हटकर है कि उसे अपनी संतान के डैडी के बारे में कुछ भी पता नहीं है जबकि पुरानी परंपरा के अनुसार बनी कुँआरी माँओं को अपनी संतानों के डैडियों के बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं रहती थी; हाँ, वे इसे जगज़ाहिर कभी नहीं करती थीं। 

सो, मैं भी गंगा की माफ़ी के लिए पुरज़ोर फ़रियाद करता हूँ। इसके लिए बेशुमार तर्क पहले ही दिए जा चुके हैं। पवनदेव को गंगा के ख़िलाफ़ जनाक्रोश को बदलने के काम में लगाया जा चुका है। तात को भी गंगा के भविष्य को लेकर चिंताग्रस्त देखा गया है और उन्हें मैडम से मिन्नतें करते हुए देखा-सुना गया है कि जवानी में किसके पैर नहीं फिसलते। गंगा नासमझ और भोली है। इस लिहाज़ से वह बिल्कुल बेक़ुसूर है। छोटी-मोटी ग़लतियों के लिए उसे इतनी बड़ी सज़ा नहीं दी जानी चाहिए कि देश की दूसरी भोली-भाली लड़कियों के लिए इस सबक़ को गले से नीचे उतारना ही कठिन हो जाए। उनमें से भी कई गंगाएँ पैदा हो सकती हैं। आने वाले कुछ सालों में कुँआरी माँ की भरमार होने जा रही है। अगर अभी से इस तरह के फिसलन को अपराध घोषित किया गया तो देश की कन्याओं के भविष्य का क्या होगा? इससे तो सारी स्त्री-सुधार योजनाएँ ही टाँय-टाँय-फ़िस्स बोल जाएँगी। ऐसे में तात की दिल खोलकर प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि वह कुँआरी माँओं के गर्भ-समापन के लिए एक ट्रस्ट खोलने जा रहे हैं और ख़ुदा-न-ख़ास्ता उनकी संतान दुनिया में आ भी जाती है तो तात ऐसी संतानों के लिए एक बाल निकेतन खोलने जा रहे हैं। अब, हम जैसे भलेमानुसों की यह ज़िम्मेदारी है कि हम गंगा जैसी माँओं की देश के चप्पे-चप्पे में खोजबीन करके तात की योजना को सफल बनाएँ। तभी हम अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों की बराबरी कर सकते हैं। 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2023/06/03 06:31 PM

मेरी बुद्धि से परे !!!!!

Dr. Manoj Mokshendra 2023/05/29 11:17 PM

आदरणीय घई जी, आपने मेरी व्यंग्य-कथा को साहित्य कुंज में प्रकाशित करके, मुझे अनुगृहीत किया है. पाठकोँ से अनुरोध है कि वे इस व्यंग्य-कथा पर अपनी टिप्पणियाँ अवश्य देँ.

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