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यंत्रऊँ गावहुँ मंगल चारि

बचपन के उन दिनों की स्मृति अभी भी मानस पटल पर पूरे रंग-रोगन के साथ चित्रित है जबकि घर में किसी उल्लासमय उत्सवों की झड़ी-सी लगी रहती थी। कनिष्ठ सहोदरों के जन्म पर कम-से-कम बारह दिनों का समय ऐसा रहता था जबकि नाते-रिश्तेदारों का अनवरत आना-जाना लगा रहता था। नए मेहमान की एक झलक पाने के लिए न जाने कहाँ-कहाँ के जाने-अनजाने, देखे-अनदेखे रिश्तेदार हमारे दरवाज़े दस्तक देते थे—बाक़ायदा चमचामती पन्नियों में उपहारों के साथ। ऐसे में, अपना घर पड़ोस में सबसे अलग, अर्थात्‌ अति महत्त्वपूर्ण लगता था। पड़ोसी झांक-झांक कर मेरे घर थोक में आई ख़ुशियों का जायज़ा लेते रहते थे। 

हाय! कहाँ ग़ुम गए वो सुनहरे दिन? इन बदतमीज़ आधुनिकताओं ने उन्हें अपने क़दमों-तले रौंद कर मलीदा बना रखा है। अब देखिए ना, आज की तारीख़ में अस्पताल ही बच्चों के जन्म-स्थान बन गए हैं जहाँ नितांत औपचारिकताओं के बीच चुनिंदा श्रेष्ठजन नवजातों को आशीर्वाद-प्रसाद से मालामाल करके नए मिसाल क़ायम कर जाते हैं। इतने पर भी, अत्याधुनिक मम्मी-डैडी बड़े गुमान से, छाती फ़ुटबाल की तरह फुलाकर, बेलगाम कहते सुने जाते हैं कि उनका फ़लाँ लाड़ला अमुक सुपर-स्पेशियलिटी हस्पताल के फ़ाइव-स्टार सरीखे चैम्बर में पैदा हुआ था। उफ़! ये कुंज़ेहन-बदक़िस्मत मम्मी-डैडी क्या जानें कि संयुक्त परिवार के सम्मानित बुज़ुर्गों की देख-रेख में बच्चों के जन्म पर कितनी ख़ुशियाँ मिल-जुल कर मनाई जाती थीं? षष्टी (छठ्ठी) और द्वादशी (बरही) पर समवेत गए जाने वाले 'सोहरों' की दिलकश फ़ज़ां का अव्वल मज़ा ये कैसे ले पाएँगे? नन्हे मेहमान के आगमन पर युवतियों के मनभावन नृत्य-गान का लुत्फ़ इन्हें कैसे नसीब हो पाएगा? पायलों और घुँघरुओं के छमछमाते संगीत का कर्णास्वादन ये अभागे कैसे कर सकेंगे? 

मैं सोलह-आने सच कह रहा हूँ। आँखों के आगे रचित काव्यमय नृत्यों और उन पर अभिनीत सांगीतिक तालों, स्वरलहरियों और आलापों को घ्राणेन्द्रियाँ के रास्ते चित्ताकाश में रचाने-रमाने के गौरवशाली युग का पटाक्षेप हो चुका है। अब ऐसे अवसरों को एक जुदा से अदा के साथ मनाने का दौर धड़ल्ले से चल पड़ा है। यानी-मेकैनिकल म्यूज़िक बिखेरकर, साउंड बॉक्स से पटाखेदार ओर्केस्ट्रा फोड़कर। लिहाज़ा, हम तो मिथक बन चुके उन जश्नों के दीवाने ठहरे। इसलिए, इन विस्फोटक शोर-शराबों से हमारा मन-मयूर नाचने के बजाय विचलित और विदग्ध हो जाता है। लिहाज़ा, हम अत्याधुनिकता की इन होड़बाज़ियों में गिनीज़ बुक में अपना नाम दर्ज़ कराने के लिए, इनमें ही भरपूर आनंद प्राप्त करने का दमख़म विकसित करने के जुगाड़ में लगे हुए हैं। कनस्तरिया थापों पर निरर्थक पैर पटक कर, लाठी भाँजने की तर्ज़ पर हाथों को दामिनी-गति से नचाकर, कलाबाज़ियाँ मारकर और चोटों की परवाह किए बग़ैर ज़मीन पर धड़ाम-धड़ाम गिरते हुए दर्शकों बेहद हैरत में डालकर इन युवाओं को अपनी किन नृत्य-कलाओं का प्रदर्शन करने का महागौरव हासिल है तथा उत्सवों को मनाने का किस श्रेणी का सुकून मिलता है, इन सभी के बारे में हमसे तो नहीं, इनसे ही जाकर पूछिए, आपको ज़्यादा सटीक जवाब मिल जाएगा। आप तो जनरेशन गैप के चलते नए दौर के साथ तालमेल बैठाने में इतने फिसड्डी हो चुके हैं कि अगर आपने फ़ुज़ूल में इनसे पूछने की गुस्ताख़ी की तो आप उनकी प्रतिक्रियाओं से पसीने-पसीने हो जाएँगे। कभी इन्हें मत बताइएगा कि तीज-त्योहारों, वर्षगाँठों, धार्मिक-सामाजिक अनुष्ठानों आदि को आयोजित करने का परंपरागत तौर-तरीक़े क्या हैं; वरना, वे झटपट आपके सामने अपने म्यूज़िक सिस्टम पर बहराने वाले संगीत की बोरियाँ खोल देंगे और ख़ुद थिरकने लगेंगे। वे दृष्टान्त देकर बताएँगे कि जनाब! ऐसे मानते हैं–जन्म-दिन और वर्षगाँठ। हमें तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि उन संगीतनुमा गर्जनाओं से उनके तन-बदन में जो तनाव उत्पन्न होता है, उससे उद्भूत दर्द की बेचैनी से ही उनके शरीर में अज़ीबोग़रीब हरकतें होने लगती हैं। इन हरकतों को ही नाचना-गाना-बजाना कहते हैं। मेरा एक नेक मशविरा है कि आपको इनके इस करतब को कोई अनाप-शनाप संबोधन देने से बाज़ आना चाहिए। 

इलेक्ट्रॉनिक गायकों अर्थात्‌ सिंगर मशीनों के मौजूदा दौर में मुंहज़बानी गाए जाने वाले मंगल-गीतों के दिन लद गए हैं। इसके साथ ही साथ विवाहोत्सव पर द्वारचारों के समय सजीले नारिवृंदों द्वारा मनोहारी मनोभावों और मनोचेष्टाओं के साथ शुभाभिवादन में गाए जाने वाले मंगल-गालियों की भी इतिश्री हो चुकी है। मेरी स्मृतियों पर गर्द की झीनी-सी भी पर्त नहीं पड़ी है और मुझे भलीभाँति याद है कि जब घर में चाचा-चाची, फूफा-बुआ, भाई-भतीजे अथवा सगे-संबंधी के विवाह की तैयारियाँ शुरू होती थीं तो अम्मा-मौसी, चाची-बुआ तथा माँ-सदृश महिलाएँ पहले से ही विवाह-संस्कार के विभिन्न अवसरों के लिए गाने-बजाने पर रियाज़ शुरू कर देती थीं। अम्मा तो चाहे रसोई में रोटियाँ पो रही हों या ग़ुस्लख़ाने में स्नान कर रही हों अथवा छज्जे पर बैठ, दाल-चावल बीन-पछोर रही हों, वह हर वक़्त गुनगुना रही होती थीं। जब ज़्यादातर लोग ऑफ़िस या स्कूल-कॉलेज जा चुके होते थे तो घर में एकांत का फ़ायदा उठाते हुए वह खूंटी पर टँगे ढोल उतारकर दादरा, त्रिताल या झपताल की हलकी थापों पर द्वारचार के समय या विवाह-मंडप के सामने तथा कोहबर में प्रवेश के समय एवं विदाई आदि के भावुक क्षणों के अनुकूल गाए जाने वाले मंगलगीतों का रियाज़ करने लगती थीं। तब, ड्राइंग रूम में अख़बार पढ़ना छोड़, चाची भी फटाफट उनके पास पहुँच जाती थीं और सुर में सुर मिलाने और ढुलकिया ताल पर थिरकने लगती थीं। उनके झमकते-झनकते गीत-संगीत सुनकर पड़ोस में औरतें अपने किशोर-किशोरियों के शीघ्रातिशीघ्र विवाह-योग्य युवा न हो पाने के कारण मन मसोस कर रह जाती थीं। बहरहाल, वे भी अपने निहायत ज़रूरी काम-काज को एक किनारे रख, मेरे घर की तरफ़ रुख़ कर लेती थीं। तब वे बड़े जोश-ओ-ख़रोश से मेरे घर की आदृत्य महिलाओं के साथ बैठकर सुर-ताल का अभ्यास करने के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती थीं। ऐसे में, हमारा पड़ोस भी हमारे ही परिवार का अभिन्न हिस्सा बन जाता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि ईश्वर ने माँ को बेहद सुरीली आवाज़ से नवाज़ा था। उनके कर्णप्रिय स्वर आज भी मेरे ज़ेहन में गुंजायमान होते रहते हैं। 

मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आज माँ की वय की बहुत कम महिलाएँ तीज-त्योहारों और विशिष्ट मौक़ों पर गाए-बजाए जाने वाले गीत-संगीत में दक्ष हैं। जब ऐसे अवसरों पर उनसे कुछ सुनाने के लिए आग्रह किया जाता है तो वे लिपस्टिक-पुते होंठों को कानों तक फैलाकर अपनी असमर्थता प्रकट करती हैं जिसमें उनके चहरे पर किसी कला में सिद्धहस्त न होने की बेचारगी क़तई नहीं झलकती है। उल्टे, उन्हें तो इस बात पर गर्व का अनुभव होता है कि इन नाचीज़ परंपराओं पर गाए जाने वाले फूहड़ गानों से उनका क्या लेना-देना? वे तो मॉडर्न एज की अति फ़ॉरवर्ड लेडीज़ हैं। तत्पश्चात, वे तत्वर उठकर म्यूज़िक सिस्टम पर कोई ढम्मर्र-ढम, ढेंचू-ढेंचू, ढर्र-ढर्र वाला संगीत चला देती हैं। उस वक़्त, उनके चहरे पर बड़ा सुकून दिखाई देता है—‘देखो, इस बर्थ-डे पर हमने इतना धमाकेदार संगीत बजाकर महफ़िल की रौनक़ में चार चाँद लगा दिए हैं।’ उसके बाद वे खड़ी होकर किसी नौजवान के साथ कमर मटकाने लगेंगी। फिर, आँखों ही आँखों में आपसे कहेंगी कि ‘हाँ, किसी ने नहीं, सिर्फ़ हमने मौक़े की अहमियत समझी। हमने सचमुच आपके महफ़िल की शोभा बढ़ाई है।’

सो, गीत-संगीत की वह परंपरा लुप्तप्राय हो चली है। आप किसी मंदिर में जाएँ, वहाँ ढोल-मजीरे और हारमोनियम पर आरती-गान एवं भजन-कीर्तन करने वाला भक्तवृंद कहीं नज़र नहीं आएगा। लेकिन, गुम्बद पर लगे लाउडस्पीकर से आरती और भजन का वृंदगान सुनाई दे रहा होगा। मंदिर में तो बस, आरती का दीपक घुमाता हुआ पुजारी दिखाई देगा जिसके आसपास कुछ गली-कूचे के बच्चे प्रसाद लेने के लिए खड़े होंगे। मस्जिदों में नमाज़ अता करने और अज़ान अलापने के लिए भी लाउडस्पीकरों से रिकार्ड बजने का फ़ैशन ज़ोर पकड़ चुका है। ऐसे में, गुरुद्वारे और गिरिजाघर क्यों पीछे रहें? वहाँ भी सबद और सरमन साउंडबॉक्स पर पूरे भक्तिभाव से बजाए जा रहे हैं। श्रद्धालु साउंडबॉक्सों के आगे खड़े होकर पूजा का पूरा पुण्य कमा लेते हैं। 

कुछ भी हो, हमारे गीत-संगीत विस्तारक इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों ने विशेषतया सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तनों का सूत्रपात किया है। अब वह दिन दूर नहीं, जबकि शवयात्रा के दौरान ‘राम नाम सत्य’ के बारंबार थकाऊ उवाच के लिए भी इन्हीं पर निर्भर रहना पड़ेगा। शव के ठीक नीचे ध्वनि-विस्तारक यंत्र लगा दिया जाएगा और एक छोटा-सा साउंड बॉक्स शव के सिरहाने रख दिया जाएगा। 

इसे लोगों का आलस्य कहा जाए या नव-आविष्कृत मशीनों का रहमो-करम, जिसके चलते हम परंपरागत उत्सवों से चिपके रीति-रिवाज़ों को धता बताते जा रहे हैं। अरे, धार्मिक कर्मकांड, पर्व-अनुष्ठान, सामाजिक संस्कार आदि तो हमारी काल-परीक्षित परंपराओं की ही देन हैं। इसलिए, ऐसे पारंपरिक आयोजनों पर पारंपरिक क्रियाकलाप को क्यों नकारा जाए? अब देखिए, यांत्रिक अग्निवेदी ने तो आहुति की रीति ही बदल डाली। अब आम की ढेरों लकड़ियों का क्या काम? ढेर-सारे दसांग, धूप और कपूर के दिन को लद जाने दीजिए। अग्नि प्रज्वलित करने के लिए माचिस और देसी घी का भी क्या काम? अब इलेक्ट्रिक अग्निवेदी ने तो आहुति देने के अनुष्ठान पर ही ग्रहण लगा दिया है। इस यंत्र को बिजली से कनेक्ट कीजिए, उसमें से लाल-लाल लपट निकलने लगेगी। फिर, उसमें चुटकी-भर दसांग और धूप डाल दीजिए–हो गई ना, आहुति। हो गए ना, अग्निदेव संतुष्ट। पंडिज्जी बताते हैं कि जहाँ आग है, वहाँ साक्षात् अग्निदेव की उपस्थिति हो जाती है। सही भी है। आप उस इलेक्ट्रिक यंत्र के साथ खिलवाड़ करेंगे तो आप जलेंगे और मरेंगे भी। मैं तो अग्निदेव से साष्टांग विनती करता हूँ कि अब से वह विद्युतीय माध्यम से ही हमारी पूजा-भेंट स्वीकार किया करें! 

मुझे बनारस के वे खाँटी भक्तजन भुलाए नहीं भूलते जो भोर में चार बजे से पहले ही चिमटे बजाते और भजन-कीर्तन गाते हुए गली-वीथियों से गुज़रते थे। उनकी यह प्रभात-क्रिया उनके घर से गंगा नदी के बीच आते-जाते अबाध चलती रहती थी। गंगा मइया में डुबकी लगाकर लौटते समय उनका कीर्तन-गान और भी अधिक मुखर-प्रखर हो जाता था। आज जबकि वह बेला चोर-उच्चकों और घोर निद्रार्थियों के लिए आरक्षित हो चुकी है तथा लोग-बाग विरले ही दूर-दूर तक कहीं नज़र आते हैं, उसे जीवंत और मनसायन करने की गुस्ताख़ी कोई नहीं करता। उसकी मनहूसियत को मिटाने की ज़ुर्रत कोई नहीं करता। अगर कोई ऐसा करता भी है तो गलियों से आसन्न घरों में सो रहे लोग उन्हें गालियों से अलंकृत करने से नहीं चूकते—‘इन कुंज़ेहनों ने रोज़ सवेरे-सवेरे हमारी नींद में सेंध मारने का ठेका ले रखा है।’ चुनांचे, दूर से ध्वनि-विस्तारक यंत्रों (लाउडस्पीकरों) से प्रसारित भजनों और चौपाइयों तथा ‘अल्लाहो-अकबर’ की गुहारों से उन्हें कोई गिला नहीं है क्योंकि वे कमोवेश इसके आदी बन चुके हैं। दूसरे, वे शयन-कक्ष के दरवाज़ों और खिड़कियों को साउंड-प्रूफ बंद करके भी दूरस्थ लाउडस्पीकरों की रुक्ष ध्वनि के प्रभाव को कम कर देते हैं। किन्तु, आसन्न गलियों से आने वाली आवाज़ों से उन्हें कैसे नजात मिले? च्च च्च च्च . . . 

यंत्रों और मशीनों की इस भूमिका से किसी को क्यों गुरेज़ हो? नए लोगों को तो बिल्कुल नहीं होगा। क्योंकि उन्हें अपना बर्थ-डे मनाने का एक स्मार्ट स्टाइल जो मिल गया है। लेकिन, पुराने लोगों को बारात की विदाई की बेला में घरातियों की आँखों में आँसू न देखकर और वधू पक्ष के लोगों के होंठों पर विदाई के भावपूर्ण उद्गार न सुनकर कितना कोफ़्त होती है! इसका अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल है। उस क्षण, क्या लाउडस्पीकर पर ‘बाबुल की दुआएँ लेती जा/ जा, तुझको सुखी संसार मिले’ जैसा विदाई गीत सुनकर वास्तव में सच्चा सुकून मिलता होगा? बेटी से विछोह को झेलने का मनोबल उसके माँ-बाप बना पाएँगे? मैं समझता हूँ कि वधू की सहेलियों द्वारा गाया गया विदाई गीत ज़्यादा हृदयस्पर्शी होगा। उनकी ज़बान से ही फूटे लफ़्ज़ बारातियों को बेहतर भावभीनी विदाई दे पाने और वधू पक्ष के सगे-संबंधियों को ढाढ़स बँधा पाने में सक्षम होंगे। असली आँसू तो तभी छलकेंगे। 

अस्तु स्मार्ट मशीनों के चलते हमें विदाई गीत सुन पाना मयस्सर नहीं होगा; इसलिए, हम उनके प्रभाव को कैसे जान पाएँगे? हमारे ऊपर तो ध्वनि-विस्तारक यंत्रों ने जादू कर रखा है। जिस प्रकार भावना-रिक्त यंत्रों ने महफ़िलों को गुलज़ार करने का बीड़ा उठा रखा है, उसी तरह लोगों के हृदय भी शुद्ध मानवीय संवेदनाओं से शून्य हो चुके हैं। ध्वनि-विस्तारक यंत्रों को तो सर्व-स्वीकार्यता मिल चुकी है। पलड़ा इन्हीं का भारी है। भई, लोकतंत्र का ज़माना है। इन्हें ही ज़्यादा वोट मिलेंगे। पारंपरिक गीत-संगीत रिवाज़ की तो ज़मानत ही ज़ब्त हो जाएगी। इन परिस्थितियों में, हम भी अपने बड़े-बुज़ुर्गों से कहेंगे कि वे अपनी ढपली बजाने और अपना राग अलापने से बाज़ आ जाएँ। लिहाज़ा, उन्हें अपनी ही ज़बान में यह कहने की आज़ादी है कि ‘यंत्रऊँ गावहुँ मंगल चारि’ . . . 

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