वैष्णो बाला
काव्य साहित्य | कविता डॉ. मनोज मोक्षेंद्र1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
इसी उत्तल-उत्तुंग
दुर्भेद्य अपमार्ग से
गयी थी एक बाला
जिसके क्रोध ने
बना दिया था देवी उसे
कैसे बचाया होगा
उसने स्वयं को?
हाँ, बचाया था
स्वयं को
और इस सुकुमारी
वनविहारिणी सुन्दरी को भी
शील-भंग होने से,
चढ़ते हुए उन नुकीले शिखरों पर
जिन पर चींटियों तक के
पाँव फिसल जाते हैं,
ब्यालों से बचकर छिपते हुए
उन गुह्य कंदराओं में
जिनमें घुसते हुए
केंचुए तक की कमर टूट जाती है
आख़िरकार, प्रतिशोध ने
विवश कर दिया होगा उसे
अपूर्व बल अर्जित करने के लिए,
तब उसने सम्पूर्ण स्त्री-बल से
क़लम कर दिया होगा
अहंकार का सिर,
निष्ठुर पौरुष के ख़िलाफ़
छेड़ा था संग्राम जो उसने,
उसकी विजय-परिणति हुई थी यहीं,
यहीं उसने कामांधता को रौंद
बजाया था बिगुलनाद
जब कभी निरीहता
असमर्थता की क़ैद से मुक्त हुई होगी,
एक तीर्थ-स्थल बना होगा वहाँ
और ताक़त की तलाश में निरीहजन
आख़िरकार
पहुँचे होंगे यहीं—
मनस्वी निष्ठा से
इस बाला को पूजने,
आत्मबल अर्जित करने का जिसने
जीवंत संदेश पहुँचाया कोने-कोने
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