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उल्टे काम करके ख़ुशियाँ बाँटना

 

ऑफ़िस में उन्हें सठियाए हुए आदमी का तगमा कभी नहीं मिला। यह तो उन्हें अपने ही घरवालों से मिला जबकि वह रिटायर्ड हुए। 

उस दिन ऑफ़िस को ‘गुड बॉय’ कहते हुए वह बाहर निकले ही थे कि शर्माजी मिल गए। उन्होंने अचरज से मुँह बा दिया, “अरे मंगलजी, सुना है कि आप रिटायर हो गए हैं? देखने से तो आप चालीस से ज़्यादा के लगते ही नहीं।”

मंगलजी कामकाज से फ़ारिग़ होकर घर आ बैठे-वो क्या कहते हैं कि चैन की बंसी बजाने और आराम से पेंशन की रोटी खाने। 

चुनांचे, घर बैठे साल भर ही नहीं गुज़रे थे कि उन्हें अंधे, बहरे और लूले होने के तगमों से घरवालों ने ही अलंकृत कर दिया। 

वो ऐसे—

एक दिन, बिटिया झुनझुन ने अम्मा के कान में फुसफुसा कर कहा, “अम्मा, जब मैंने बाबूजी से कहा कि आप खाना खा लीजिए, तो पता है, उन्होंने क्या कहा?” 

“क्या कहा झुनझुन?” 

“कहा कि बिटिया, इस उम्र में गाना . . . गाना कहाँ सम्भव है?” 

“तब, मैंने मुँह बिचकाकर खाने की थाली उनके आगे सरका दी। तो भी वह बोलते रहे–जवानी में तो मैं ख़ूब गाने गाता था। लेकिन, इस बुढ़ापे में वह ताक़त कहाँ रही कि ठीक से सुर भी लगा सकूँ।”

एक दिन, वह चश्मा तलाशते-टटोलते हुए दाई से टकरा गए तो सामने अम्मा आ-खड़ी हुईं, “अब क्या केंचुए की तरह आँखें फोड़ बैठे हो, पूरी तरह अंधे हो गए हो क्या?” 

“चश्मा ढूँढ़ रहा था, न जाने कहाँ रख दिया है?” मासूमियत बेशक उनके चेहरे से टप-टप टपक रही थी। 

“अब बातें बनाना बंद करो। कामवाली से बुढ़ापे में इश्क़ लड़ाने चले हो और वह भी दो कौड़ी की औरत से?” 

तब, अम्मा ने उनके सिर पर चढ़े चश्मे को हाथ बढ़ाकर उतारा और उनके हाथ में थमा दिया। वे शंकालु नज़रों से उन्हें घूरते हुए बाथरूम में चली गईं। 

एक दफ़ा ऐन सवेरे, वह बेडरूम से निकलकर किचन की तरफ़ तेज़ी से बढ़ने लगे तो फिर उनसे अम्मा टकरा गईं। वह कड़क होकर बोल पड़ीं, “कहाँ जा रहे हो?” 

“वॉशरूम, शू-शू के लिए जा रहा हूँ,” वह निर्विकार भाव से बोले। 

तब अम्मा नाक-भौंह सिंकोड़ते और आँखें तरेरते हुए फट पड़ीं, “किचन में टॉयलेट करने का इरादा है क्या?” 

वह माथा पीटते हुए पीछे मुड़े और वॉशरूम में चले गए। सोचने लगे कि जवानी के दिनों में भी बहुत प्राय: ऐसी ग़लतियाँ कर बैठता था। तब तो पत्नी ने कभी ऐसे नहीं झिड़का, ऐसी फटकार नहीं लगाई। 

वह बड़बड़ाने लगे, “नहीं, मैं क़तई बूढ़ा नहीं हुआ हूँ। मैं जानबूझकर ऐसा कर रहा हूँ ताकि सबका मनोविनोद कर सकूँ।” 

एक शाम, बाज़ार जाते हुए पत्नी ने कहा, “कल करवा चौथ है, मेरे लिए चूड़ी लेते आना।”

उन्होंने पल भर को उसे आश्चर्य से देखा, फिर चुपचाप बाहर निकल गए–ख़ामख़ाह, पत्नी से बहस करने का मतलब अपना दिमाग़ ख़राब करना। सीधे-सीधे, करवा चौथ व्रत के लिए गिफ़्ट के तौर पर इतनी महँगी चीज़ यानी घड़ी माँग ली, वह भी इस बुढ़ापे में। वाह रे औरतों का फ़ैशन! 

बाज़ार से लौटते ही उन्होंने टाइटन घड़ी उसके हाथ में थमा दी। तब पत्नी सोच में पड़ गई। फिर, समझ में आया-बुढ़ऊ चूड़ी को घड़ी सुन बैठे। चलो, उनके बहरेपन का एक तो फ़ायदा मिला। चूड़ी के बदले घड़ी मिल गई। 

लिहाज़ा, मंगलजी तो ये सारी भुलक्कड़ी का दिखावा कर रहे थे। लोग-बाग रिटायर आदमी को अँधा-बहरा ही समझ बैठते हैं। बहरहाल, इस ढलती उम्र में घरवालों का ख़ूब दिमाग़ ख़राब करूँगा। उन्हें तो मुझे अँधा-बहरा-लूला समझ कर बड़ा सुख मिल रहा है। मैं तो यूँ ही जानबूझ कर उल्टा काम करता रहूँगा और उनके लिए ख़ुशी का स्रोत बनता रहूँगा। 

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टिप्पणियाँ

नव पंकज 2023/03/30 12:11 AM

हर समस्या में ख़ुशी तलाश लेना ही असली सुख है। सुंदर रचना

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