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यातना है–ख़ुद को कविता से अलग करना

एक दु:सह्य यातना है
कविता को प्रसवित कर
पाल-पोस कर
ख़ुद को कविता से अलग करना
और इससे पृथक
अपना स्वरूप पहचानना
 
यातना है
लिफ़ाफ़े में बंद अपनी रामकहानी को
दीमकग्रस्त काग़ज़ों के बीच दबाकर 
दुनियावी तस्वीरों की
चित्रवीथि लगाना
 
बेहद दुष्कर शल्यक्रिया है
कविता से अपने अक्स को
काट-छाँटकर
पके घावों की तरह
निकाल फेंकना–
उन कूड़ों में
जिनमें असामाजिक प्रेमियों के
राग-रोमांस के छीजन तक
इन कटे-फटे घावों के
कतरनों से परहेज़ करते हैं
 
दस्तावेज़ी सिंहासनों पर
जनसाधारण के लिए
कविताओं का पाठ्याभिषेक करना
कवि की एक आत्मघाती गुस्ताख़ी है
जबकि पहले से सिंहासनारूढ़ कवितायें 
निर्ममतापूर्वक उसके तन्हा अक्स की 
अस्मिता पर फब्तियाँ कसती हैं, 
उसे ख़ुद के प्रति संवेदनशून्य होने पर 
उसके बौने होते क़द को
उन क़द्दावरों के सामने प्रस्तुत करती हैं
जिन्हें उसने अपने शब्दों और स्वरों से 
इस क़ाबिल बनाया है
कि वे ख़ुद को
चतुर्दिक प्रदर्शित कर सकें 
 
बेशक! कितनी बड़ी यातना है
अपनी हस्ती का 
कविताओं के हाथों 
मटियामेट होना, 
कविता की सेहत के लिए 
अपनी संक्रमणशील बीमारी को
उससे बचाना
जबकि कविता उससे ही 
गर्भवती होकर
जन्मती, पलती और बढ़ती है
जवान होती है
और कलाकार के घातक विषाणु 
उसे छू तक नहीं पाते 

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