अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शैलेंद्र ‘अशान्त’ की भावप्रवण रचनाधर्मिता

कविता-संग्रह: ‘बस यूँ ही’ 
कवि: शैलेंद्र ‘अशान्त’
प्रकाशक: मीरा श्रीवास्तव, आचार्य द्विवेदी नगर, जेल रोड, राय बरेली (उ. प्र.) 
संस्करण: प्रथम (2024) 
मूल्य: 100 रुपए

कविताओं के सुवासित वृन्द के बीच हम कभी-कभी कुछ ऐसी कविताओं से रू-ब-रू होते हैं जिन्हें पढ़ते हुए हमें तुरंत एहसास होने लगता है कि “अरे, ये तो वही कविताएँ हैं जिनकी हम बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे।” ऐसी कविताएँ सचमुच हमारी पाँचों इंद्रियों को जागृत करती हैं और उनसे उद्भूत हमारे विचार-पुंज को हमारे मानस में स्थापित करती हैं। ऐसी सुगंधित कविताएँ जब एक ही स्थान पर एक ही पुस्तक में संकलित मिलती हैं तो उन्हें पढ़ने की बेचैनी पर लगाम कसना भी मुश्किल हो जाता है। 

हाँ, ऐसी ही कुछ रोमांचक-प्रेरक कविताओं का एक संकलन मेरे हाथ आया है जिसमें सुपरिचित कवि शैलेंद्र ‘अशान्त’ द्वारा विरचित कुल 45 कविताएँ समाहित हैं। ये कविताएँ समाज में सकारात्मक विचारधारा को प्रवाहित करने तथा जन-जन के प्रति सदाशयतापूर्ण दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रेरित करती हैं। उल्लेख्य है कि शैलेंद्र इन कविताओं में प्रकृति, राष्ट्रीय संस्कृति, स्वस्थ मानवीय संबंधों, स्वास्थ्यकर परंपराओं तथा लुप्तप्राय जीवन-मूल्यों को पुनर्स्थापित करने के लिए आत्म-संकल्पित नज़र आते हैं। शैलेंद्र का कवि-धर्म जीवन की संकीर्णताओं और मानसिक उथलेपन को धता बताते हुए मुखर होता है। 

संग्रह की पहली कविता ‘खोजे मन’ में कवि रीतियों और परंपराओं के साथ जीने की उत्कट इच्छा रखता है जहाँ सावन की स्मृतियाँ उसे भावुक बना देती हैं। सावन के झूले, राखी का त्योहार, कजली के गीत और झूले पर पेंग मारती युवतियों को शहरीकरण का तूफ़ान उड़ा ले गया। ऐसे में कवि का विषादग्रस्त होना द्रावक है:

“नीम का पेड़ कट गया है
कोई नहीं है आसपास
मेरा सावन कहाँ गया?” 

संग्रह की कविता ‘रोटी’ में कवि उन मानवीय कुकृत्यों पर अट्टहास करता है जिनके बदौलत मनुष्य रोटी का मोहताज हो गया है:

“रोटी तो चाँद का टुकड़ा है
और पैसा ज़िस्म नोचकर खाता है”

कवि का भावुक मन समाज की निष्ठुरताओं और उसके झूठे पाखंडों को देखकर शोकातुर हो उठता है। किन्तु, कविता ‘खड़ी सम्भावनाएँ’ में वह आशावाद के आलंब को मज़बूती से थामे हुए खड़ा है क्योंकि ऐसी भी सम्भावना है कि सब कुछ सही रास्ते पर चल पड़ेगा:

“कालचक्र होता है 
प्रति क्षण परिवर्तित
चलो, कुछ अच्छा करो
हारो नहीं प्रिय बंधु
खड़ी सम्भावनाएँ हैं
अपरिमित”

कुछ कविताएँ नामत: ‘तुम जानो या हम जाने’, ‘भोर, साँझ और कल’ आदि में शैलेंद्र के मानस-तल पर बैठा अवसाद सुखद है क्योंकि वहाँ कवि तनिक रोमांटिक हो जाता है। ‘बंजारन सरसों के’ कविता में कवि का प्रकृति से अविलगेय सान्निध्य हृदयस्पर्शी है:

“बंजारिन सरसों के
पीताम्बर धारण से
अर्थ ना लगाओ प्रिय—
संन्यासिनी हो गई”

कविता ‘बस यूँ ही’ में कवि का आत्मालाप भावुकता से सराबोर है:

“नैना जागे रात से भोर तक
अँधियारे में तारों संग
और चाँदनी के अधरों के 
गाते गीत प्रसंग”

कवि शैलेंद्र का प्रकृति से लगाव अटूट है। वह प्रकृति के विभिन्न अंगों-उपांगों के साथ अपना स्वाभाविक तादात्म्य स्थापित कर लेता है। गाँव, बर्फ़, गिलहरी, चिड़िया, कौवा, कोयल, बेहया के फूल, भोर, साँझ सभी उसकी स्मृतियों में बचपन से उसकी प्रौढ़ावस्था तक जीवित हैं। इसके अतिरिक्त, वह दुनिया के क्रिया-व्यापार में मनुष्य के कुकृत्यों पर जी-भर कर रोने के लिए विवश है। ‘युद्ध के दृश्य’ में वह विश्वभर में व्याप्त युद्ध की विभीषकाओं से दुःखी है:

“कड़वाहट पैदा की गई है
चारों दिशाओं में 
इसलिए ही विश्व में 
युद्ध के ये दृश्य हैं”

संग्रह की अन्य कविताएँ यथा—‘धनिया’, ‘क्या कहना है क्या सुनना है’, ‘क्या करोगे’, ‘गिलहरी’, ‘शांति की नीति पर भारत’, ‘आहत कवि से’, ‘आशाओं के संदर्भों में’, ‘गेंहूँ, गुलाब कब उगाएंगे’, ‘कैसा नाटक है’ आदि विभिन्न संदर्भों में विभिन्न विषयों पर रची गई हैं जिनमें कवि की रचनाधर्मिता मुखर हुई है। ‘मजदूर’ शीर्षक से इस कविता की दो पंक्तियाँ मार्मिक हैं:

“रोटी की बात है
जिसमें वह चिपका खड़ा है”

‘लोरी’ शीर्षक की कविता में कवि एक माँ की भूमिका में उपदेशक की भाँति प्रतीत होता है। वह बच्चों को सीधा-सादा सबक़ देता है और दुनिया की क्रूर प्रवृत्ति को उजागर करता है:

“यहाँ लोग पत्थर-दिल हैं
पत्थर के देवता बहुत हैं
अपनी चौखट-माटी से 
तुम मिल-जुल कर रहना”

संग्रह की प्रायः सभी कविताओं में कवि की भाषा अत्यंत सरल और सहज है। इन कविताओं के माध्यम से यह स्वतः स्पष्ट है कि कवि देश की माटी में भली-भाँति रचा-बसा हुआ है। उसका भाव-संप्रेषण स्वाभाविक है तथा भाषा-शैली में आंचलिकता का बेहतर संपुट है। इन कविताओं के ज़रिए वह भारतीय समाज को सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणा देने की भरसक चेष्टा करता है और वह इसमें सफल भी है। भावुकता के बहाव में शब्दों का जिस तरह प्रयोग किया गया है, उसमें यत्र-तत्र उसकी फिसलन नज़र आती है जो क्षम्य हैं। लेकिन उसका भाव-पक्ष प्रबल है। पाठक उसकी कविताओं को पढ़कर आनंदित होंगे। मैं उसके कवि के रूप में सर्व-स्वीकार्यता की हृदयतल से कामना करता हूँ और उसके अगले काव्य संग्रह की बेसब्री प्रतीक्षा करता हूँ। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कार्यक्रम रिपोर्ट

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

साहित्यिक आलेख

कहानी

लघुकथा

ललित निबन्ध

किशोर साहित्य कहानी

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं