मन की मुट्ठी में गाँव
काव्य साहित्य | कविता डॉ. मनोज मोक्षेंद्र1 May 2022 (अंक: 204, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
मन की मुट्ठी में
जो बूढ़ा गाँव है
बैसाखियों के सहारे
खेत की मेढ़ों पर डगमग चलते हुए
वक़्त की आमरण मार-लताड़ से भी
छूटकर बिखरता-बिसरता नहीं,
पड़ा रहता है
पूरी सक्रियता से
खाते-पीते, सोते जागते
हँसते-गाते, रोते-रिरियाते
शहर के सुदूर परित्यक्त ओसारे में
बिटिया के ब्याह की चिंता में
नीम-तले चिलम सुड़कता गाँव ग़मगीन है
करेंट लगने से गीध की मौत पर,
अनाज पछोरता गाँव उत्सव मना रहा है
सूखे इनार में फिर पानी आने पर,
पनिहारिनों की गुनगुनाहट सुनता
गाँव झूम-गा रहा है
परधान की किसी मुनादी पर,
गंगा-नहान से लौटता गाँव धर्म-स्नात है
मज़ार पर फ़क़ीर की बरसी में,
लू से अधमरा गाँव खा-अघा रहा है
बाबा के डीह पर भोज-भंडारे में,
हाट-मेले से लौटकर
गाँव जमा हुआ है स्टेशन पर
ऊँची हील की सैंडिल पहनी लड़की को देखने
गाभिन गायों वाला गाँव पगुरा रहा है
अलहदी बरखा के बिसुकने पर,
ख़ाली खलिहानों में क्रिकेट मैच खेलता गाँव
सपने पाल रहा है
शहर के साथ लंगोटिया याराना निभाने का
मन की मुट्ठी खुलने पर भी
गाँव पड़ा रहता है सुकून से वहीं,
मन के अछोर परास में
ओझल-अनोझल फिरता रहता है
सिर पर अँगोछा बाँधे
मुँह में बीड़ी दबाए
मन की मुट्ठी में
जो बूढ़ा गाँव है
ज़िंदा रहेगा
मन के गेह में
आबाद रहने तक।
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