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गिरिजा कुमार माथुर: लीक पर न चलने का हठ

गिरिजा कुमार माथुर हिंदी-काव्य सरिता की वह धारा है जिसने एक-ही दिशा में बह जाना कभी स्वीकार नहीं किया। वे किसी विशेष वाद या विधा से बंधकर, पूर्ववर्ती या समकालीन मान्यताओं से नियंत्रित होकर अथवा किसी व्यक्ति विशेष या चेतना विशेष के सम्मोहन में पड़कर कवि-कर्म में प्रवृत्त नहीं हुए थे। उनका कवि न तो हमेशा के लिए कोई स्वनिर्मित पथ अपना सका, न ही किसी युग-प्रवर्तक की राह पर पैर जमा सका। वे निराला जैसे प्रगतिशील कवि के सान्निध्य में रहकर भी उनके पिछलग्गू नहीं बन पाए। नवीन, बच्चन और दिनकर के फड़कते मस्त अंदाज़ और फ़क़ीरी, फक्कड़ी और शहीदाना व्यक्तित्व से परिचित होकर भी उनके नियतिवाद में कभी प्रवाहित नहीं हुए। सन् 1938 में अँग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन करते समय वे कवि मिल्टन की ग्रांड-स्टाइल, उनके मिथक पात्रों, कीट्स की बिम्ब योजना और ब्राउनिंग के अपराजेय आशावाद से आकृष्ट होकर भी उनकी धारा में नहीं बहे। 

माथुरजी के इस अलग-थलग पड़े व्यक्तित्व का एक कारण यह था कि वे साहित्य के विविध पक्षों विशेषतया भाव और शिल्प के समान विकास पर बल देते थे तथा इसके एकांगी विकास को दोष मानते थे। उनके अनुसार लीक से अलग रहकर ही साहित्य के विविध पक्षों का परिमार्जित विकास किया जा सकता है। संभवत: 'लीक से इतना अलग' ('नया कवि') होने के कारण ही उनका रचना-संसार विविधताओं से भरा हुआ है। अस्तु, यह कवि हिंदी कविता से कभी स्वीकृत और कभी अस्वीकृत होकर भी पाठक के लिए कभी अजनबी नहीं रहा। चूँकि, उनकी रचनाधर्मिता का लक्ष्य हर नए मोड़ पर मुड़ जाना रहा; लेकिन वे अभिव्यक्ति के मंच पर मानवीय संवेदना का हाथ सदा थामे रहे। मानव-सुलभ भावनाओं के संप्रेषण में वे रचना के स्वानुभवजन्य एवं लोकानुरूप मानदंड अपनाते हुए हर क्षण आगे बढ़ते रहे। उनमें न कोई अपराधबोध है, न रहस्य, न कोई उन्मत्त नयापन है। प्रत्येक भाव और विचार का सहज और अनुकूल प्रस्फुटन है। 

माथुरजी यह मानकर चलते हैं कि कविता कवि की ऐसी आलोक काया है जो समय की सीमा में होते हुए भी प्रेरणा के उन्मेष बिंदु पर पहुँचकर उसके व्यक्तित्व और उसके समय की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है। उनकी कविता न तो आत्ममंथन है, न ही दैहिक स्तर पर भोगा हुआ व्यापार। स्पष्ट जीवन-दृष्टि देने वाली ऐसी विचारधारा जो समानता और जनमुक्ति का पोषक एवं कड़वे-मीठे सच से ओतप्रोत हो, उनकी कविता की आत्मा है और यह आत्मा तब प्राणस्पंदित हो उठती है जब कवि सामाजिक, वस्तुगत तथा व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को फिर से जीने, पहचानने और बृहत्तर जीवन से जोड़ने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में उसका स्थूल व्यक्तित्व तरल होकर कविता की सरिता में निमज्जित और विसर्जित हो जाता है। 

गिरिजा कुमार जी पूर्व-प्रतिपादित और स्वनिर्मित लीक से मुक्त होकर कविता के लक्ष्य को पूरी तरह निभाते हैं। कविता, जैसा कि वे सोचते हैं, यथार्थ जीवन और व्यवस्था के तमाम संघर्ष, संताप और अन्याय, विकृति, पाप और विरोधाभासों पर पड़े पर्दों को हटाती है। आदमी के जीवन को जो शक्तियाँ कुंठित, दमित और शोषित करती हैं और मानवीय गरिमा और उसके सांस्कृतिक अधिकारों को छीनती हैं, उन्हें हटाने में कविता की सक्रिय और सशक्त भूमिका होती है। 

अपने इसी व्यापक दृष्टिकोण के साथ माथुरजी की कवि-काया उस बरसाती केंचुए की तरह विविध आकार अपनाती है जो माटी का ऊसरपन पचाकर उसे उपजाऊ बनाता है। निस्संदेह, उन्होंने अपने युग की विभिन्न सांस्कृतिक और नैतिक मान्यताओं, व्याप्त रीति-रिवाज़ों, सामाजिक आक्षेपों एवं साहित्यिक पूर्वाग्रहों तथा समकालीन परिस्थितियों के मध्य कभी संधि और कभी विग्रह की राह अपनाते हुए, जो काव्य-दृष्टि प्रदान की, उससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि कोई व्यक्ति भले ही युग-प्रवर्तक न हो, उसके दृष्टिकोण जीवन के मौलिक रूपों का सूत्रपात कर सकते हैं। इस तरह, वे जीवन के सम-विषम पक्षों को उजागर करते हुए परिवर्तनशील मनो-सामाजिक, भावात्मक संसार के यथार्थ और मौलिक चित्र अंकित करते हैं। 

माथुरजी की कविता एक अत्यंत सूक्ष्म-जटिल, द्वंद्वात्मक प्रक्रिया की ऐसी टकराहट की प्रतिध्वनि है जो बाह्य जगत और अंत:जगत के विभिन्न मानसिक एवं सामाजिक घटकों के बीच सतत् अंतर्द्वंद्व से प्रादुर्भूत है। 'मंजरी' (1941) की किशोर और युवा कविताओं से ही यह अंतर्द्वंद्व शुरू हो जाता है जो तत्युगीन छायावादी वातावरण और लीक से अलग होने के लिए उनके प्रयासों के बीच हमेशा विद्यमान है। 'बड़ा काजल आंजा है' (1938) और 'विष ही छोड़ गए जीवन में' (1939) जैसी सुघड़ रोमांटिक कविताओं से उनमें छायावादी प्रवृत्तियों का शिलान्यास होता है। वे करूणातप्त कल्पनाशीलता, बिम्ब, देशज-भाषा, ऐतिहासिकता-बोध और मोहग्रस्त वैयक्तिकता जैसे तत्कालीन लक्षणों से बिंध जाते हैं। उनके छायावादी रुझान से प्रभावित होकर निरालाजी भी कह उठते है: 'गिरिजा कुमार माथुर निकलते ही हिंदी की निगाह खींच लेने वाले तारे हैं। ' किन्तु, निराला जी की सलाह पर वे 'अपनी क़लम पेट' से न बाँधते हुए स्वच्छंद रचना में ही सक्रिय रहे। चुनांचे, वे व्यक्तिनिष्ठता, आध्यात्मिक ऊँचाई, परिष्कृत शैली और अप्रस्तुत योजना का परित्यागकर, छायावादी प्रवृत्ति से अलग अपनी पहचान बनाने में तत्वर लग गए। तदनन्तर, उनमें शौर्य, आत्मोत्सर्ग और त्याग की भावनाएँ गुंजित होती हैं जो यूरोप के फ़ासिज़्म के विनाशक उदय से उद्भूत थीं। 

1939-45 के बीच लिखी गई कविताएँ जो 'नाश और निर्माण' (1946) में संकलित हैं, उनके वैविध्यपूर्ण व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्त्व करती हैं। इनमें न केवल द्वितीय महायुद्ध, अँग्रेज़ी दासता और मार्क्सवाद के परिणामस्वरूप एक परिवर्तित मनो-सामाजिक चेतना का स्वर उभरता है, अपितु विषय की मौलिकता के साथ-साथ रचना टेक्नीक में उस प्रयोगधर्मिता का भी प्रदर्शन होता है, जिसका सामंजस्य उन्होंने प्रगतिवाद के साथ बैठाना चाहा था। बहरहाल, उन्हें कभी भी प्रयोगवादी या प्रगतिवादी धारा में बह जाना स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि वे न तो प्रयोगवाद को कोई वाद मानते थे, न ही प्रगतिवाद को कवि की रचनाधर्मिता का एक अनिवार्य अंग। 

माथुरजी की रचनाओं में राजनीतिक क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के बीच जो द्वंद्वात्मक विचार दोलित होते हैं, उसे वे एक कवि के लिए अनिवार्य मानते हैं। 'नाश और निर्माण' से ही उनका राजनीतिक व्यक्तित्व रूपायित होने लगता है और 'साक्षी रहे वर्तमान तक' (1979) आते-आते वे प्रशासन-तंत्र और नौकरशाही से निरंतर टकराहट के चित्र काव्यांकित करने लगते हैं। 

उनके अनुसार, राजनीति की समझ के बिना यथार्थ की पहचान हो ही नहीं सकती। इसे पहचानने के लिए उन्हें स्पष्ट दृष्टि मिली–मार्क्सवाद से। मार्क्सवाद ने दमन और शोषण के विरुद्ध मानवीय समता और स्वाधीनता का नया रास्ता दिखाया। यह नया रास्ता 'मंजरी' से लेकर 'नाश और निर्माण', 'धूप के धान', 'शिलापंख चमकीले', 'साक्षी रहे वर्तमान', 'मैं वक़्त के हूँ सामने' तक दिखाई देता है। 

माथुरजी गाँवों की जनपदीय चेतना के साथ आधुनिकता, वैज्ञानिकता और सृष्टि-चेतना को जोड़ना चाहते हैं। वर्ष 1958 में अमरीका से लौटने के पश्चात यह समन्वयात्मक प्रवृत्ति और अधिक मुखर होने लगती है। उन्होंने वहाँ वैज्ञानिक सभ्यता में ज्वार-भाटा सरिस मानवीय संघर्ष में आदमी की डूबती-उतराती ज़िन्दगी का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया। तदनन्तर, उनके 'पृथ्वीकल्प' (1952) नामक नाट्यकाव्य से हिंदी कविता में वैज्ञानिक चेतना प्रथमतः पुष्पित होती है। इसमें वे यांत्रिक प्रगति को मानवीय राग-चेतना से संबद्ध करते हैं। इस प्रक्रिया में जहाँ उनमें दो विरोधी तत्वों के बीच टकराहट द्योतित होती है, वहीं वे सुलह की भी परिकल्पना करते हैं। आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, मिलन-विछोह और जीवन-मृत्यु के विरोधी समानान्तर विचारों से वे कल्पना एवं यथार्थ के बीच जो तादात्म्य स्थापित करते हैं, उससे आम आदमी स्वयं को कभी अलग नहीं कर पाता। वे जीवन के सकारात्मक स्वरूप को ही मुखर करते हैं और नकारात्मक पक्ष को आड़े हाथों लेते हैं। उनके हाथों बीमार मानसिकता कभी पली-पुसी नहीं। वे समाज में व्याप्त मीलों तक व्याप्त बेपनाह ख़ुश्की से हमेशा मर्माहत हुए। वे न तो अस्तित्ववाद के निषेधात्मक दृष्टिकोण को तरज़ीह देते हैं, न ही फ़्रायड की यौन कुंठाओं में कोई सकारात्मक मानसिकता ही पाते हैं। वे उच्छृंखल, अराजक और स्वेच्छाचारी मूल्यों के स्थान पर रचनात्मक एवं समन्वयात्मक तत्वों को समाज में जीवीभूत करना चाहते हैं। 'ज्वालामुखी के द्वीप' की तरह इस धरा पर जहाँ वे 'संस्कृति के भीषण उतार' और 'खूबसूरत संबंधों के कटाव' से ग्लानिग्रस्त हैं, वहीं प्राचीन संस्कृति की रचनात्मक प्रवृत्ति की अवतारणा की भी कामना करते हैं। 

वस्तुतः माथुरजी राष्ट्रीय चेतना के अग्रणी कवि हैं। युवावस्था में ही प्रस्फ़ुटित हुई यह चेतना 'हम होंगे कामयाब' जैसे लोकप्रिय राष्ट्रगान (1978) के रूप में परिपक्व होती है। जहाँ वे 15 अगस्त, 1947 की 'जीत की रात' पर पहरुओं को भविष्य में सावधान रहने का आह्वान करते हैं, भारत में 'लिबर्टी के ज़िबह' सरीखे लोकतांत्रिक तहज़ीब पर खींझ उठते हैं एवं शोषण मंत्रालय की 'लाभ-स्वार्थ की सभा' में हो रही 'षड्यंत्रों की बात' पर अथक व्यंग्य करते हैं। उन्हें 'तितलियों के पंखों' जैसे अपने गौरवशाली अतीत के खोने का बहुत क्षोभ है। समकालीन कुवृत्तियों से निज़ात पाने के लिए भारत के उसी अतीत में झाँकना होगा, जो वैश्विक सभ्यता का अक्षुण्ण स्रोत रहा है। 

उनके रचना-संसार में उनकी वैयक्तिकता भी सर्वत्र घुली-मिली है जो रोमानी भावना से ओतप्रोत होकर नाना रूपों में निःस्रावित है। आरंभ में युवावस्था की प्रेमपरक अनुभूति नितांत वैयक्तिक और अनुत्तरित थी। छुईमुई की तरह कोमल भावनाओं के स्पर्श से हर पाठक भावसिक्त हो जाता है। किन्तु, स्वयं के प्रति उनका दृष्टिकोण निराशावादी है। 'छबीली चाँदनी' के सम्मोहन को वे जीवनपर्यंत नहीं भुला पाए क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में चाँदनी कभी रच-बस नहीं पाई थी। वे मिटने की सीमा-रेखा पर अपनी शुरूआत को अपनी समाप्ति का पर्याय मानते हैं। 

अस्तु, उनकी यह वैयक्तिकता अंततोगत्वा आशावादी भारतीय दर्शन में परिणत होती है। इस दर्शन में निष्णात होकर वे कहते हैं:

“जीवन और मृत्यु के बीच
एक अदृश्य द्वार है अनन्त का
ज़िन्दगी वहाँ डबडबाती खड़ी रहती है
अँजलियाँ बाँधे हुए।”

तदनन्तर, वे मृत्यु को सहर्ष स्वीकार करते हुए नए जीवन अर्थात्‌ पुनर्जन्म के प्रति पूर्ण आश्वत हैं:

“मृत्यु नहीं है नींद आख़िरी
बूँद-भर धड़कता आलोकित अंतराल है।”

इस प्रकार कविता ही उनकी साधना है जिसके अनेकानेक सोपानों से वे एक साधक की तरह गुज़रते हैं। तथापि, उनकी साधना स्वांत  उद्धार के लक्ष्य से सीमाबद्ध न होकर आम आदमी की मुक्ति का एक साधन बन चुकी है। उनकी प्रेरणा से कविता में ऐसी संघनित ऊर्जा छिपी हुई है जो मानव-जीवन में सदैव रचनात्मक शक्ति का संचार करती रहेगी। 

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