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तेजेन्द्र शर्मा : अनुभूतियां और कथा में उनका विस्तार

समीक्षित पुस्तक: संदिग्ध (कहानी संग्रह)
लेखक: तेजेन्द्र शर्मा
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष: 2024
कुल पृष्ठ: 184+
मूल्य: ₹300
अमेज़न पर उपलब्ध 

 

तेजेन्द्र शर्मा की कहानियों में विश्वव्यापी स्पंदनशील समाज और ज़िंदग़ी की इतनी पर्तें होती हैं कि उन्हें खोलते हुए एक पूरा संसार चलचित्रित होने लगता है। कथा-साहित्य का रसिया पाठक उनके कथादेश में भ्रमण करते हुए किंचित भ्रमित-सा होने लगता है--यह आत्ममंथन करते हुए कि इस विविधधर्मी कथाकार के जिस कथा-संसार में वह डूब-उतरा रहा है, उसमें वह कहाँ तक विचरण कर सकेगा? अनजाने में किसी बहुमंजिली इमारत में घुस कर, वहाँ एक चौरस हवादार दालान की तलाश में इधर-उधर की सींढ़ियां चढ़ने-उतरने के जोश में दिलचस्प भटकाव जैसी उनकी कहानियां हमें बहला-फुसलाकर जहाँ ले जाती हैं, वहाँ हमें पहुंचकर बिल्कुल थकान नहीं आती। बल्कि, यही जी करता है कि हम उनके कथा-संसार में यूं ही, पूरे होशो-हवास में चलते रहें। 

 

नि:संदेह, यह दिलचस्प भटकना हमारे लिए आनंद का स्रोत बनता है। सच कहें तो इस भटकाव में हम पूरी तरह तनावमुक्त हो जाते हैं क्योंकि हमें जीवन के दांवपेंचों को समझने तथा जीवन की अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाने का मूल अमोघ मंत्र भी साथ-साथ मिल जाता है। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि कथाकार हमें जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से ले जाकर जीवन के व्यापक अनुभवों तथा विभिन्न प्रकार के इम्प्रेशनों से साक्षात्कार कराने के लिए जिन विथियों और राजमार्गों से लेकर गुजरता है, वे हमें जीवन की उन सच्चाइयों से रू-ब-रू कराती हैं जिनके लिए हम कथाकार को धन्यवाद ज्ञापित किए बग़ैर रह नहीं सकते। 

 

चुनांचे, उनकी कहानियों पर एक मोटी अभेद्य पर्त संवेदना की चढ़ी होती है जबकि दूसरी पर्त उनमें भारतीयता के प्रति अटूट आकर्षण का होता है। फिर, तीसरी पर्त होती है—पाश्चात्य जीवन-शैली की जो भारतीयता के साथ मिश्रित करने की कोशिश में दृष्टिगोचर होती है। चौथी पर्त तब खुलती है जबकि हमें कम-से-कम दो देशज-विदेशज संस्कृतियों और जीवन-शैलियों के बीच कर्ण-स्फोटक झन्नाटेदार शोर से दो-चार होना पड़ता है। इन चतुष्कोटीय पर्तों के अतिरिक्त कितनी ही परतें तेजेन्द्र के कथा-साहित्य में शनै:-शनै: खुलती हैं जिन्हें हम सूक्ष्म-भेदी दृष्टि से देखने की कोशिश तब तक करते रहेंगे जब तक कि उनकी लेखनी उर्वर बनी रहेगी। 

 

तेजेन्द्र के नव-प्रकाशित कथा-संग्रह “संदिग्ध” की पहली कहानी में संवेदना की पर्त आरंभ से ही खुलती है। कहानी ‘संदिग्ध’ एक मुस्लिम युगल शाहिद-शाहिदा के संबंधों को मर्मिकता से विश्लेषित करती है जिसमें कथाकार निरपेक्ष होकर दोनों के आपसी रुझानों के बारे में बतियाता है; किंतु, जब वह शाहिदा के उसके पति के प्रति निश्छल प्रेम को रूपायित करता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका झुकाव शाहिदा की ओर ही है। तब वह दांपत्य की भावना से विमुख शाहिद के साज़िश-तंत्र का भांडाफोड़ बड़ी तसल्ली से करता है। शाहिद की कामुकता, दाम्पत्य विश्वास को चूर-चूर कर शाहिदा को लंदन में दोबारा न घुस पाने के लिए रचे गए षड्यंत्र, सिमोना के साथ अपने अवैध संबंधों को स्थायित्व प्रदान करने की उसकी क्रूर मानसिकता, अपने बच्चों के प्रति उसका उचाटपन, पत्नी शाहिदा को आतंकवादी की सूची में डालने की उसकी तिकड़मी कुप्रवृत्ति जैसी बातों पर कथाकार बेबाकी से रोशनी डालता है। अंत में, शाहिद के द्वारा बुने गए षड्यंत्र-जाल में उसके ख़ुद के फंसने के ख़ौफ को कहानीकार बड़े ही स्वाभाविक ढंग से वर्णित करता है। शाहिद में अपने भारतीय उपमहाद्वीप की जीवन-शैली और इसकी संस्कृतियों के प्रति कोई रुझान दृष्टिगत नहीं होता है जैसाकि एक प्रवासी कथाकार द्वारा लिखी गई कहानियों में साधारणतया दिखाई देता है। अंधे स्वार्थ में शाहिद का इंसानियत से विमुख होना भीतर तक कचोट जाता है। 

 

‘वन्स ए सोल्ज़र’ कहानी संवेदनाओं के प्रस्फुटन में एक चमत्कृत करने वाली कहानी के रूप में रेखांकित की जाएगी। इस कहानी को पढ़ते हुए हमें विदित होता है कि तेजेन्द्र संवेदनाओं के व्यापार में बेहद विशिष्ट कथाकार हैं। उनके अनुसार, आत्मा की तरह संवेदनाएं भी कभी मरती नहीं। संवेदनाएं अभौतिक तो होती हैं; किंतु, क्षणभंगुर नहीं। क्या बात है! बिल्कुल, अज़ीबो-ग़रीब प्रयोग—इतना कि पाठक या तो उन संवेदनाओं से दो-चार होने के बाद ग़श खा जाए या यह सोच-सोच कर खुशफहमी पाल बैठे कि ‘अजी, मौत भी बेहद मामूली ख़्याल है! शरीर के बाद भी हमारी संवेदनाएं बरकरार रहेंगी और हमें भावनाओं के ज्वार-भाटे में बहाती रहेंगी।’ सो, बकौल तेजेन्द्र, मृत्योपरांत उन संवेदनाओं में जीवित मनुष्य का अहं (ईगो) भी बना रहता है। उसे अपने पद और हैसियत का पूरा ग़ुमान होता है। दिवंगत दीपक की आत्मा का सोचना हैरतअंगेज़ है—‘…कैप्टन बिली मेरे सीनियर थे तो मरने के मामले में मैं उनसे एक दिन वरिष्ठ था... जबकि मैं पिछले एक दशक से हमेशा कैप्टन बिली मेहता की बातों को अपने लिए निर्देश समझता था...’ 

 

बहरहाल, इन आत्माओं को अपनी-अपनी भौतिक नश्वरता का भी भान होता है; लेकिन, मृत्योपरांत की संवेदनाएं उस पर भारी पड़ती हैं। दीपक, बिली मेहता और प्रभजोत की आत्माएं मौत के बाद के यथार्थ तथा इसके पहले की प्रवंचनाओं को अपनी-अपनी लफ्फेबाज़ी में खूब लपेटती हैं। अतिशय आश्चर्य की पराकाष्ठा है-–उनकी संवेदनाओं में पांचों इंद्रियां शामिल हैं। उनकी अनुभूतियां जीवित संसार से कमतर नहीं हैं। स्मृतियों का भी क्या कहना! तीनों त्रिकालदर्शी हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान उनकी गतिविधियों और भावनाओं को पूरी सजीवता से हमारे सामने चकरघिन्नी की तरह आवर्तित करते हैं। मज़े की बात है कि तीनों काल उनके एकदम पास हैं। पहले दीपक की मौत फिर बिली और प्रभुजोत की दुर्घटना में काल-कवलित होने के बाद उन्हें अपने-अपने शवों की अंत्येष्टि देखने की इच्छा जुगुप्सा से कम, आश्चर्य से ज़्यादा सराबोर करती है—‘...एक बार वापिस लंदन जाकर देख आएं कि हमारे शरीर के साथ कोरोनर क्या कर रहे हैं? अब तक तो हमारे अंतिम संस्कार की तारीख़ भी तय हो गई होगी। कम से कम अपने-अपने फ्यूनरल पर तो हमें हाज़री लगानी ही चाहिए।’  

 

तेजेन्द्र अपनी कहानियों में मानव स्वभाव की नंगाझोरी बड़ी तसल्ली से करते हैं। पात्र के मन में क्या चल रहा है और उसके परिवेश में क्या घटित हो रहा है—इस पर उनका पूरा ध्यान केंद्रित रहता है। ह्यूमन नेचर को ट्विस्ट देने में भी वे थॉमस हार्डी, गी द मोपासां, हेनरी फिल्डिंग, चार्ल्स डिकेंस आदि जैसे हिंदीतर कथाकारों की भांति क़वायद करते नज़र आते हैं। वे अपने पात्रों के मनोविज्ञान में घुसकर, उनके दोनों पक्षों के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर पैनी दृष्टि रखते हैं। बदले हुए आधुनिक परिवेश में अथवा प्रवासी दुनिया में उनके परिवर्तित व्यवहार पर भी खूब टिप्पणियां करते हैं। 

 

एक सही व्यक्ति परिस्थितिवश कैसे ग़ुमराह होकर आपत्तिजनक आदतें और गतिविधियां अपना लेता है-जबकि ऐसा वर्णित करना एक कथाकार के लिए सहज नहीं होता है; तेजेन्द्र ऐसा करने की कुव्वत रखते हैं। इस दृष्टि से उनकी एक कहानी ‘अंतिम संस्कार का खेल’ को चर्चा के केंद्र में रखना समीचीन प्रतीत होता है। इस चरित्र-प्रधान कहानी में नरेन का चरित्र और स्वभाव ऐसा ही है। यद्यपि कथाकार उसके प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया रखता है तथापि उसके मित्र और सहकर्मी रॉज़र के साथ उसके संबंधों को वह बड़े चुटीले ढंग से उकेरता है। नरेन में रॉज़र के प्रति दोस्त के रूप में जो बनावटी रुझान देखने में आता है, वह विस्मयकारी है। बहरहाल, रॉज़र की वाइफ कार्ला तथा डॉटर लिली का उसकी मौत पर शोक का प्रदर्शन करना—पाश्चात्य कृत्रिम जीवन-शैली के नाटकीय रूप को रेखांकित करता है। मृत रॉज़र भले ही नरेन का बहुत घनिष्ठ मित्र न रहा हो; लेकिन, वह उसके प्रति आत्मीयता का जो स्वांग रचता है, वह भारतीय संस्कृति में पले-बढ़े किसी व्यक्ति के लिए स्वाभाविक नहीं है। लेकिन, वह ऐसा करता है ताकि वह ब्रिटेन के अंग्रेज़ी समाज को हीन साबित कर सके। ‘(नरेन) अपनी भावनाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से बचता है। मगर भीतर से भारतीय है। भावनाओं का पूरी तरह से दमन नहीं कर पाता। भीतर ही भीतर उसे कुछ न कुछ कचोटता रहता है।’  (पृ. 45)

 

यह बात उल्लेखनीय है कि अन्य प्रवासी साहित्यकारों की भांति तेजेन्द्र भी अपनी मातृभूमि की परिवेशी आबोहवा के प्रभावों से विलग नहीं हो पाए हैं। पाश्चात्य जीवन-शैली का आकर्षण उन्हें उन प्रभावों से टस से मस नहीं कर पाया है। उल्लेखनीय है कि भारतीयता के जो बिंब-प्रतिबिंब यहाँ की विविधताओं, परंपराओं, रीतियों, रूढ़िगत सोचों, अंधविश्वासों, दुराचरणों, तथा संस्कारों-कुसंस्कारों के तौर पर उनकी कहानियों में झांकते हैं, उन्हें हम नज़रअंदाज़ करने की गुस्ताख़ी कदापि नहीं कर सकते हैं। बहरहाल, उनका प्रयास इन्हें ही पाठक के मानस-पटल पर उभारना होता है। उसे आग़ाह करना होता है कि वह इनसे बचे ताकि विदेशों में भारतीयता मलिन न होने पाए। विदेशी जमीन पर रहते हुए भी, वे अपने भारत में जो अनिष्टकारी बातें घटित होती हैं, उनके लिए उनकी चिंता का कोई पारावार नहीं होता है। ऐसा तो हम उनकी अधिकांश कहानियों में देखते हैं। मानवीय कुवृत्तियों के परिप्रेक्ष्य में तेजेन्द्र भारत में जिन अनेकानेक दुराचरणों-भ्रष्टाचरणों पर आंसू बहाते हैं, उनमें से एक है यहाँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती बलात्कार की घटनाएं जो हमारे सांस्कृतिक गौरव का गुड़-गोबर करती जा रही हैं। ऐसी जघन्य घटनाओं पर खून के आंसू तब बहाना पड़ता है जबकि एक क्रूर वर्ग स्त्रियों की शुचिता को ढोंग करार देते हुए उन पर परदा डालने की कोशिश करता है। “सिलवटें” एक छात्रा की ऐसी ही कहानी है जिसका उसके हॉस्टल में बलात्कार होता है जबकि प्रधानाचार्य द्वारा मुज़रिम को सज़ा देने के लिए उस स्त्री की मदद करने के बजाय इस घटना को भरसक दबाने की कोशिश की जाती है ताकि वह अपनी शिक्षण संस्था को नामूसी से बचा सके। कुछ सदियों से ही बलात्कार की अपसंस्कृति इस देश में फल-फूल रही जबकि प्राचीन भारत में बलात्कार के दृष्टांत विरले ही मिलते हैं। 

 

तेजेन्द्र को कभी-कभार ही पाश्चात्य जीवन-शैली का प्रशस्तिगान करते हुए सुना गया होगा। किंतु, वे अपने देश (जिसमें वर्तमान भारत के बजाए पूरा भारतीय उपमहाद्वीप शामिल है) में व्याप्त बुराइयों की जब गलाफोड़ विवेचना करते हैं तो इसे उनकी अपनी जन्मभूमि के प्रति जुगुप्सा-भाव या आलोचनात्मक प्रवृत्ति के रूप में नहीं, अपितु इसके प्रति अटूट लगाव के रूप में देखा जाना चाहिए। वे अपनी मातृभूमि की नकारात्मकताओं के प्रति ध्यान आकर्षित करके जन-जन को जीवन की सकारात्मकताओं की तरफ ले जाना चाहते हैं। यह एक कैथारसिस प्रक्रिया जैसी है जिसे आयुर्विज्ञान में रोगी के उपचार के लिए प्रयुक्त किया जाता है; अर्थात विषाणुओं को विष देकर रोग का इलाज करने की पद्धति। अस्तु, जब वे कहानी “अभिशप्त” में एक मध्यमवर्गीय परिवार की अनेकानेक विवशताओं को आरेखित करते हैं तो यह सहज समझ लिया जाना चाहिए कि व्यक्ति किन सीमाओं तक अपनी परिस्थितियों का ग़ुलाम हो सकता है। इस चरित्र-प्रधान कहानी में एक तुच्छ बीए-पास पात्र, रजनीकांत ग़रीबी के दंश से बचने के लिए अपने देश, अपनी प्रेयसी और यहाँ तक कि अपनी जन्मभूमि का परित्याग करके लंदन की गलियों में रोज़ी-रोटी की तलाश में निकल पड़ता है, इसका संपूर्ण विवरण भारतीयता में रचा-बसा कोई प्रवासी साहित्यकार ही बेहतर ढंग से दे सकता है, जिसने जीवन के ऐसे विरोधाभासों को झेला हो। बेशक, तेजेन्द्र की सिद्धहस्त लेखनी ही ऐसा कर सकती है। इस कहानी में रजनीकांत के अपने देश के प्रति भावनात्मक रुझान को लंदन की चकाचौंध करने वाली भौतिकवादी दुनिया के बीच द्वंद्वात्मक आकर्षण-विकर्षण के रूप में पेश किया गया है।

 

तेजेन्द्र की कोई भी कहानी उठा लें, आपको उनमें राष्ट्र-प्रेम, सांस्कृतिक बोध की अपारदर्शी पर्त के तौर पर साफ नज़र आ जाएगा। ऐसा लगता है कि उनका केवल शरीर ब्रिटेन में रहता है जबकि उनका मन भारतीय प्रायद्वीप में ही कहीं अंगद की भांति पालथी मारकर जमा होता है। इस दृष्टि से एक कहानी ‘पासपोर्ट के रंग’ विशेष उल्लेखनीय है। कहानी का मुख्य पात्र पंडित गोपालदास भले ही ब्रिटिश पासपोर्ट हासिल करने के लिए ब्रिटिश क्वीन के प्रति वफादारी की शपथ खाई है; किंतु, वे आधे मन से ही ब्रिटिश नागरिकता लेने को तैयार होते हैं। नि:संदेह, यह कुछ-कुछ कथाकार की आपबीती जैसी लगती है। दोहरी नागरिकता रखने की प्रधान मंत्री की अनुमति मिलने पर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है और वह सरोज से बरबस बोल पड़ते हैं, “अब मैं वापस इंडियन बन सकता हूँ।” 

 

यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि तेजेन्द्र का भारत आज के भारत की तरह सिमटा हुआ नहीं है। उनके भारत की संकल्पना में पाकिस्तान समेत एशिया का विशाल भू-भाग शामिल है और जब वे अपनी कहानियों में अपनी मातृभूमि से संबद्धता की बात करते हैं तो उनका आशय उन सभी एशियाई भू-खंडों से है जहाँ-जहाँ भारतीय संस्कृति पौराणिक काल से विस्तीर्ण रही है। यह विचार तो तेजेन्द्र की कहानियों में एक आंदोलन की तरह मुखर होता है। उनकी कहानियों में भारतवर्ष का दायरा इस सिमटे हुए भारत से सुदूर चदुर्दिक विस्तारित है-कम से कम ईरान, सोमालिया, अफग़ानिस्तान, रोमानिया, पोलैंड, कोसोवा, लीबिया, अरब देश, पाकिस्तान, बांग्ला देश, तिब्बत, भूटान के क्षेत्र तो सम्मिलित हैं ही। लिहाज़ा, क्या मज़ाल कि जब वे भारत का ज़िक्र कर रहे हों तो साथ में पाकिस्तान की चर्चा न आए! 

 

तेजेन्द्र के लिए भारत से पाकिस्तान को अलग करके देखने की गुस्ताख़ी उनका पाठक कदापि न करे तो ही उसके और कथाकार के लिए बेहतर होगा, क्योंकि इससे मूल भारतीयता के पोषक तेजेन्द्र को ठेंस पहुंचेगी। ‘बेपरदा खिड़की’ कहानी में वे पाकिस्तान को भारत की गलबहियां में रखते हैं। कोरोना काल में हीथ्रो एयरपोर्ट पर पहुंचकर अजय और शकील क्वारन्टीन में रखे जाने वाली सूची में अपने नामों की शिनाख़्त करते हैं तो उनकी प्रतिक्रियाएं देखने लायक होती हैं। ‘अजय ने जल्दी से पूरी लिस्ट छान मारी। उसका मुंह लटक गया... उसमें भारत का नाम मौज़ूद था। उसके हेयर-ड्रेसर शकील का भी दिल बैठ गया था क्योंकि वहाँ पाकिस्तान का नाम नहीं था। क्या कमाल की ख़बर है... जिसे पढ़कर हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी दोनों ही के मुंह लटक गए!’ (पृ. 59) अस्तु, यह कहानी भारतीयता और पाकिस्तानीयत के संबंधों को कुरेदती है। 

 

यूं तो भारत के अजय को पाकिस्तान के शकील से किसी भी बाबत कोई गुरेज़ नहीं है। शकील पर क्या फर्क पड़ता है कि अजय उसे हेयर-ड्रेसर के बजाए नाई कहे? लेकिन, शकील के किसी अन्य फेसबुकिया व्यक्ति द्वारा नाई कहे जाने पर कोई ग़ैर-भारतीय (पाकिस्तानी मुसलमान) अभिप्रेत होता है जिसमें सेक्युलरिज़्म की दख़लंदाज़ी नाजायज़-सी लगती है। चुनांचे। तेजेन्द्र को लगता है कि भारत-पाक रिश्ते सियासत की तिगड़मबाज़ी के कारण बिगड़ते हैं। दोनों देशों के लोगों के संबंध में तल्ख़ी इसी वज़ह से आती है। ‘…कुछ लोग इतने सेक्युलर हो जाते हैं कि वो रिश्तों को भी राजनीति के तराज़ू पर तौलने बैठ जाते हैं।’ (पृ.60) इस कहानी में कथाकार लंदन की गतिविधियों का जीवंत ब्योरा देता है। प्रवासियों की जीवन-शैली पर अपना ध्यान टिकाते हुए लंदन की जीवन-शैली पर फब्तियां कसता है। उसी शैली में ढल चुके प्रवासियों की असहानुभूतिपूर्ण और असंवेदनशील प्रवृत्तियों को भी निशाना बनाता है। अजय वर्मा, कुणाल, पटेल साहब, मिसेज़ पटेल, ललिता बहन और गोपी सहेली जैसे पात्रों के व्यावसायिक क्रिया-व्यापार को वर्णित करते हुए कथाकार लंदन में प्रवासी जीवन का तसल्ली से जायज़ा लेता है।

 

कहानी गंभीर मनोविनोद से सराबोर है। कहानी के केंद्र में ‘पर्दे’ की भूमिका को रेखांकित करके कथानक को बेहद दिलचस्प बनाया गया है। लंदन के परिवेश में पर्दे की आवश्यकता, पर्दे के स्वरूप, पर्दे की सामाजिक सार्थकता, पर्दे की उपलब्धता और पर्दे के विकल्प के संबंध में कथाकार चुटकियां ले-ले कर तसल्ली से बतियाता है। पर्दे के संबंध में इतनी विशद चर्चाओं को सुनकर हमें भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘परदा’ का ध्यान आ जाता है जिसमें परदा सामाजिक विपन्नता को ढंकने के एक साधन के रूप में वर्णित किया जाता है। दोनों कहानियों में परदे की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है।  

 

हास्य, मनोविनोद और कटाक्ष—ये तीनों तेजेन्द्र की कहानियों में आवेष्टित हैं। ‘मैं भी तो वैसा ही हूँ’ कहानी में प्रवासी और ग़ैर-प्रवासी परिवेशों की पड़ताल करते हुए वह लंदन में एक ऐसे प्रवासी (भारतीय) पात्र की कहानी कहता है जिसकी हालत कमोवेश पढ़े-लिखे बेरोज़ग़ार भारतीय जैसी है जिसके व्यक्तित्त्व में एक ख़ास किस्म का ग़ुरूर है। 

 

बीबीसी में पत्रकार और न्यूज़ रीडर रह चुके उस व्यक्ति का मनोविज्ञान अज़ीबोग़रीब है। बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकॉस्टिंग कॉर्पोरेशन) को बिहार ब्रॉडकॉस्टिंग कॉर्पोरेशन बताकर उसे जो सुकून मिलता है, वह तब उड़न-छूं हो जाता है जबकि बीबीसी जैसी वैश्विक संस्था की सेवा से वह विरत हो जाता है और  सड़क पर आ जाता है। पर, उसे सभी प्रवासियों से घोर ईर्ष्या है जिन्हें वह लंदन की आबोहवा को खराब करने का दोषी मानता है - उसे लगता है कि सोमालिया, अफग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, रोमानिया, पोलैंड, कोसोवा, लीबिया आदि जैसे देशों से आकर बस गए लोगों को ‘सिविक सेंस के लिए किसी स्कूल या कॉलेज़’ (पृ.70) भेजे जाने की घोर आवश्यकता है। वह लंदन को मूल लंदनवासी की नज़रों से ही देखता है। बीबीसी में पत्रकार के रूप में पत्रकारिता करते हुए, जो अदने से ट्रांसलेटर की नौकरी जैसा है, जब वह पेंशनर हो जाता है तो उसे लगता है कि यह पेंशन तो बस बुढ़ापे (जिसे वह स्वीकार करना नहीं चाहता) में ‘किसी तरह ज़िंदग़ी को खींचती रहती है।’ (पृ. 70) उल्लेखनीय है कि उसकी मन:स्थिति जीवन से ऊबते हुए फिर भी तसल्ली से ज़िंदग़ी गुज़ारते हुए किसी भारतीय या किसी पाकिस्तानी जैसी ही है। 

 

पूरी कहानी में तेजेन्द्र इंग्लैंड और भारत के बीच अंतर को स्पष्ट करने के लिए कई दृष्टांत देते हैं, जैसे कि भारतीयों जैसे किफायत में ज़िंदग़ी गुज़र-बसर करने की प्रवृत्ति। घर की सफाई करने वाली, बेटी जैसी नवागंतुक, भारतीय लड़की माया को कहानी में प्रस्तुत करके लेखक ने पाश्चात्य जीवन में भारतीय जीवन-शैली को प्रक्षेपित करने की कोशिश की है। एक तबाहकुन वाकया में, माया द्वारा सस्ते में ‘रग’ (कार्पेट) को साफ कराने के चक्कर में पूरी कॉर्पेट ही बदरंग हो गई। हर्षद  की सलाह पर ‘रग’ से मुक्ति पाने के लिए उसे उसको किसी खाली स्थान पर लुक-छिपकर निपटाने की प्रवृत्ति कतई रास आने वाली नहीं है क्योंकि वह लंदन की साफ-सुथरी जीवन-शैली का अभ्यस्त हो चुका है। तो भी, वह इस काम को अंज़ाम देने के लिए कम-से-कम तीन पैग चढ़ाकर नशे में टुन्न होता है और रात का इंतज़ार करने लगता है। आख़िर, वह भी तो मूल रूप से भारतीय है। 

 

तेजेन्द्र की कहानियों में ज़िंदग़ी की कितनी परतों को तहा-तहा कर करीने से सजाया गया है, इसका अंदाज़ा तो उनकी हर कहानी को पढ़कर ही लगाया जा सकता है। लंदन की पृष्ठभूमि में जीवन कौन से रंग लेकर उभरेगा, उसे रूपायित करने का बीड़ा तेजेन्द्र ने शिद्दत से उठाया है। वहाँ काफ़ी-कुछ अच्छी बातों के अतिरिक्त, चंद बेहद बुरी बातें भी हैं—मसलन चोरी की आदत। ‘रेफ़्रीजिरेटरों में डाका’ कहानी में लंदन के लोकल स्टेशनों के किचन में रखे फ़्रिजों से कर्मचारियों की कर्मचारियों द्वारा टिफिन से खाना चुराने की वाहियात आदत को लेखक आड़े हाथों लेता है। इसे पढ़ते हुए हमें तो ए।जी। गार्डिनर की कतिपय कहानियां और संस्मरण याद आ जाते हैं जिनमें गार्डिनर साहब किसी अदने से विषय पर भारी-भरकम बवाल खड़ा करते हुए तिल को पहाड़ बनाने का माद्दा रखते हैं। 

 

तेजेन्द्र तंज़ कसते हुए कहते हैं कि ‘लंदन के लोकल स्टेशनों के किचन में तो लगता है कि भारतीय उप-महाद्वीप के गांवों की तरह भुखमरी का आलम है।’ किसी भारतीय पाठक को कहानीकार का यह कटाक्ष भले ही भला न लगे लेकिन सच को उद्घाटित करने में तेजेन्द्र कोई रियायत नहीं बरतते हैं। पर, ऐसा कटाक्ष करना उन्हें ख़ुद रास नहीं आता है। तब, वह चोरों के कटघरे में केवल भारतीयों को ही नहीं खड़ा करते हैं - ‘चाहे कोई अंग्रेज़ है, अफ़्रीकी है या फिर पूर्वी यूरोपीय या फिर भारतीय उप-महाद्वीप का, सबकी नज़रें रेफ़्रीजिरेटर के भीतर पड़े खाने पर लगी रहती हैं कि कब किसी की नज़र हटे और वे लपक कर हाथ साफ़ कर जाए।’ 

 

इस तरह, कहानीकार टिप्पणियां करते हुए या संवाद प्रस्तुत करते हुए कथ्य की तारतम्यता का बखूबी ध्यान रखता है। बहरहाल, डीसी लाइन पर तैनात नरेन फ्रिज़ में खाना की चोरी से बेहद ख़फा है। तदनंतर, कहानीकार ज़ेफ ट्रम्प द्वारा नॉर्मल खाना न खाने की बीमारी का ब्योरा देता है। ज़ेफ को दिक्कत इस बात से है कि खाना-चोर लोग उसकी दवाइयां तक चट्ट कर जाते हैं। इस तरह की चोरियों पर कटाक्ष मनोविनोदपूर्ण है-‘…किसी का दिल काम में नहीं लगता। सब की धुकधुकी मैस रूम के फ़्रिज में लगी रहती है। सावधानी हटी और दुर्घटना घटी।’ (पृ. 74)। 

 

फीला नामक एक महिला इस चोरी से बेहद ख़फा है-‘कल फ़्रिज में से कोई मेरा सैंडविच खा गया और कोक पी गया। यह सरासर चोरी है और मैं इस बारे में मेट्रोपॉलिटन पुलिस में शिकायत दर्ज़ करवाने वाली हूँ।’ मैस रूम में चोरियों का आलम चिंताजनक है जिसे तेजेन्द्र बेहतरीन अंदाज़ में वर्णित करते हैं। आख़िर में, लोगबाग़ फ़्रिज में खाद्य सामग्रियां रखने से तौबा कर लेते हैं। तब, अकालग्रस्त/खाली फ़्रिज की आपबीती का जायज़ा तेजेन्द्र बड़ी संज़ीदग़ी और कटाक्ष से लेते हैं - ‘लगता है कि मेरे भीतर एक किस्म का बर्फीला युग पैदा हो गया है। देखो, अगर ऐसा चलता रहा तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।’ (पृ. 82)

 

कहानी ‘सहयात्री’ में पृष्ठभूमि बदल जाती है। यह लंदन नहीं, दिल्ली है जहाँ अमर सिंह भल्ला सेवा-निवृत्त होकर द्वारका के एक अपार्टमेंट में अपनी पत्नी नीलम के साथ अपने उस नए घर में आकर रहने लगते हैं, जिसे दोनों कुछ ऐसे सजाते-संवारते हैं जैसे कि वे एक नया उत्फुल्ल जीवन जीना चाहते हों। यह कहानी एक ऐसे पिता की भी है जो गाढ़े पसीने की अपनी सारी कमाई अपने बच्चों की परवरिश में लगा देता है। कथाकार, वृद्ध दंपती के अति सामंजस्यपूर्ण गृहस्थ जीवन का सूक्ष्म विवरण बड़ी तसल्ली से देता है। ‘पूरा घर उजले रंगों में सजाया ताकि बुढापे की महक से जीवन बदरंग न होने पाए।’ (पृ. 83) वे रोमांटिक बाते करते हैं, ‘एक्सिस’ के जूते पहन सुबह की सैर-सपाटा करते हैं, मज़े से सुबह की चाय की चुस्कियां लेते हैं, हास्य-व्यंग्य से माहौल को जीवंत बनाए रखते हैं, दोपहर का भोजन हरेकृष्ण मन्दिर में करते हैं तथा स्वयं को राष्ट्रवाद के जज़्बे से स्नात रखते हैं। 

 

तेजेन्द्र कहानी में कहानीपन लाने के लिए ज़िंदग़ी के मसलों, लफड़ों-झटकों, दैनंदिन घटनाओं के कुछ इतने दिलचस्प विवरण प्रस्तुत करते हैं कि पाठक उनसे स्वयं को जोड़े बग़ैर नहीं रह पाता। कहानी में ट्विस्ट लाने की कथाकार की स्वाभाविक कला भी इसमें जिज्ञासा और रोचकता का निवेश करती है। इस सुखद दांपत्य जीवन का हतभाग्य उन पर कुछ इस तरह टूट पड़ता है जैसे कि जीवन के सामान्य दर्शन के अनुसार कहा जाता है कि सुख-दु:ख चक्रीय रूप में आवर्तित होते रहते हैं; किंतु, इंसान निस्सहाय-निरुपाय हो जाता है। 

 

यानी, सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है कि भल्ला साहब की पत्नी को अचानक लकवा मार जाता है एवं उनका दायां शरीर निर्जीव-निस्तेज हो जाता है। इस दुर्भाग्य में विदेश में रह रहे उनके बच्चे व्याकुल हो जाते हैं। तभी कोविड के प्रकोप से हालात और भी नाज़ुक हो जाते हैं जिनका ब्योरा कथाकार बड़ी सूक्ष्मता से देता है। पत्नी की तीमारदारी करते-करते पता नहीं कैसे पति ख़ुद घातक कोरोना की चपेट में आकर एक सुबह दम तोड़ देता है। कहानी का त्रासद अंत पाठक को भीतर तक द्रवित कर जाता है। अलसुबह लकवाग्रस्त नीलम घिसटते हुए भल्ला साहब के पास पहुंचती है और उनके मृत शरीर पर अपना सिर रख देती हैं, कुछ इस तरह अंत:आलाप करते हुए-‘तुसी कल्ले कित्थे टुर पये? मैनूं वी ते नाल लै चल्लो।’ रोज़ सुबह की सैर पर निकलने वाले भल्ला साहब आज अपनी पत्नी के साथ परलोक की सैर पर निकल जाते हैं। वैसे तो, इस कहानी के आरंभ से ऐसा लगता है कि कथाकार जीवन के कुछ सुखद पलों को बुनते हुए पाठक के मन में सुखानुभूति का भाव पैदा करेगा। पर, कालचक्र के सनकी कदम, सुख के पलों को बुरी तरह रौंद जाते हैं।

 

कथाकार कहानी को सुख की सबल संभावनाओं के दरम्यान, सुखनुमा अहसास को यक-ब-यक त्रासदीपूर्ण परिणति देने में तनिक नाटकीयता का सहारा लेता है। देशकाल के संबंध में वह एक जागरुक प्रहरी की भांति हर गतिविधि के प्रति चौकन्ना है। उसकी समकालीन कहानियों में कोरोना और कोविड का खतरनाक़ दस्तक लॉक-डाउन के रूप में हमें भयार्द्र करता रहता है। अपनी जन्मभूमि से विछोहजन्य खिन्नता अर्थात नोस्टाल्जिया तेजेन्द्र की कहानियों में भी बुरी तरह टींसती है। ‘दिल बहलता क्यों नहीं।।।’ ऐसी कहानी है जिसमें इस महामारी से पैदा हुई विभीषिका को चित्रित किया गया है। कहानी में कटाक्ष और व्यंग्य भी आवेष्टित है जो तेजेन्द्र के लेखन के ज़रूरी औज़ार हैं। मुम्बई में फेस-मास्क को ‘स्टेटस सिम्बल’ और सरकार को ‘वसूली गैंग’ बताकर वह कटाक्ष का बेहतर इस्तेमाल करता है। मुम्बई के हर तरह से ख़स्ताहाल माहौल के बीच विषम स्थितियों से उबरने के लिए महामृत्युंजय मंत्र की सारता-निस्सारता पर लेखक का दर्शन भी उम्दा है। 

 

फिर, नरेन और शिवानी का सोनू सूद द्वारा दिखाए गए रास्ते का अनुगमन करते हुए कोरोना-पीड़ितों को बहुविध सहायता पहुंचाने का संकल्प, एकाध ही सही, किंतु कथ्य को रोचक बनाता है। मध्यमवर्गीय जीवन में सनातनी मानदंडों पर चलने की नरेन की कोई धर्मिक बाध्यता नहीं है; अपितु ऐसा वह अपनी मां के हुक्म पर करता है। पात्रों की बहसा-बहसी में लेखक द्वारा जीवन के ज़रूरी-नाज़रूरी फ़लसफ़ा को वर्णित किया गया है। एथीज़्म, एग्नॉस्टीसीज़्म, कॉनसेप्ट ऑफ़ ग़ॉड, शाकाहार-मांसाहार, पूजा-अर्चना जैसी लोकधारणाओं के संबंध में पात्रों के संवाद सतही हैं-क्योंकि आम आदमी इन विषयों पर गम्भीर बातें नहीं कर सकता। लेकिन, नरेन की गुरुदेव के साथ बातचीत तनिक दार्शनिक भी हो जाती है। फिर, कोरोना-पीड़ितों को दी जाने वाली मदद में शिवानी द्वारा सोसाइटी के वाचमैन को भी सम्मिलित करने का प्रस्ताव लोकप्रेरक हो सकता है। इस कहानी में लेखक कही न कहीं आदर्शवाद के चक्कर में पड़ जाता है। तब, उसका माउथपीस पात्र नरेन नि:स्वार्थ भाव से मानवता के सेवक के रूप में मुखर होता है। 

 

कहानी ‘टूट गया नाता...’ में कथाकार जनसामान्य के स्तर पर बौद्धिक होने का प्रयास करता है। इस कहानी की पृष्ठभूमि लंदन में अवस्थित है जहाँ सलमान नाई की दुकान खोलता है और जहाँ भाषा को लेकर विवाद को सामने रखा जाता है। भाषा संबंधी संवाद-विवाद में कहानी पाठकीय स्तर पर मनोरंजक और कुछ-कुछ बौद्धिक भी हो जाती है। कहानी कहने वाला पात्र और सलमान दोनों भारत-पाकिस्तान के बीच भाषाई और राष्ट्रीय सौहार्द की सेतु के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। हिंदी और उर्दू भाषाओं के बीच जो तालमेल है, वही इस सामंजस्य का आधार है। हाँ, अंग्रेज़ी तो लंदन में बस विचार-विनिमय का माध्यम-भर है। दोनों के बीच धर्म और मज़हब कोई बाधा नहीं हैं। भाव-संप्रेषण के लिए कोई लिपि नामत: शाहमुखी और देवनागरी भी अवरोध पैदा नहीं करती। सलमान की दुकान के नाम का ‘नूर’ होना भी किसी ख़ास मज़हब से प्रेरित नहीं है। कहानी में पात्र आद्योपांत पंजाबियत के प्रभाव वाली हिंदी बोलते हैं, संभवत: ऐसा कर पाने में तेजेन्द्र सहज भी अनुभव करते हैं क्योंकि उनकी भी मूल भाषा पंजाबी ही है। चुनांचे, इस चरित्र-प्रधान कहानी में कथाकार ने सलमान के चरित्र को बड़ी शिद्दत से निखारा है। एक लंबी अनुपस्थिति के बाद, मुफ्त में बाल काटने के पश्चात उसकी प्रतिक्रिया किसी को भी भावुक बना देती है: “आपसे दिल का रिश्ता है। आप समझिए कि मैं आज अपने बड़े भाई के काम आया हूँ... आज पैसे नहीं लूंगा।” (पृ।112)

 

कहानी-संग्रह ‘संदिग्ध’ में प्राय: सभी कहानियां मानवीय स्थितियों-परिस्थितियों को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। कहानी ‘सवालों के जवाब’ में कोरोना से होने वाली सामूहिक मौतों और इनसे उत्पन्न भयावह स्थितियों का बयान लेखक ने सक्षम रूप से वर्ण्य भाषा में किया है। संग्रह की अधिकतर कहानियों की भांति इस कहानी का मुख्य पात्र भी ‘नरेन’ ही है जिसके संबंधों को एक अंधी लड़की मोनिका के साथ रूपायित किया गया है। इसके अतिरिक्त, कोविड महामारी से निपटने के लिए सुविधाओं और साधनों की अत्यधिक न्यूनता पर लेखक के साथ-साथ हम भी आंसू बहाने को विवश हो जाते हैं। यह अमानवीय स्थिति विश्वव्यापी है। जिस कंपनी में नरेन, मोनिका, मार्क आदि कार्य करते हैं, वहाँ की कोरोना से लड़ने की शून्य सुविधाओं के बारे में नरेन का सोचना हृदय-द्रावक है: ‘साला, कंपनी को क्या फ़र्क पड़ता है अगर कल को हम भी केवल आंकड़ा बन कर रह जाएं?’ (पृ। 119) इस कहानी में कंपनियों और अन्य कार्य-स्थलों पर कोरोना-पीड़ितों के लिए उनकी संवेदनाशून्य मानसिकता को जोर-शोर से रेखांकित किया गया है। प्रवासियों के लिए तो कोरोना-काल के दौरान, क्वारेंटाइन में रहने और अपने देश न जा पाने की विवशता सार्वत्रिक है जिससे सारी दुनिया हिली हुई थी।

 

कहानी ‘रिश्तों की गरमाहट’ रिटायर्मेंट की स्थिति पर लिखी हुई ‘सहयात्री’ के अलावा इस संग्रह की दूसरी कहानी है। व्यक्ति की सेवानिवृत्ति के बाद उत्पन्न एकाकीपन को उकेरती यह कहानी वरिष्ठ नागरिकों के उचाटपन पर लिखी एक ख़ास रिपोर्ट जैसी है। रिटायर्मेंट की यह स्थिति और भी चिंताजनक हो जाती है जबकि कोविद-19 जैसी संदिग्ध महामारी दुनियाभर के निर्दोषों को काल का ग्रास बना रही हो। अस्तु, सेवानिवृत्त राजीव कपूर साहब, जिनके पुत्र-पुत्री अमरीका-कनाडा में ऊंचे पदों पर कार्यरत हैं, अकेले ही रहना चाहते हैं। उनका मानना है कि वह ‘अकेलेपन का शिकार नहीं हैं। 

 

वह अपने एकांत के साथ बातें करते हैं’ और उन्हें ‘अपने साथ जीने में आनंद की अनुभूति होती है।’ कई वर्षों पहले, ‘ल्यूपस’ बीमारी से मौत का ग्रास बन चुकी अपनी मराठा पत्नी के बिना ही वह मज़े से अपनी ज़िंदग़ी गुज़ार लेते हैं—अंग्रेज़ी उपन्यास लिखते हुए, लैपटॉप पर आभासी दुनिया बसाते हुए और साहिर लुधियानवी का प्रशस्तिगान करते हुए। 

इस कहानी में एक घायल लोमड़ी और उसके लिए खाना देने वाले शेर की भी एक दिलचस्प चर्चा है। फिर, ढीठ माली

रज के साथ उनके असहज रिश्ते पर कथाकार द्वारा दिया गया विवरण है जिसमें माली बेहद लापरवाह किस्म का व्यक्ति है। पर, कपूर साहब बिंदास होकर अपना वक़्त गुज़ार लेते हैं—वोदका और डाइट कोक पीते हुए, बाहर बग़ीचे में लोमड़ी और उसके बच्चों को देखते हुए और यह मन बनाते हुए कि उस शाम वह लोमड़ी परिवार की सेवा में अपना समय गुज़ारेंगे। कथाकार बीबीसी की सेवा से एक रिटायर्ड व्यक्ति को बड़ी दत्तचित्तता से अपना वक़्त गुज़ारने के सारे सामान और साधन मुहैया कराता है। वह अपने दांपत्य जीवन की स्मृतियों को बार-बार संजोता है और कुल मिलाकर प्रसन्न रहता है। लोमड़ी परिवार और अन्य जानवरों के बारे में सोचना भी उसके लिए समय काटने का एक अहम माध्यम है। इस कहानी को पढ़ते हुए हमें बार-बार लगता है कि हम सैम्युअल बिकेट का कोई नाटक पढ़ रहे हैं। कहानी अपने दिलचस्प कथ्य के कारण आद्योपांत पाठक को बांधे रहती है। पाठक कपूर साहब के पशु-प्रेम को एक मिसालिया आदर्श के रूप में लेता है। पूरी कहानी में मुख्य कथानक के अतिरिक्त लोमड़ी-परिवार की उप-कथा भी साथ-साथ चलती है जिनमें हम कथाकार की दिलचस्प वर्णनात्मक शैली से दो-चार होते हैं। 

 

किसी लेखक का भावुक मन कितना संवेदनशील होता है, यह इस बात से प्रतिपादित होता है कि संग्रह की अधिकतर कहानियां कोरोना महामारी की भुतही छाया से प्रकोपित हैं, जिन्हें तेजेन्द्र बार-बार अपनी कहानियों में लाते हैं क्योंकि उससे मानवता का रक्त बहा है। कहानी ‘शोक संदेश’ में भी तेजेन्द्र ने कोरोना द्वारा किए जा रहे थोक में नरसंहार के चित्र अपने कलम-कैमरे से खींचे हैं। इस कालजन्य विभीषिका के बीच यह कहानी रिश्तों की पड़ताल भी करती है ताकि कहानी में कहानीपन बना रहे। ऐसे समय में भी ज़िंदग़ी की आपाधापी को विराम नहीं मिलता। ऐसे दुर्दिन में भी लंदन का विकासशील बहु-सांस्कृतिक माहौल रवानगी पर है। 

 

कहानी ‘बदलेगी रंग ज़िंदगी’ पाकिस्तान की आर्थिक विपन्नता, शिया-सुन्नी के बीच वैवाहिक संबंधों तथा एक मुस्लिम परिवार के हालत-हालात पर सूक्ष्म विवेचन पेश करती है। परिवार के माली हालात सुधारने के लिए बेटे असद को लंदन भेजकर रोज़ी-रोटी कमाना एक सुलभ माध्यम है क्योंकि ‘पाकिस्तान में रहकर भला वह ऐसा सपना हक़ीकत में कैसे बदल सकता’ है? (पृ.146) ऐसी खुशफहमी पाली जा सकती है कि आधुनिकता की तूफानी बयार शिया-सुन्नी के मध्य भेदभाव को मिटा देगी। पर, अगली सुबह शिया मस्ज़िद में गोलियों से कई लोग मारे जाते हैं। इस कहानी में कथाकार विभिन्न सकारात्मक-नकारात्मक बातों को आसन्न स्थितियों में पास-पास रखते हुए एक दिलचस्प कथानक बुनता है। बंटवारे और हिंसा में हिंदुओं के शिकार का भी ब्योरा है। फेसबुक के जरिए लंदन की लड़की आमना से निकाह के लिए लंदन जाने का उतावलापन है: ‘अगर असद विलायत में सैटल हो जाता है तो समझो कि हमने तो हज़ कर लिया।’ कथाकार शिया-सुन्नी के ऐतिहासिक झगड़े पर भी खूब ब्योरे देता है: शिया-सुन्नी का झगड़ा कोई अनवर या असद ने तो शुरू नहीं किया ना! यह तो मुहम्मद साहिब की मौत के बाद ही शुरू हुआ।’ (पृ.149) 

 

तेजेन्द्र की कहानियों में हम पाकिस्तान की पृष्ठभूमि, पाकिस्तान के पात्र, मुस्लिम समाज के रीति-रिवाज़ आदि के आवर्तन को बार-बार प्रमुखता से देखते हैं; इसकी एक वज़ह यह है कि वह पाकिस्तान को किसी भी प्रकार से भारत से भिन्न नहीं मानते हैं। दोनों देशों की पृष्ठभूमियों के पात्र उनकी कहानियों में साथ-साथ दिखते हैं और वे विरले ही एक-दूसरे के प्रति विद्वेष-भाव धारित करते हुए प्रतीत होते हैं। ऐसा इसलिए भी है कि तेजेन्द्र के मन में दोनों देशों के बीच भौगोलिक-राजनीतिक विभाजन जैसी बात कोई ख़ास मायने रखती ही नहीं। एक प्रवासी के रूप में भी वह एशिया के वृहत्तर भू-भाग को भारतीय उप-महाद्वीप का ही हिस्सा मानते हैं। इसलिए, यह सहज समझा जा सकता है कि उनकी भावी कहानियों में भी ऐसी ही पृष्ठभूमियों वाले कथानक आवर्तित होते रहेंगे। ‘टूट गया नाता…’ में भी ऐसी ही पृष्ठभूमि है जहाँ ‘नाई की दुकानें अधिकतर पाकिस्तानियों की हैं और भारतवंशियों को पाकिस्तानी मूल के नाइओं के सामने ही अपनी गर्दन झुकानी पड़ती है’ (पृ.106)। इस कटाक्ष में कहीं वैमनस्यता जैसी बात तो है नहीं। सो, प्रवासी भारतीयों को यह ग़ुरूर कतई नहीं पालना चाहिए कि वे पाकिस्तानियों से श्रेष्ठ हैं। इस कहानी में लेखक उर्दू-हिंदी भाषा संबंधी विवाद को भी चर्चा के केंद्र में लाता है। कहानी के मुख्य पात्र की भाषा में ‘मीरपुरी, पंजाबी और उर्दू का मिश्रण साफ़ सुना जा सकता’ (पृ. 106) है। सलमान के इस उर्दू को ‘कहानीकार’ हिंदी भी मानकर चलता है। निम्न वर्ग से जुड़े सलमान की अंग्रेज़ी के प्रति वितृष्णा भी उल्लेखनीय है—‘जो लज्ज़त हमारी ज़बान में है भला अंग्रेज़ी में कहाँ है?’ (पृ. 107) लेखक धार्मिक सामंजस्य पर भी अपना आदर्शवादी दृष्टिकोण दर्शाता है-‘हर इंसान को अपने-अपने मज़हब पर चलने की स्वतंत्रता है।’ (पृ.107) इस तरह, तेजेन्द्र अपनी कहानियों में कथानक की विशिष्टता पर ध्यान देने के साथ-साथ विशेष मुद्दों पर बहस उन पात्रों के जरिए छेड़ते हैं जो समाज के लिए ज़रूरी हैं, इसके अभिन्न अंग हैं। अपने समय के साथ संवाद करते हुए भविष्य पर निग़ाह गड़ाए रहते हैं। 

 

कहानी ‘शोक संदेश’ में कोरोना की घातक दानवी छाया से हम फिर सिहर उठते हैं। एक तरफ कोरोना की विभीषिका है तो दूसरी तरफ लंदन का माहौल जो अब पहले जैसा नहीं रहा; अब सभी स्वार्थी हो गए हैं। रिश्तों में पहले जैसी बात नहीं रही। कहानी में ऑलिवर अपनी पत्नी लिली से अपनी बहन के बारे में जो बताना चाहता है, उससे बेशक हम सिहर हो जाते हैं-‘यह औरत कोरोना वायरस से भी अधिक ख़तरनाक़ थी। इससे भी अधिक बेदर्द। इसने हमें ज़िंदा भी रखा और मौत का अहसास भी करवा दिया।’ (पृ.141) चुनांचे, लेखक आदमी से आदमी की दूरी बढ़ाने वाले कोरोना से भी ख़तरनाक़, रिश्तों में आ रही दूरी को बताता है-‘आज दुनिया सोशल डिस्टैंसिंग की बात कर रही है। मग़र लूसी ने तो कब से हम दोनों से फ़िज़िकल दूरी बना ली।’ (पृ.142) पूरी कहानी महामारी कोरोना के परिप्रेक्ष्य में रिश्तों का पड़ताल करती है। अस्तु, कहानीकार रिश्तों में आई टूटन-सीलन को कोरोना से अधिक भयानक, हृदय-विदारक साबित करने पर तुला हुआ है क्योंकि रिश्तों के टूटने की समस्या असमाधेय-सी, दीर्घकालिक है। तभी तो कहानी की अंतिम पंक्तियां पाठक को द्रवित किए बग़ैर नहीं रह पातीं, ‘उनका जी चाहा कि कोरोना की परवाह ना करें... और भागकर अपने बचपन में वापिस लौट जाएं।’

 

कहानी ‘शुभांगी सुनना चाहती है...’ आरंभ से ही कौतुहल पैदा करती है। राज का एक लकवाग्रस्त लड़की से प्रेम-निवेदन करना विस्मय पैदा करता है जबकि उक्त स्त्री को राज द्वारा व्हट्सएप संदेश के जरिए सुंदर घोषित किया जाना उसे अज़ीबो-ग़रीब मन:स्थिति में ला खड़ा करता है, ‘तुम्हें मेरे लकवाग्रस्त चेहरे की विकृत हंसी में सुंदरता कैसे दिखाई दे गई!’ वह एक ऐसी आधी-अधूरी लड़की है जिसे ‘सपनों के बार-बार धराशाई होने से’ (पृ.159) बहुत डर लगता है। नि:संदेह, वह एक महत्त्वाकांक्षी लड़की थी जो ज़िंदग़ी की ऊंची उड़ान भरना चाहती थी; लेकिन, वह तो ‘पैदा ही एक डिफ़ेक्टिव पीस के तौर पर हुई थी।’ (पृ. 159) भोपाल त्रासदी में ज़हरीली गैस के रिसाव के कारण वह कान की बीमारी कोलोस्टीटोमा की शिकार हुई और फिर सर्ज़न की ग़लत सर्ज़री ने उसे बहरा बनाकर उसके चेहरे को लकवाग्रस्त कर दिया। फिर, कान की ही बीमारी गंभीर होकर टिनिटस मे परिवर्तित हो गई जिससे तेज सीटी जैसी ध्वनि सुनाई देने लगी। 

 

पूरी कहानी शुभांगी का मर्मांतक आत्मालाप है। वह जीवन में क्या नहीं बनना चाहती थी! गीत-संगीत, खेल, एन.सी.सी. आदि सभी उसे प्रिय थे। अपने स्कूल के आलोक का प्रेम भी हासिल करना चाहती थी। पर, अपने परिश्रम और संकल्प से उसने बैंक की नौकरी हासिल की और उसके बाद स्वावलंबी होने के लिए अपना एक फ्लैट भी खरीदा। तेजेन्द्र ने उसकी आशा-निराशा और टूटते-सम्हलते मनोबल के दरम्यान राज के प्रेम का आग्रही होने का चित्र बड़ी शिद्दत से उकेरा है। यह कहानी ऐसी पात्र का एकालाप है जो कुछ सुन तो नहीं सकती; पर, उसका मन बेहद वाचाल है। एक स्त्री के अंतर्द्वंद्व को कोई पुरुष लेखक इतनी सुंदरता से कैसे रूपायित कर सकता है; पर, तेजेन्द्र ने ऐसा किया है और बड़ी सफलता से किया है। 

 

यदि कहानी संग्रह ‘संदिग्ध’ की अंतिम दो कहानियों को प्रेम कहानियां माना जाए तो यह बेजा न होगा। ‘ख़्वाहिशों के पैबंद…’ कहानी दो देशों- इंग्लैंड और रिपब्लिक ऑफ़ ऑयरलैंड के प्रेमियों के बीच के संबंध को उकेरते हुए आगे बढ़ती है। सैली स्मिथ इसे एक ‘हादसे’ के तौर पर देखती है। इस प्रेम-संबंध को पढ़कर, पाठक को इंग्लैंड के महाकवि विलियम बट्लर यीट्स और ऑयरलैंड की स्वतंत्रता-सेनानी मॉड गॉन के ट्रैजिक प्रेम-संबंधों की याद आ जाएगी जिसमें यीट्स टूटकर गॉन के प्रेम में मतवाला था जबकि गॉन उससे आख़िर तक बड़ी हृदयविहीनता से किनारा करती रही। किंतु, यहाँ स्थितियां बिल्कुल भिन्न हैं। 

 

सैली और माइकल एक ही प्रोफेशन अर्थात थियेटर से ताल्लुक रखते हैं। हाँ, सैली मुख्यतया क्रिस्टोफर मार्लो, जॉन वेब्सटर, बेन जॉन्सन, विलियम शेक्सपियर जैसे नाटककारों की आलोचक-समीक्षक है। दोनों पहली मुलाक़ात में ही अपने संबंधों में दूर तक की उड़ान भरने लगते हैं। यह कुछ-कुछ प्रथम दृष्ट्या प्रेम में पड़ने जैसा है। वैसे भी सैली, शेक्सपियर के नाटकों की स्त्री-पात्रों पर एक लेक्चर देने जा रही है। जब ऐसा है तो बेशक, दोनों के प्रेम-संबंध शेक्सपियर के रोमांटिक पात्रों के जैसे ही होंगे जिनमें उम्र, ओहदा, परवरिश आदि कोई मायने नहीं रखती। शेक्सपियर के ‘ट्वेल्फ्थ नाइट’ में एक तरफ ड्यूक ओरसिनो और दूसरी ओर ओलीविया तथा वायला के प्रेम-संबंध कुछ उद्धरणीय हैं। 

 

सैली तो कुछ यूं सोचने लगती है - ‘जब मैं अपने लेक्चर डेस्डिमोना के बारे में बात कर रही थी तो मुझे कुछ ऐसा महसूस हुआ कि माइकल मेरा ओथेलो है… ’(पृ.171) उसे बातचीत में जानकर खुशी हुई कि माइकल कुंवारा है। लेखक का पूरा प्रयास है कि साथ-साथ चलते हुए और कोस्टा में बैठकर कॉफी पीते हुए दोनों के बीच तालमेल स्थापित हो जाए। सो हो भी गया। सैली ज़्यादा ही उतावली हो रही थी कि माइकल उसे किस कर ले जबकि उसने तो उसका हाथ पकड़ ही लिया था। पर, मोबाइल नंबरों का आदान-प्रदान करते हुए सैली ने ख़ुद को न रोक पाते हुए स्वयं से कई साल बड़े माइकल को किस कर ही लिया। दोनों का प्रेम परवान चढ़ ही चुका था। सैली पर ज़्यादा असर हुआ था - ‘मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं चल रही हूँ या उड़ रही हूँ… जब आपको अपने सपनों का राजकुमार अचानक कहीं मिल जाए तो भला आप सहज कैसे रह सकते हैं?’ फिर, वह हर तरह से अर्थात बौद्धिक और शारीरिक रूप से उससे मुलाक़ात के लिए स्वयं को तैयार कर लेती है। लेक डिस्ट्रिक्ट जाने से पहले - ‘कल जाकर कांट्रासेप्टिव गोलियां भी खरीद लूंगी… कंडोम तो माइकल लेकर ही आएगा…’ (पृ. 176) 

 

अगले दिन वे अपने प्रेम को ठोस आधार देने के लिए निर्धारित प्लॉन के अनुसार, यूस्टन, मिल्टन कींज़, हेमेल हेम्पस्टेड, प्रेस्टन जैसे स्थानों से होते हुए विंडरमीयर के ‘मे कॉटेज़’ पहुंच गए। सैली को रात की मुलाक़ात के अनुभवों ने उसे आहत किया था क्योंकि माइकल में उसे एक प्रतिशत पुरुषत्व की कमी का अहसास हो रहा था जो उसके लिए एक हादसा की तरह था। अलबत्ता, माइकल ने उसे विश्वास दिलाया-‘मैं निन्यानवे प्रतिशत पूरा और पक्का पुरुष हूँ… अगर कहीं एक प्रतिशत गड़बड़ होगी भी तो मैं या हम दोनों मिलकर उसे ठीक कर लूंगा।’ (पृ.183) सैली अंतर्द्वंद्व से हिली हुई थी-‘माइकल भीतर से औरत और बाहर से मर्द।… अब तो बाहर से भी मर्द और औरत दोनों है…’ (पृ.183)। पर, आख़िरकार, सैली अंतर्द्वंद्व से मुक्त होकर माइकल के प्रति उसके प्रेम का पलड़ा भारी पड़ता है। माइकल के खरे प्रेम की स्वीकार्यता पर वह खरी उतरती है। लेखक प्रेम के संबंध में अपने आदर्शवादी दृष्टिकोण को मज़बूत समर्थन देकर दुनियाभर के प्रेमियों के साथ खड़ा नज़र आता है।

 

तेजेन्द्र की कहानियों की विशेषता है - उनमें कथानक की विविधता। उनमें नॉस्टेल्जिया का उतना अंश नहीं नज़र आता जितना कि अन्य प्रवासी कथाकारों में। एक सोची-समझी रणनीति के अनुसार ही वह कथानक की बिल्कुल भिन्न धरातल का चुनाव करते हैं। उनके कथा-साहित्य में कथा-तत्त्व प्रचुर मात्रा में है; ऐसा नहीं है कि वह सिर्फ संवाद के जरिए कथा-विस्तार कर रहे हों और कहानी को नाटकीय स्वरूप प्रदान कर रहे हों। नि:संदेह, जो कथाकार अपनी कहानियों में कोई 80-90 फीसदी संवाद का प्रयोग करके कथानक को विस्तार देते हैं, वे कहानी के मानक शिल्प को नज़रंदाज़ कर देते हैं जिससे पाठकीय स्तर पर कहानी ग्राह्यता के मानदंड पर खरी नहीं उतरती। कहानी में बहुत सारी बातों के साथ-साथ कहानीकार का अपना मंतव्य और विचार-तत्त्व भी विशेष महत्त्व रखता है जिससे कहानी दिलचस्प भी होती जाती है।

 

तेजेन्द्र अपनी सभी कहानियों में पात्रों की राय के अतिरिक्त अपनी भी राय देकर कहानी के वातावरण, देशकाल और पात्रों की मन:स्थितियों के बारे में तसल्ली से बतियाते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि तेजेन्द्र कथानक की पृष्ठभूमि का निर्धारण सोच-समझ कर करते हैं। कथानक के विस्तार में वह अधिकतर एक ही कथावस्तु को आरंभ से अंत तक रखने की कोशिश करते हैं; ढेरों उपकथाओं का समावेश न करके वह कहानी को जटिल और दुर्बोध होने से बचाने के लिए कृतसंकल्प नज़र आते हैं। हाँ, संग्रह की चुनिंदा कहानियों में पात्रों की बहुसंख्यकता अख़रती है; लेकिन, पूरी कहानी पढ़ने के बाद लगता है कि कहानी में आए सभी पात्र आवश्यक हैं जिन्हें मुख्य कथानक से कतर कर बाहर करने से कहानीपन को बडी चोट पहुंच सकती है। अस्तु, समकाल के प्रति सकारात्मकता से मुखर तेजेन्द्र समकालीन कथा-साहित्य के लिए एक ज़रूरी कथाकार हैं। उन्हें भलीभांति पता है कि ज़िंदग़ी के बहुअंगी स्वरूपों को परत-दर-परत खोलने के लिए वह ठहरेंगे-थमेंगे नहीं। उनकी विविधधर्मी कहानियां उनकी सृजनधर्मी ऊर्जस्विता से प्रसवित-पल्लवित-पुष्पित होकर पाठकीयता के मंच पर सुवासित सुगंध से हमें मुग्ध करती रहेंगी। 


Manoj Kumar Mokshendra
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