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बाल साहित्य के लिए आवश्यक निर्धारितियाँ

 

हिंदी में बाल साहित्य लिखने के नाम पर बड़े–छोटे लेखक जिस लीक पर बच्चों और किशोरों के लिए कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक आदि लिखने की क़वायद कर रहे हैं, उसके लिए कोई मानदंड निर्धारित नहीं किए गए हैं। बस, यह समझ लिया जाता है कि बाल साहित्य की भाषा सरल और सहज होनी चाहिए, दुरूह और क्लिष्ट अभिव्यक्तियों से परहेज़ करना चाहिए और इस प्रकार बच्चों का भरपूर मनोरंजन होना चाहिए। पर, ये निर्धारितियाँ तो गले के नीचे नहीं उतरतीं। हमें बाल साहित्य के लिए कुछ मानदंडों और नियमों का प्रतिपादन करना होगा। 

बाल साहित्य का प्राथमिक लक्ष्य होता है इसका प्रेरणाप्रद और शिक्षाप्रद होना। यह प्रेरणा और शिक्षा भी कुछ ऐसे दी जानी चाहिए कि ये शुष्क और नीरस न हों तथा बालकों को इसे आत्मसात करने में सुखानुभूति ही हो; ये आनंद-परिणामी हों। वयस्क साहित्य के लिए प्रथमत: शिक्षण और द्वितीयत: मनोरंजन के उद्देश्यों को ध्यान में रखा जाता है; किन्तु, बाल साहित्य में बात बिल्कुल इसके विपरीत होती है। इसमें प्रथम तत्त्व मनोरंजन है और तदनन्तर, मनोरंजन करते हुए बच्चों को शिक्षित करना और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए प्रेरित करना होता है। अर्थात्‌ मनोरंजन और शिक्षण साथ-साथ होने चाहिएँ। इसी विचार से आधुनिक शिक्षा-पद्धति में प्ले-वे स्कूलों को बहुतायत में स्थापित किया जा रहा है। बच्चों के शिक्षण में यह एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग है जो अत्यंत सफल है एवं जिसकी जड़ हमारी सांस्कृतिक ज़मीन से जुड़ी हुई है। इसी माध्यम से आज के नौनिहालों में ज्ञानार्जन के प्रति स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रस्फुटित हो रही है। यदि हम अपने गुरुकुलीय शिक्षा-प्रणाली पर दृष्टि डालें तो वहाँ हमें पता चलता है कि हमारे गुरुजन मनोविनोद-मिश्रित शस्त्र-शास्त्र तथा ज्ञान की विभिन्न शाखाओं की शिक्षा-प्रशिक्षा दिया करते थे। 

निःसंदेह, बाल साहित्यकारों के लिए बाल साहित्य-लेखन एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। बाल साहित्य के नाम पर कुछ भी नहीं लिखा जा सकता। इसके लिए बहुत संयम और अनुशासन के साथ-साथ साहित्य की विभिन्न विधाओं के अंतर्गत विषय-वस्तु का चयन करना पड़ता है। प्रकट तौर पर, बच्चों के लिए ऐसे विषय बिल्कुल सुपाच्य-सुरुचिपूर्ण नहीं होंगे, जो विषय वयस्कों के लिए होते हैं। वयस्क साहित्य लेखन के लिए हम सीधे-सीधे सामाजिक समस्याओं में प्रवेश कर जाते हैं जबकि बाल साहित्य में ऐसी बात नहीं है। बाल साहित्य में हमें सामग्री बहुत सोच-समझकर परोसनी होती है क्योंकि दोनों वर्गों की अभिरुचियों एवं समस्याओं में काफ़ी अंतर है। 

अस्तु, बाल साहित्य का प्रेरणाप्रद/शिक्षाप्रद होना स्वयं में एक परिपूर्ण मानदंड है। अब वह स्वीकार्यता के आधार पर प्रेरक कैसे होगा, इसके लिए बाल साहित्यकारों को स्वयं चिंतन-आत्ममंथन, मिल-बैठ कर विचार-विमर्श और सतत अभ्यास करना होगा। सिर्फ़ वैचारिक गोष्ठियों में बाल साहित्यकारों की आलोचना करने, उनका मख़ौल उड़ाने तथा कूप-मण्डूकता का परिचय देते हुए स्वयं द्वारा बनाए गए मानदंडों और कपोलकल्पित नियमों को उन पर थोपने से बात नहीं बनेगी। एक विशेष बात यह भी है कि बहुत कम संख्या में मँझे हुए साहित्यकार बाल साहित्य के सृजन में आवेष्टित होना चाहते हैं। जो आवेष्टित होना चाहते हैं, उनकी हौसला-अफ़ज़ाई के बजाए, उन पर तीखी आलोचना का बुलडोज़र चला दिया जाता है और आलोचक की ओर से कहा जाता है कि वह उसे यह (सार्वजनिक) मशविरा एक मित्र होने के नाते दे रहा है, न कि एक अमित्र होने के नाते। ऐसा करते हुए वह बाल साहित्यकार की श्रमशील रचनात्मकता को धुँए में उड़ा देता है। बेशक, किसी भी आलोचक द्वारा परोसे गए ऐसे अलपटप तर्क हज़म नहीं होते; उससे हँसी आती है और आलोचक की दुर्भावनापूर्ण मंशा स्वतः उजागर हो जाती है। यह तो बिलाशक, ईर्ष्योत्प्रेरित जैसा लगता है, जबकि आलोचक को अत्यंत उदार और निष्पक्ष होना चाहिए। हाँ, बाल साहित्य लिखने की ‘जोख़िम’ उठाने वाले साहित्यकार भले ही स्थापित हैं, ऊँचे क़द वाले हैं; उनका उत्साहवर्धन हर स्तर पर, हर छोटे–बड़े मुँह से, मुक्त कंठ से किया जाना चाहिए। ऐसा न होने पर ही, विशेषतया हिंदी साहित्य में बाल लेखन अत्यंत विरल होता जा रहा है। अगर यहाँ यह कहा जाए कि ऐसी स्थिति में कोई लेखक बाल साहित्य लिखने की जोखिम क़तई नहीं उठाना चाहेगा। 

ऐसी बात नहीं है कि बाल साहित्य वर्तमान समाज की विकट परिस्थितियों की ज़रूरत है जिनकी वजह से इनका लिखना अभी-अभी या कुछ समय पूर्व आरंभ हुआ है। इसका सृजन तो स्वाभाविक रूप से प्राचीन काल से होता आया है और असीम भविष्य में भी होता रहेगा। सच तो यही है कि सभी प्रकार के साहित्य-सृजन में बाल साहित्य लिखने/गढ़ने की पहलक़दमी सबसे पहले की गई होगी जिसे वयस्कों और अल्पवयस्कों द्वारा सामान रूप से पढ़ा/सुना गया होगा। कालांतर में, सामाजिक जीवन जटिल होने और अपरिपक्व बच्चों तथा प्रौढ़-परिपक्व वयस्कों के लिए अलग-अलग वर्ग सृजित होने के कारण साहित्य भी द्विभाजित हो गया और पाठकों की मानसिक क्षमता और बौद्धिक ग्राह्यता के आधार पर, दोनों के लिए भिन्न-भिन्न साहित्य की रचना की जाने लगी। बहरहाल, यह आवश्यक नहीं है कि बच्चों के साहित्य को वयस्क जन ही और वयस्क साहित्य को बच्चे और किशोर ही पढ़कर लाभान्वित, प्रेरित-अनुप्राणित हो सकते हैं। ऐसा तो पाठक के रूप में उनकी मानसिक परिपक्वता पर निर्भर करता है। अब देखिए, पंचतंत्र की कहानियों की लोकप्रियता सभी वय और लिंग के पाठकों में समान रूप से है—बच्चे, किशोर, युवा, प्रौढ़ और वृद्धजनों के साथ-साथ हर जेंडर के पाठक बड़े चाव और जिज्ञासा से पढ़ते हैं। इस तरह, साहित्य की अविलगेय श्रेणी अर्थात्‌ बाल साहित्य पर दक़ियानूस नज़रिया रखना किसी भी प्रकार से उचित नहीं होगा। 

बाल साहित्यकार के समक्ष सबसे विकट समस्या यह है कि इसे प्रेरणाप्रद-शिक्षाप्रद और बच्चों के लिए आकर्षक रूप से स्वीकार्य कैसे बनाया जाए। क्योंकि प्रेरणाप्रद बनाने के प्रयास में यह इतना बौद्धिक न हो जाए कि इसमें नीरसता और उबाऊपन आ जाए। यदि हम इसमें सभी वैश्विक-राष्ट्रीय-सामाजिक-पारिवारिक समस्याओं और जटिलताओं को ठसाठस भर देंगे तथा जिस रूप में हमारा समाज, इसका परिवेश और इसके जन हैं, उसी रूप में इन्हें इसमें ठूँस देंगे तो बच्चे इसे कदापि स्वीकार नहीं करेंगे; वे इसे एक सिरे से खारिज़ कर देंगे। इन समस्याओं और जटिलताओं को तो छोड़िए, अगर हम बाल साहित्य के लिए पात्र, उद्देश्य, संवाद और विषय-सामग्री के चयन में सेलेक्टिव नहीं हुए तो इसका तो मूलभूत उद्देश्य ही मात खा जाएगा। यदि किसी बाल कहानी में अपने ही दादा-दादी, मम्मी-पापा, भाई-बहन, यार-दोस्त जैसे पात्रों को रखते हुए गृहस्थ जीवन की सामाजिक-पारिवारिक गुत्थियों पर कथानक को विकसित करते हैं तो क्या ऐसा बच्चों के कोमल और विकासशील मन को किसी प्रकार से स्वीकार्य होगा? कदापि नहीं। इसके लिए हमें सुदूर की यात्रा करनी पड़ेगी। इसलिए, बच्चों के साहित्य में अनंत समस्याओं से जूझ रही धरती को छोड़कर किसी इतर-जमीन या कल्पित ग्रह को तलाशना होगा जहाँ के अज़ीबो-ग़रीब से दिखने वाले प्राणी कुछ ख़ास क़िस्म की शारीरिक संरचना, अद्भुत आचरण और मनःस्थिति को धारित करते होंगे। उनमें बच्चों की जिज्ञासा निःसंदेह अबाध और अनियंत्रित होगी। आज से नहीं, साहित्य-सृजन के आरंभिक काल से ही बाल साहित्य में परामानवीय पात्रों की दख़लंदाज़ी की स्वतः स्वीकृति मिली हुई है। इससे बच्चों की जिज्ञासा में अपरिमित इज़ाफ़ा होता आया है और इसी कारण से उनके द्वारा बाल साहित्य को स्वीकार्यता मिलती आई है। 

परामानवीय पात्रों, यथा—राक्षसों और दैत्यों को मानव-हितकारी कार्य करते हुए प्रदर्शित करके जब उनके प्रति पूर्व-निर्धारित लोकप्रिय मान्यताओं को धराशायी किया जाता है तो ऐसा बच्चों के लिए और अधिक सुखकर और प्रेरणाप्रद होता है। परियों, तितलियों, भौंरों, रंगबिरंगी पक्षियों आदि की दुनिया को मानवीय अहसासों से भरकर तथा उन्हें मानवीय भावनाओं के प्रति अनुक्रियात्मक बनाकर बाल साहित्य को बच्चों के लिए प्रेरणाप्रद बनाया जाता है। कुत्ते, बिल्ली, गाय, गिलहरी आदि के साथ हम अपनी भावनाओं का साझा यथार्थत: करते आए हैं तथा इसमें कहीं भी अस्वाभाविकता या बनावटीपन नहीं है। हाल ही में दिव्या माथुर ने अपने किसी बाल उपन्यास में बिलौटे और कुत्ते के साथ मानवीय संबंधों को बड़ी शिद्दत और स्वाभाविकता से उकेरा है। महादेवी वर्मा के ‘गिल्लू’ नामक संस्मरणात्मक कहानी में गिलहरी के साथ भावनात्मक आत्मीयता तो पाठकों के लिए हृदयस्पर्शीय है ही। ऐसे अनेक उदहारण हैं। 

बाल साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष होता है, इसमें क़दम-क़दम पर ‘कौतूहल’ का समावेश करना; यही कौतूहल बच्चों में जिज्ञासा और उसके बाद ज्ञानार्जन की दिशा में अग्रेतर ले जाता है। ‘कौतूहल’ बाल साहित्य का बिल्कुल एक भिन्न अंग है जिसके प्रभाव में आकर बालक दुनिया को समग्रता में जानने के लिए प्रवृत्त होता है। इससे ही बच्चों को सृजनात्मक-रचनात्मक-निर्माणात्मक कार्यकलापों में क्रियाशील होने की ठोस प्रेरणा मिलती है। बहरहाल, परामानवीय पात्रों में न केवल आसुरिक शक्तियाँ ही परिकल्पित होती हैं अपितु दैवी पात्र भी उनमें शामिल होते हैं; ऐसे दैवी पात्र जो हमारी लोकप्रिय धारणाओं के अनुसार, इस पृथ्वी पर अवतार लेते हैं और बुरे तत्वों के विरुद्ध ज़ोर-शोर से, बलपूर्वक तीनों नीतियों से कार्रवाई करते हैं। भारतीय पौराणिक पात्रों में विष्णु-अवतार ‘कृष्ण’ का बाल-रूप तो सभी भारतीय बच्चों को प्रिय है—हाँ, इतना प्रिय है कि बच्चे स्वयं को बाल-कृष्ण की भूमिका में रखकर और उनकी भूमिका में आने की कल्पना करके अत्यंत हर्षित-आह्लादित होते हैं। उल्लेख्य है कि कृष्ण एक साहित्यिक पात्र के रूप में इतने अधिक लोकप्रिय और विशेषतया बाल साहित्य में व्यवहृत हैं कि हम भारतीयों को उतना आश्चर्य नहीं होता है जितना कि भारतेतर जनों को। बच्चे कृष्ण के बाल स्वरूप की सम्मोहनी में जकड़े हुए हैं जबकि युवतियाँ अपने ब्वॉय फ्रेन्डों में युवक कृष्ण को ही तलाशती हैं। प्रौढ़जन कृष्ण के दार्शनिक रूप पर जान छिड़कते हैं। इस तरह सुनिश्चित तौर पर, कृष्ण के सम्मोहिनी पाश में कौन नहीं जकड़ा हुआ है? कतिपय बाल साहित्यकारों ने बाल कृष्ण के चरित्र को साक्षात् भौतिक रूप में या उनके छाया-रूप में अपनाया है। यदि उन्होंने बाल कृष्ण को सामान्य बाल-गोपालों के साथ करतब करते हुए प्रदर्शित कर दिया तो समझ लीजिए कि बाल पाठक वर्ग ऐसे साहित्य का अनुशीलन करने तथा उनसे सबक़ लेने के लिए गुत्थमगुथ उमड़ पड़ेगा। 

हमारे पौराणिक पात्र विभिन्न मानवीय क्षमताओं, शक्तियों, सामर्थ्यों और शौर्य-कृत्यों के प्रतीक हैं जबकि बाल साहित्यकार, बच्चों में इन्हीं गुणों को अंतर्विष्ट करना चाहता है। इसलिए, ऐसे पात्रों को अपने साहित्य में वर्णित करना उनकी आवश्यकता ही नहीं अपितु विवशता हो जाती है। अब ऐसे प्रयोग को फंतासी कहा जाए या अस्वाभाविक-सा प्रयोग—लेकिन, हिंदीतर भाषाओं के बाल साहित्य में तो ऐसा किया जाना स्वाभाविक है। हिंदी के बाल साहित्य में भी ऐसा प्रयोग हो रहा है लेकिन इसका लक्ष्य बच्चों को सकारात्मक कार्यकलाप में ही दिशा-निर्देशित करना है। बहरहाल, फंतासी-साहित्य यथार्थ की ज़मीन पर आधृत तो होता ही नहीं। इसके लेखक इसका प्रयोग आश्चर्य-तत्त्व और परामानवीय क्षमताओं के नकारात्मक अमानवीय पक्षों को महिमा-मंडित करने के लिए करते हैं जिनसे बच्चों को किसी भी प्रकार की रचनात्मक प्रवृत्ति में आवेष्टित करने की प्रेरणा नहीं दी जा सकती। हाँ, फंतासी के ज़रिए उनके मन में विरोधी और विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों को ही अवरोपित किया जाता है। जहाँ तक बाल साहित्य में परामानवीय प्राणियों के अंतर्वेशन का सम्बन्ध है तो आप दूर क्यों जाते हैं; आप भारतीय संस्कृति तथा यहाँ के प्राकृतिक जीवन में रचे-पगे हुए रस्किन बांड के फ़िक्शन को पढ़ें जहाँ मनुष्य के साथ भूतों और चुड़ैलों की अन्योन्याश्रित क्रियाओं को मस्ती से उकेरा गया है। बच्चे तो इसी एक विशेषता के कारण रस्किन बांड के दीवाने हैं। 

बाल साहित्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के साहित्य में प्रकृति के विभिन्न उपादानों को भावनात्मक-वैचारिक रूप से वक्तृत्व-क्षमता प्रदान करके साहित्य को सार्थक बनाने का प्रयत्नलाघव बेशक बहु-प्रशंसित है। पेड़-पौधों, तितली-पतंगों, पशु-पक्षियों, नदी-नालों, घाटी-घटाओं, चाँद-सूरज आदि को इतना वाकपटु बनाकर कि वे हमारे साथ भावनाओं और विचारों का पारस्परिक विनिमय कर सकें— इससे न केवल बच्चों को ही, अपितु वयस्कों को भी अत्यंत क्रियाशील और जीवंतता के साथ हर्षोन्मत्त किया जा सकता है। बाल साहित्यकार तो प्रकृति की ऐसी जड़-अचेतन वस्तुओं का प्रयोग जीवन्त बनाकर धड़ल्ले से करता है क्योंकि उसका उद्देश्य होता है बाल मन को सकारात्मकता के प्रति उन्मुख करना। 

जीवन के प्राथमिक-प्रारंभिक तत्त्व या गुण होते हैं—जीवन के वे आदर्श जिनकी आवश्यकता वयस्क होने पर अधिक होती है। उदाहरणार्थ-सत्यनिष्ठता, कर्तव्यबोध, परोकार, ईमानदारी, श्रमशीलता, सेवा-भाव, दया-करुणा, प्रेम-सहानुभूति आदि जिनका उनमें बीजारोपण बाल साहित्य के माध्यम से होता है तथा जिनके अभाव में जीवन की नकारात्मकताओं के विरुद्ध मनुष्य की संघर्ष-क्षमता कमज़ोर पड़ जाती है; वह जीवन-संघर्ष में पराजित हो जाता है। जीवन के कटु यथार्थ का सामना करने के लिए बच्चों में संघर्षशीलता का संपाक होना अत्यंत आवश्यक है और इसकी शुरूआत बाल साहित्य के माध्यम से ही की जा सकती है। 

ध्यातव्य है कि बाल साहित्य में परीलोक, दानवलोक, देवलोक, मानवेतर जीव-जगत आदि का अंत:निवेश अपरिहार्य हो जाता है। कोई ज़रूरी नहीं है कि अतिमानवीय शक्तियाँ हमारे अनुकूल कार्य करें; वे हमारे सृजन और अस्तित्व के ख़िलाफ़ भी जा सकती हैं और जाती ही हैं। इसलिए, बच्चों को इन प्रतिकूल तत्त्वों के प्रति भी हमें जागरूक बनाना होता है। भारतीय जीवन दर्शन में मानवेतर, प्रतिकूल तत्त्वों की संकल्पना तो इतनी बलपूर्वक की गई है कि हममें स्वयं को इनके साथ-साथ अपना अस्तित्व-अस्मिता बनाए रखने का माद्दा होना बेहद ज़रूरी बताया जाता है। हम इन शक्तियों को अन्धविश्वास के नाम पर झुठला नहीं सकते क्योंकि साहित्य की वास्तविक धरातल पर ये स्पन्दनशील-क्रियाशील हैं। अँधेरे और वीरान-बियांबां में डरे हुए बालक को ही क्या, वयस्कों को भी बजरंगबली सरीखा शक्ति-रूप देवता का स्मरण ही उनके भयभीत मन को संबल प्रदान करता है और ऐसे में किसी भुतही-प्रेतही छाया से स्वयं को बचाने के लिए वह ज़ोर-ज़ोर से हनुमान चालीसा ही पढ़ेगा। आज के विज्ञान-सम्मत परिवेश में शोधाध्ययनों में भी यह बात खुलकर सामने आ रही है कि भूत-प्रेत और दानवी अस्तित्व को झुठलाया नहीं जा सकता। किसी पाश्चात्य वैज्ञानिक ने तो यहाँ तक दावा किया है कि इस धरती पर ऐसी भी सभ्यताएँ हमारे साथ-साथ फल-फूल रही हैं जिन्हें हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव नहीं कर सकते हैं; न उन्हें देख सकते हैं, न छू सकते हैं। ऐसे में, बाल साहित्य भी उसी लीक पर चल रहा है तथा जिस शोधाधारित रहस्योद्घाटन को करने में विज्ञान को अभी काफ़ी समय लग सकता है, उसकी परिकल्पना बाल साहित्य पहले से ही कर रहा है। बाल साहित्य के आलोचकों को समझ लेना चाहिए कि बाल साहित्यकार ऐसे अनदेखे, अवास्तविक से लग रहे परामानवीय अस्तित्व की जो कल्पना कर रहा है, वह किसी शोध-अनुसन्धान से कम नहीं है और इसमें तो बाल मन गहराई से दिलचस्पी भी ले रहा है। इसमें तनिक भी संदेह-शुबहा नहीं है कि संस्कार-शून्य बालकों में इतने-कितने ही माध्यमों से संस्कार पैदा किए जाते हैं; जिज्ञासा, शिक्षण और व्यक्तित्व-उन्नयन के सोपानों पर चढ़ाकर जीवन और इस संसृति की सच्चाइयों से उनका साबका कराया जाता है। पंचतंत्र के सूत्रधार विष्णु शर्मा का मंतव्य भी कुछ इसी प्रकार है। 

बाल साहित्यकार के मत्थे यह ज़िम्मेदारी है कि वह बच्चों को प्रथमतः कल्पनाशील बनाए; तदनन्तर, उन्हें कल्पना-चक्षुओं के माध्यम से जीवन के यथार्थ से अवगत कराया जाए। तभी वे अपने कल्पना-चक्षुओं से सच्चाइयों को देख सकेंगे और भले-बुरे के बीच अंतर को समझ सकेंगे। उनके उर्वर मन में ऐसी कल्पनाशीलता का प्रचुर उत्पादन तभी होगा जब उनके कल्पना-चक्षु कैलिडोस्कोप की भाँति सभी दिशाओं में देखने की क्षमता विकसित कर पाएँगे। बाल साहित्यकार पर यह महती ज़िम्मेदारी है कि वह बच्चों की कल्पना-शक्ति को पुष्ट-दृढ़ बनाए। 

इस संक्रमण काल में जबकि मानव-मस्तिष्क की क्षमता में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोतरी रही है, हमें बाल साहित्य के कला-पक्ष पर भी गंभीरता से विचार-मंथन करना है। हम देखते हैं कि बाल साहित्य की भाषा-शैली के स्तर का भी उच्चीकरण हो रहा है और ऐसा होना भी चाहिए। कहना न होगा कि बच्चों की ‘समझदानी’ का परास विस्तृत होता जा रहा है। भाषा और शब्दावलियों के सम्बन्ध में उनकी समझ अपेक्षाकृत अधिक व्यापक होती जा रही है। इस दिशा में उनकी बढ़ती वैज्ञानिक और तकनीकी जानकारियों ने उन्हें क्लिष्ट शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों की उनकी ग्रहण क्षमता को और अधिक व्यापक बना दिया है। हम जब अपने बच्चों की ऐसी समझ और प्रतिक्रियात्मक रुझान पर दृष्टिपात करते हैं तो बहुत प्रायः हमें अपनी नासमझी पर हैरानी होती है क्योंकि हमें कई बार उनके द्वारा प्रयुक्त अनेकानेक अभिव्यक्तियों-शब्दावलियों का उतना ज्ञान नहीं होता है। इसलिए, जो समीक्षक-आलोचक यह मानकर चलते हैं कि बस, बाल साहित्य में गिने-चुने शब्दों और अभिव्यक्तियों का ही प्रयोग किया जाना है तो मैं तो इस धारणा के बिल्कुल ख़िलाफ़ हूँ। अरे! जब हम नए-नवीन शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों का प्रयोग ही नहीं करेंगे तो बच्चों के शब्दकोश का परास ही एकदम संकुचित-संकीर्ण हो जाएगा। हमें उन्हें भावी जीवन में उपयोगार्थ नव-प्रयोगों के प्रति न केवल जिज्ञासु बनाना है बल्कि उन्हें अभिव्यक्ति की दुनिया का योद्धा भी बनाना है। इसलिए, कृपया अपनी दक़ियानूस सोच का परित्याग कीजिए तथा हमारे बाल साहित्यकारों को बच्चों का क़ाबिल उस्ताद बनने के लिए उन्हें नवप्रयोग करने दीजिए। 

हाँ, बाल साहित्य को सरसता से सराबोर करने के लिए इसमें दूसरे अनेक प्रयोग वांछित हैं। यदि बाल कथा-साहित्य को कभी-कभार काव्यात्मक रूप में लिखा जाए तो बच्चों और किशोरों के लिए यह अधिक सुरुचिपूर्ण होगा। इनके लिए कथा-साहित्य को संवाद शैली में लिखा जाना अधिक उपयुक्त होगा क्योंकि इस प्रकार से उनकी वक्तृत्व क्षमता में वृद्धि होगी। इसके अतिरिक्त, बाल गद्य साहित्य, नामत: कथा-कहानी, उपन्यास या नाटक आदि में कहीं-कहीं गीत और कविताएँ भी डाली जाएँ तो इनकी स्वीकार्यता और महत्ता और बढ़ जाएगी। हाँ, बच्चों के लिए काव्य नाटक तो लिखे ही जा सकते हैं; पर, बिचारे साहित्यकार तो काव्य नाटक वयस्कों के लिए ही लिखेंगे, बच्चों के लिए काव्य नाटक लिखकर आलोचकों का निशाना तो क़तई नहीं बनना चाहेंगे। 

बाल साहित्य के सन्दर्भ में, प्रकाशकों और मुद्रकों के लिए कुछ ख़ास मशविरा है। यद्यपि इसके अनुपालन में उनका प्रकाशन-कार्य ख़र्चीला होगा तथापि वे इसे रंगीन चित्रों के साथ मुद्रित करें और काग़ज़ की क्वालिटी भी बहुत अच्छी होनी चाहिए। यह भी आवश्यक है कि इसमें फॉन्ट बड़े आकार के हों और बोल्ड लेटर में हों। एक बार किसी बाल साहित्य के लिए सज्जित मंच पर पुस्तक के लोकार्पण के दौरान एक सिर-फिरे समीक्षक ने टिप्पणी की थी कि कोई भी बाल साहित्य बोल्ड लेटर में नहीं मुद्रित किया जाना चाहिए जबकि किसी भी भाषा के बाल साहित्य की पुस्तक में इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि पूरी पुस्तक बोल्ड और बड़े फॉन्ट में मुद्रित हो। प्रकाशक को यह भी ध्यान रखना होगा कि मुद्रित मैटर में स्पेसिंग भी 1.5 या 2.0 की होनी चाहिए। निःसंदेह, बाल साहित्य का बेहतर मुद्रण और प्रकाशन बाल साहित्य की बच्चों द्वारा स्वीकार्यता के लिए एक आवश्यक शर्त है और लेखक तथा प्रकाशक दोनों को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए। 

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