पेटीकोट की ओट में
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. मनोज मोक्षेंद्र15 Sep 2022 (अंक: 213, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
मियाँ सांसद हों तो बेग़म विधायक क्यों न हों? चौधरी विधायक हों तो चौधरानी मेयर क्यों न हों? लालाजी मेयर हों तो ललाइन पार्षद क्यों न हों?
यानी, सत्तासुख का तो असली मज़ा तभी है जबकि दालान में मियाँ, चमचों की दरबार लगाकर अपनी ज़नानी हुक़ूमत का रोब ग़ालिब कर रही हों।
चुनांचे, विधायक चौधरी को यह बात रास आ गई हाय चौधरानी की ग़ैरहाज़िरी में उनकी चमचियाँ उनकी ख़िदमत में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ रही हैं। चौधरी को इस बात से कोई गुरेज़ नहीं है कि चौधरानी रात का डिनर अपने मेहमान स्वास्थ्य मंत्री के साथ प्रेस कॉन्फ़्रेंस के बहाने उनके साथ लांग ड्राइव पर जाने वाली हैं।
लालाजी के मज़े ही मज़े हैं। वैसे तो वे विधान सभा से बरख़ास्त चल रहे हैं; लेकिन, उनके सत्तासुख भोगने में कोई कमी नहीं आई है। उन्होंने अपने मेयर का पद सियासी तिकड़म खेलकर ललाइन को सौंप दिया है। परदानशीं और हयादार ललाइन तो अंतःपुर का सुख भोगने में ही ख़ुद को धन्य मान रही हैं। पर, लालाजी हैं कि ज़िला राजनीति में ललाइन की मुहर का भी भरपूर इस्तेमाल करने में कोई चूक नहीं करते। जब किसी अस्पताल का शिलान्यास करना होता है तो वे ललाइन को आगे कर देते हैं और सार्वजनिक मंच पर उन्हें पीछे से चिकोट-चिकोट कर लहूलुहान करते हुए अपनी बात उनकी ज़बान से उगलवाने में बड़ी महारत हासिल है। बहरहाल, ललाइन तो लालाजी की इस अदा पर वारी जाती हैं।
सो, जिन्हें चुनाव हारकर दुनिया की नज़र में सिर्फ़ पेंशन-सुख भोगना मयस्सर है, उन्हें आप सत्तासुख से वंचित कदापि मत मानिए। अपनी प्यारी पेटीकोट की ओट में बैठकर उन्हें सियासी चाल चलने से कोई नहीं रोक सकता। विधायक न रहकर भी उनकी आमदनी में पेट्रोल पंपों, सरकारी ठेके और गैस एजेंसियों से बेहद बरकत हो रही है। उधर एमपी सा’ब अपने चौधरी रेस्तरां और प्रॉपर्टी के धंधे के ज़रिए शहर वाली मनचलियों को काम और दाम दोनों मुहैया कराया है तथापि अपनी चौधरानी के विधायक के नाम पर वे देशाटन का फ़ायदा भी ख़ूब उठा रहे हैं। हुक्मरान न सही, यहाँ या वहाँ डॉन की शान से वे ज़िंदग़ी का लुत्फ़ पुरज़ोर उठा रहे हैं।
यूँ भी, जो नेता, जनता की बेरुख़ी या वोटिंग बूथों पर अपने आतंकी चमचों की नाक़ामयाबी से फ़िलवक़्त सिंहासन पर आसीन नहीं हो पाए हैं, वे ठाकुर साहब की तरह मायूस नहीं हैं। चमचों ने ठाकुर साहब से लाख मिन्नतें की थीं कि वे अपने साथ-साथ ठकुराइन को भी चुनावी जंग में उतार दें तो वे उन पर मूसलाधार बरस पड़े कि वे घर की इज़्ज़त-आबरू को सरेबाज़ार नहीं करेंगे। वर्ना, ठकुराइन अपने जलवे दिखाकर चुनावी संग्राम की बाज़ी तो जीती ही होती। ऐसे में, सत्ता से दूर रहकर ठाकुर सा’ब को जो मलाल आज हो रहा है, वह उन्हें कभी नहीं होता। अब जब उनके चमचे उन्हें सबक़ देते हैं कि उन्हें अपनी लुगाई को पूरा तवज्जोह देना चाहिए था तो वे आँखों पर रुमाल रखकर गंगा-जमुना हो बैठते हैं। अब पछताए होत क्या . . .
इस प्रकार, सत्तासुख की परोक्ष चाह ने ऐसी लुगाइयों का दर्ज़ बढ़ाया ही है, साथ में राजनेता पतियों को मक्खीमार बेकारी से भी बाल-बाल बचाया है। आम पतियों को भी यह नुस्ख़ा अपनाना चाहिए और बीवियों को एड़ी-चोटी की मशक़्क़त से सत्तापद दिलाकर अपनी क़िस्मत में राजयोग सुनिश्चित करना चाहिए। पेटीकोट की ओट में पत्नी से राजसुख भोगने का इससे बढ़िया मौक़ा कहाँ मिलेगा?
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