कवि रमाकांत रथ—एक काव्य युग का अवसान
आलेख | साहित्यिक आलेख अनिमा दास1 May 2025 (अंक: 276, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
रात में तुम्हें
नहीं करूँगा स्पर्श
कदाचित स्पर्श करने के पश्चात्
तुम जल . . मैं पवन
घुल जाऊँगा उसमें
कदाचित जन्म जन्मांतर
तुमको पाने का
कर्मफल का
हो जाएगा अंत
कदाचित्
मेरी चेतना के सीमांत पर
तुम्हारा कोई रूप रह जाएगा॥
. . . . . . . . .
ये शब्द, यह शब्द विन्यास, ये पंक्तियाँ . . यह आवेग . .व भावों का प्राचुर्य है कवि रमाकांत रथ का। जिनका जन्म ओड़िशा की प्राचीन नगरी कटक में 13 दिसम्बर 1934को हुआ था। उन्होंने रावेन्शा विश्वविद्यालय (उस समय महाविद्यालय था) से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर किया। 1957 में वे भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्त हुए एवं 1992 में मुख्य सचिव के रूप में कार्य करते हुए सेवानिवृत्त हुए। इतनी महत्त्वपूर्ण पदवी पर रहते हुए कई दुविधाओं से संघर्ष करते हुए भी कविता से कभी दूर नहीं हुए एवं उनकी अनन्य कृति ‘श्री राधा’ 1992 में सरस्वती सम्मान से सम्मानित भी हुई। उससे पूर्व उनकी अन्यतम सुंदर कृति ‘सप्तम् ऋतु’ 1978 में केंद्र साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुई थी। 1984 में काव्य संकलन ‘सचित्र अंधार’ हेतु उन्हें शारला पुरस्कार से सम्मानित किया गया तथा 2006 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। केवल इतना ही नहीं 2018 में उन्हें अतिबड़ी जगन्नाथ दास सम्मान से सम्मानित किया गया एवं वह 1993 से 1998 पर्यंत केंद्र साहित्य अकादमी में उपसभापति के रूप में नियुक्त रहे एवं उन्होंने 1998 से 2003 पर्यंत केंद्रीय साहित्य अकादमी में सभापति के रूप में भी दायित्व का निर्वाह किया। उनका प्रथम काव्य संकलन ‘केते दिन र’ 1962 में प्रकाशित हुआ था। इस संकलन ने उस समय की काव्यधारा को एक नव्य प्रवाह में एक नूतन चिंतन के स्रोत में अकस्मात् परिवर्तित कर दिया। कवि रमाकांत ने ओड़िआ काव्यनारी को भावावेग के कारागार से मुक्तकर बौद्धिक तथा अति बौद्धिक चेतना के ऐश्वर्य से समृद्ध किया। एक सचेतन तथा संवेदनशील व्यक्ति, प्रकृति एवं सृष्टि की प्रत्येक दुर्भेद्य एवं अहेतुक परिस्थिति में कैसे पीड़ित होता है . . संतापित होता है . . उस भाव का . . . उस अवस्था का प्रतिफलन उनकी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है। कवि रमाकांत रथ टी एस एलियट एवं एज़्रा पाउंड जैसे कवियों से अधिक प्रभावित थे एवं अपनी रचनाओं में अनेक रूपकल्प का प्रयोग भी करते थे। रहस्यवाद तथा जीवन-मृत्यु की प्रहेलिका के अन्वेषी कवि रमाकांत की आत्मा एकांत-निवासी थी।
कभी कभी होता प्रतीत
मैं हूँ आकाश सा प्रशस्त
तथापि हूँ शून्य
एवं देखता हूँ पृथ्वी सी
स्तीर्ण तुम्हारी भुजाएँ
जहाँ हूँ करता मैं अवतरण
होता है तुम्हारा ही आलिंगन
. . . . . . . . .
उपर्युक्त पंक्तियाँ, प्रथम काव्य संकलन ‘केते दिन र’ से उद्धृत हैं। वह काव्य-मुखर थे एवं कहते थे कि एक कवि समग्र जीवन में एक ही कविता लिखता रहता है। उनकी लेखनी अंतरात्मा की ध्वनि से प्रतिध्वनित होती है। चंचल नदी सी हृदय गह्वर से निस्सृत होकर काव्य प्रेमियों, पाठकों के मर्म को स्पर्श करते हुए आजीवन रह जाती है एक जीवंत स्मृति बनकर। कवि ने जीवन की अपरिमित व्यथाओं को यंत्रणाओं को, संवेदनशील हृदय के अस्पृर्श्य भाग में अनुभूत किया। ऐसे ही उन्होंने अपने जीवन की समस्याओं पर विचार विश्लेषण एवं संकटों का समाधान भी अपने तीक्ष्ण युक्तिपूर्ण बौद्धिक स्तर से ही किया है। उनकी कविताओं में हृदय का भावावेग एवं बौद्धिक विचार शृंखला का एक मधुर समन्वय प्रगट होता है। उनकी प्रत्येक कविता के स्वर में जितना गांभीर्यव संयम है उतनी ही सुकोमलता, सुमधुरता तथा स्निग्धता भी है। कविताओं का पाठ करते समय ऐसा प्रतीत होता है जैसे हृदय पद्म सहस्रदल में उन्मुक्त होकर प्रस्फुटित होता है . . . जैसे मन का कपाट भी उन्मुक्त हो जाता है, उनकी कविताएँ पाठक के मनभूमि पर असंख्य आवेग व आलोड़न की सृष्टि करती हैं।
अन्य सभी सुबह से
आज की सुबह
क्यों होती प्रतीत
भिन्न-पृथक
धूप में है इतनी उन्मत्तता
पवन है अन्यमनस्क
नहीं है कुछ भी पूर्ववत
जैसे कोई देशांतर प्रेमी
रहता है यहीं कहीं
किसी छद्म रूप में . . .
कवि रमाकांत की कविताओं में जीवन के अनेक मौलिक रहस्य के सम्बन्ध में जिज्ञासा, अनुसन्धित्सा, अनुभूति तथा उपलब्धियों का स्वर स्वरित होता है। अपितु, सृष्टि एवं इसके सृष्टा, इसकी नियति, इसका विधान एवं इसकी परिणति के विरुद्ध एक विद्रोही आत्मा की कटु भर्त्सना एवं प्रतिवाद उनकी कविताओं में दृष्ट होता है। यदि उनकी लेखनी मानवीय जीवन के अनुराग, अभीप्सा, विरक्ति, विपन्नता, अंतर्द्वन्द एवं अनुप्रेरणा अभिव्यक्त करती है अन्येक दिशा में सामाजिक अंकुश, असंगति, अधिकारवाद, बद्धता में रहते हुए व्यक्ति के आत्मपीड़न की ज्वाला एवं उसकी अनुभूति की उच्चाटता को भी अभिव्यक्त करती है।
उनकी कविताएँ कालजयी हैं क्योंकि प्रत्येक कालखंड के पाठकों के मन को उसी प्रथम नूतनत्व से ही स्पर्श करती हैं उनके भाव अनुरूप।
जैसे हमें यह ज्ञात है कि इस प्रकृति का सौंदर्य, माधुर्य का रहस्य, उनकी तूलिका से प्रवाहित अनंत लालिमा, मधुर मूर्छना, हरित पर्णों पर लिखित स्वर्णिम रश्मियाँ तथा नक्षत्रमय नभ पर विकीर्ण रजत रंग, सब कुछ कविता ही है . . . ईश्वर की रहस्यमयी कविता . . .। यदि कविता में रहस्यात्मकता एवं सांकेतिकता नहीं है तो वह कविता अलंकार रहित, शृंगार रहित विद्रूप असंपूर्ण नारी के समान है। उनकी कविता ‘इस नदी तट पर’ की कुछ पंक्तियाँ:
इस नदी पर
कहीं एक गीत
सो रहा है,
इस उपत्यका के तमस में
सूर्य का हो रहा रक्तस्राव
भग्न तरिणी के भग्नावशेष
हो जाते हैं एकत्रित
तुम मेरे आलिंगन में
एक दीपक कर प्रज्जलित
स्मृति के सभी संकीर्ण पथ को
करती आलोकित . . .।
पद्मभूषण रमाकांत रथ की कविताओं में दिगंत व्याप्त आध्यात्मिकता एवं मानवीय संवेदनाएँ दृष्ट होती हैं। प्राचीन, अर्वाचीन, अत्याधुनिक कविताओं में कवि रमाकांत की लेखनी की भूमिका चिरस्थायी प्रेरणा है। उनकी कविताओं में सामाजिक क्षोभ भी परिलक्षित होता है। उनकी कविता लालटेन (लंठन) एक बहुचर्चित तथा मननशील कविता है। इसमें कवि, व्यक्ति के हृदय में एक अव्यक्त निभृत कोण से संचरित होते हैं। इस कविता में कवि चित्रकल्प के माध्यम से आधुनिक मनुष्य की यांत्रिक दिनचर्या की काम, क्रोध, निराशा, ज्वलन, क्षोभ, विद्रोह आदि को चुम्बकीय स्पर्श देकर दर्शाया है। कविता साहित्य के समालोचक पतित पावन गिरि, कवि रमाकांत की कविता में आर्त्त, दुष्ट, विचारहीन मनुष्य के स्वर सम्बन्ध में कहते हैं कि हमारी सामाजिक पृष्ठभूमि पर एक व्यक्ति उसकी दिनचर्या में जो जीवन निर्वाह करता है उसी प्रकार उसकी नैतिकता, सांसारिक ज्ञान एवं उसके जीवन का मूल्यबोध प्रतिभासित होता है। समाज व राष्ट्र की जन कल्याण नीति के माध्यम से ही एक वृहद् तात्पर्यपूर्ण जीवन उदभासित होता है, इसी भाव विचार को अपनी प्रतीकधर्मी व सांकेतिक अर्थपूर्ण शब्दों से निर्मित कर इस कविता में इंगित किया है।
‘लंठन’ कविता का हिंदी अनुवाद (लालटेन) मेरे प्रथम अनूदित सॉनेट संकलन ‘प्रतीची से प्राची पर्यंत’ में लिपिबद्ध है।
लालटेन (सॉनेट)
मिट्टी का तेल, कुछ कीट, अग्निशिखा, धुएँ का आकार
ये समस्त होते हैं एक धात्विक परिवेष्टन में एकत्रित
इस आवरणहीन धात्विक पात्र में अग्नि-समुद्र के ज्वार
वीभत्स अंधकार में ऊर्ध्व लाँघ कर होते हैं प्रज्वलित।
अग्नि है जलती, लौह-पात्र की परिधि में रहती अनुव्रत
कौतुकागार के व्याघ्र सम क्रूर अग्नि होती प्रतीत शांत सी
कदाचित् है वह अज्ञात कि कैसे हुआ यह लालटेन उत्तप्त
कदाचित् है वह अपरिचित इस कृष्ण-लौह-पात्र से भी।
तुम वही हो जो वर्षा की तंद्रा को सदा रख पलकों में
व नेत्र-गोलकों के संचलन हेतु हो करती कठिन श्रम
व गहन-केश में एक चम्पक पुष्प गूँथ लिया है तुमने
क्या तुम कभी देख पाती हो मेरे जलते अस्तित्व का मर्म?
क्या तुम कर पाओगी अनुमान मैं तीव्र कष्ट हूँ सह रहा?
आधी धोती-इस्तरी किए हुए आधे कुरते में हूँ रह रहा?
कवि रमाकांत रथ ने श्वास के आरोह अवरोह में सदैव जीवन की उन स्थितियों को सहन किया जिसमें एक साधारण मानव अपनी चिंताशक्ति से पराजित हो जाता है। उनके कार्यकाल में एक बार उनके वसभवन पर मिथ्या तथ्य के कारण छापा मारा गया . . . यह उनको सह्य नहीं हुआ। उसी क्षण उनके मन में यह विचार आया कि यदि वह सत्य पथ पर हैं तो एक दिन वह निर्दोष प्रमाणित होंगे एवं ऐसा ही हुआ, एक/दो वर्ष में वह सरकार द्वारा निर्दोष प्रमाणित भी हुए।
उस समय की उनकी एक कविता ‘केजाणि’ (नहीं है ज्ञात) की कुछ पंक्तियों में यह ज्ञात होता है कि वे कितने विचारशील थे एवं मृत्यु के प्रति उनके भाव में निर्लप्तता थी एवं स्वयं पर प्रगाढ़ विश्वास था:
आत्महत्या करने हेतु
अनेक बार मैं आया हूँ,
किन्तु प्रति बार मैं सशरीर
लौट जाता हूँ,
क्योंकि यह निश्चित
नहीं कर पाता
कि मैं अब मर जाऊँ
अथवा कुछ दिन पश्चात्?
कब मरना उचित होगा—
दिन में अथवा अर्धरात्रि में?
क्यों ऐसे किया
एक पत्र में कारण लिख दूँ
अथवा और कोई
व्यर्थ कार्य में
हस्तक्षेप न करूँ . . .?
उद्धृत पंक्तियाँ उस कविता की हैं . . . जिसमेंं कवि एक साधारण व्यक्ति के मनोभाव की छवि, नकारात्मक स्थिति में किस प्रकार होगी यह दर्शाया है।
‘लालटेन’, ‘नव गुंजार’, ‘अरुंधती’, ‘बाघ शिकार’, ‘बूढ़ा लोक’ व ‘धर्मपद र आत्महत्या’ इत्यादि कविताओं में विविध प्रतीकों एवं चित्रकल्प के माध्यम से कवि रमाकांत रथ ने आधुनिक मानव की जीवनानुभूतियों को व्यंजनात्मक लेखनी से रचित किया है; जो उत्कलीय कला, संस्कृति एवं परंपराओं का मानवीय मूल्यांकन तो करती ही है। साथ ही तत्कालीन सरकारी कार्य पद्धति व निष्प्रभ शासन व्यवस्था का भी साहित्यिक व्यंग्य के माध्यम से चित्रण करती है।
उन्होंने अपनी काव्य पुस्तक ‘श्री पलातक’ के मुखबंध में यह लिखा है कि “यदि अतीत में विचरण करने का लक्ष्य एक विडंबना है, तो भविष्य का अभिलषित लक्ष्य कितना वास्तविक है! अभी तक अप्राप्ति में कुछ प्राप्त करने की कामना के अतिरिक्त किंबा कुछ व्यक्तियों की परिकल्पना के अतिरिक्त, इसकी और क्या भित्ति हो सकती है? वही परिकल्पना किसी की साधना-प्रसूत हो सकती है . . . किसी की अनुभूतिसिद्ध भी हो सकती है किन्तु तुम्हारे भविष्य का लक्ष्य हो सकता है यह मानने में कितनी यथार्थता है! उससे अधिक वास्तविक है तुम्हारी स्वयं की अनुभूतियों की अवस्था। काल प्रवाह के नियमानुसार, अतीत में पुनः अवस्थापित होना यदि असंभव है, तो भविष्य के अंतिम चरण पर आकर तुम्हारे अस्तित्व का होना क्यों माना जाएगा? यदि तुम्हारा कहीं पहुँचना है नहीं तथापि तुम्हारे एक लक्ष्य पोषित करने से निवृत्त नहीं हो सकते तो, अतीत में अनुभूत एक संतुष्टि एवं कुछ बोधगम्य सम्भावनाओं में सम्पूर्ण अवस्था को सतृष्ण नयनों में देखते रहने में क्या विडंबना थी?” कवि वास्तव में यथार्थवादी थे।
कविता लिखना जैसे उनके भाग्य में ही लिखित था। कविताएँ स्वयं उनके हृदय व आत्मा को स्पर्श करती हुई शब्दों में रूपांतरित हो जाती थीं। ओड़िआ कविताओं को सर्वभारतीय स्तर पर उन्होंने एक स्वतंत्र परिचय प्रदान किया था। वह कहते थे कि “हमारी मातृभाषा गुणवत्ता के स्तर पर अत्यंत उच्चकोटि की है, अन्य भाषा अथवा अन्य विदेशी भाषा की तुलना में”। विदेशों में भी कवि रमाकांत रथ अत्यंत लोकप्रिय थे। उन्हें अतुलनीय श्रद्धा एवं सम्मान भी प्राप्त हुआ है। वह कहते थे कि यदि मानव हृदय कोमल एवं संवेदनशील न होगा तो वह कभी कवि नहीं बन पाएगा। उनकी कविताएँ आश्चर्यचकित करती, निहित अर्थ के अलंकार से अलंकृत हैं।
विद्यार्थी जीवन में उनकी रचित कविताएँ जितनी लोकप्रिय थीं एवं ओड़िशा की विभिन्न सुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थीं, उतनी ही उनके कार्यकाल में रचित कविताएँ मानवीय जीवन की दैनिक व साधारण स्थितियों की वास्तविकता को परिभाषित करते हुए समकालीन पत्र पत्रिकाओं का शोभावर्धन करती थी।
अनेक कोठरी, नव गुंजर, संदिग्ध मृगया आदि काव्य संकलन में कवि रमाकांत की अमृतमय आत्मा मानव के न केवल दुःख एवं दुःख जनित अहेतुक परिस्थितियों का चित्रण किया है, उस समय की सांसारिक तथा मध्य वर्ग के व्यक्ति के जीवन में आते संघर्षो का वर्णन अद्भुत चित्रकल्प एवं प्रतीकों के माध्यम से वर्णित होते भी दृष्ट होते हैं।
कवि कहते थे “मेरे शब्द संभार इतना समृद्ध नहीं है, तथापि पाठकों के हृदय को स्पर्श करना मेरी अवांछित इच्छा है . . . प्रयास है। मेरे कथ्य में छल अथवा व्यंजना नहीं है।” उनका एक विशेष गुण था कि प्रशंसा की अपेक्षा रखे बिना कर्त्तव्य पथ पर निरंतर अग्रसर होना।
वह कविता लिखते समय मुक्ति ढूँढ़ते थे। हृदय की ज्वलन को निर्वापित करने पर्यंत कविता की यंत्रणा को सहन करते थे। अपने प्रशासनिक सेवा कार्यकाल में ओड़िशा के विभिन्न आदवासी क्षेत्रों में उनका स्थानांतरण हुआ, राजनेताओं के संस्पर्श में भी रहे किन्तु कोई भी असत्य, जटिल स्थितियाँ अथवा प्रतिकूल अवस्था उनकी कविताओं के स्रोत को नियंत्रित नहीं कर पाई।
16 मार्च 2025 को जब यह सूचना मिली कि कवि रमाकांत रथ स्वर्गाभिमुख यात्रा में है, तब उनकी ओड़िशा समेत देश, विदेश, चतुर्दिशाओं को उद्वेलित करने वाली 1992 में सरस्वती सम्मान से सम्मानित महाकाव्य श्रीराधा की एक कविता स्मृति पटल पर स्वतः आ गई। इस कविता का अनुवाद करते समय ऐसा अनुभूत हुआ जैसे किसी अनंत शून्यता में रक्त प्रवाह हो रहा हो, जैसे अंतरिक्ष पर्यंत एक अदृश्य किन्तु एक दीर्घ पथ लंबित है जिसका कोई अंत नहीं, जैसे कोई अपने विस्तृत भुजाओं में भर लेने के लिए प्रतीक्षा तो कर रहा है परन्तु, एक महादीर्घ दूरत्व है . . . अवर्णनीय शून्यता है।
कविता (12)
केवल हम दोनों ही थे एक नाव पर
मुझे केवल इतना स्मरण है
कि उन्होंने मुझे बुलाया था
स्मितहास से . . कोमल स्पर्श से . .
नाव पर पाँव रखते ही
वह नाव को बढ़ा ले गए . . .
वह नाव कहाँ जा रही थी,
मुझे नहीं था ज्ञात,
कदाचित् वहाँ,
जहाँ आकाश का होता अंत
अथवा वहाँ जहाँ प्रतिक्षण
नव्य रूप लेती हुईं
आशाओं का अंतरीप
हो रहा था दृश्यमान।
मैं थी संपूर्ण अवचेतना में।
क्रमशः दृष्ट होते नदीतट, वन, जनवसति
समग्र दृश्य हो रहे थे अदृश्य
अंत में केवल दृष्ट होते थे
उनके भिन्न-भिन्न वर्ण।
अब सब कुछ है अदृश्य,
नदी व नदी में बहती नाव भी
आकाश भी हुआ अदृश्य,
सूर्य, चंद्रमा अथवा नक्षत्र
थे या नहीं, निश्चित नहीं था।
केवल वह होते थे दृश्यमान
चतुर्दिश केवल उनका ही रूप
उनकी सत्ता,
मेरा बारम्बार जन्म एवं
मेरी बारम्बार मृत्यु
कहाँ कैसे अदृष्ट हो गए।
कई बार मना करने से भी
उन्होंने स्पर्श किया मेरे
आत्मविस्मृत यौवन को,
अकस्मात्, समस्त संभ्रम
समाप्त हो गए,
दूर कर दिए मैंने
मुझे आच्छादित करते
समस्त अनुयायी अभीप्साओं को।
क्षणिक में, मैं थी वहाँ
जहाँ था गहन अंधकार,
जहाँ नहीं होता नाम,
न समय, समस्त आकृतियों की
पूर्वापर निश्चिह्नता
व्याप्त हो रही थी
दिग-दिगंत पर्यंत।
मैं वहाँ आ गई थी
अनेक युगों की यात्रा करती हुई,
जहाँ कोई आकार नहीं था,
थी केवल चेतना,
जैसे एक समुद्र
जिसका न कोई तट होता
जो होता है अतल।
एक के पश्चात् एक नक्षत्रमंडल
ज्वार से ऊर्ध्व हो रहे थे उत्थित
स्थावर-जंगम
हो रहे थे निश्चिह्न
उस तरल प्रकाश में।
मैं भी स्वयं कई बार
एक ज्वार सी हुई हूँगी उत्थित
एवं कई बार हुई हूँगी
अंश-अंश में विभाजित
अब कई बार किसी
लुप्त नदी तट पर
गीत गा रही हूँगी।
कितनी जलवायु में
कितनी पोशाकों में
हुआ होगा मेरा आगमन
व प्रत्यागमन
एवं प्रत्येक बार
निस्तब्ध हो गई होगी
दिगंत विस्तृत मेरी
सुच्यग्र की पृथ्वी।
सब कुछ हो रहा था स्मरण
मैं आगमन-प्रत्यागमन से
हो अत्यंत क्लांत
उनके वक्ष पर सो गई
कौन पिता, कौन पति
सब कुछ हुआ विस्मृत
उनके संग नौविहार में।
जो भी मैं कह रही हूँ
क्या यह समस्त शब्द
हैं प्रतिध्वनि?
किंबा पक्षियों के कलरव
पवन का शु-शु शब्द
प्रतिध्वनि मेरे उच्चारण में?
नहीं थे वह पूर्ववत्
अजस्र आकृतियों में
एक आकृति सा,
किसको करती प्रश्न मैं
कि मैं जीवित हूँ अथवा
मेरी मृत्यु हो गई है?
नौका-दुर्घटना में
अथवा किसी अज्ञात व्याधि में?
कुछ समय पश्चात्
नाव थी तट पर।
मैं नाव से उतर आई।
प्रत्यावर्तन के समय
क्यों हो रहा था यह अनुभूत
कि मेरी देह निष्प्राण हो चुकी है,
ऐसा हो रहा था प्रतीत कि
जैसे अनेक युगों के बँधन से
मेरे पाँव बँध गए हैं
जहाँ भी जाओ, वही
अपरिष्कार अपरिवर्तित
नदी घाट पर नित्य होगा
मेरा आगमन।
पुनः आएगी रात्रि,
प्रत्यागमन के पथ पर
निष्प्रभ स्वप्नों के मृत शरीर से
टकरा जाऊँगी,
कितने समय पर्यंत सुनूँगी
नदी तट पर कोई
विदाई दे रहा होगा।
इस अद्भुत काव्य शैली में साधारण पाठक को चिरंतन आनंद की प्राप्ति होती है। आध्यात्मिक स्तर पर यह चिंतन राधा का अस्तित्व कृष्ण के अस्तित्व से वास्तविक रूप से कितना जड़ित है . . .एकात्म है . . . यह प्रतिपादित करता है। किन्तु कवि रमाकांत अपने शब्दों को ध्वनि एवं अव्यक्त भाव से मुक्त नहीं कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं . . . क्योंकि कवि कहते हैं कि जब राधा असाधारण होने जा रही थीं, जब अत्यंत सुंदर व अनन्य होने की स्थिति में स्वयं को अर्थपूर्ण कर रहीं थीं, तभी मेरा चिंतन उसी स्तर से उसी क्षण लौट आ रहा था।
कवि कैसे यह अपेक्षा रखता है कि उसकी कविता उसकी अनुपस्थिति में जीवंत रहेगी। यह सौभाग्य उसके पूर्व कितने कवियों को प्राप्त हुआ होगा? उनकी लेखनी में गुणवत्ता होते हुए भी वे अभी विस्मृत हैं अथवा विस्मृतप्राय हैं। अतएव इसका भाग्य कैसे पृथक हो पाएगा? कवि रमाकांत कहते थे कि 21/22 वर्ष की आयु में मेरी लिखी हुई कविताएँ आज की मेरी कविताओं से कितनी भिन्न हैं? यदि मेरे जीवंत अवस्था में यह घटित हो रहा है . . . मेरी अनुपस्थिति में मेरी कविताएँ मेरी हैं कहने हेतु कौन होगा?
कवि रमाकांत रथ समाकालीन होते हुए भी कालातीत थे, उनके सृजन सभी पीढ़ी के पाठकों को न ही केवल आकर्षित किया है . . . काव्य-चेतना को एक अद्भुत स्तर दिया है। उनकी लेखनी युगांतरकारी है।
संदर्भ:
-
कवि त्रिनाथ सिंह की काव्यानुवृत्ति ‘निश्वास र कारुकार्य’
-
कवयित्री तथा अनुवादक मोनालिसा जेना-‘रमाकांत रथ, ‘काव्य-व्यक्तित्व र विश्लेषण’
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