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मृत्यु कलिका (सॉनेट-23)

 

इस प्रकार हुए . . . कई ग्रह-उपग्रह विलुप्त 
अणुओं में रक्तकण हुए . . . तप्त-गतिशील
निष्कलंक आत्मा शून्य गर्त में रही सुप्त 
हमारे क्षितिज का आकाश हुआ . . . नील। 
 
अर्ध रात्रि का अपूर्ण स्वप्न . . . हुआ क्षताक्त
प्रतिज्ञा . . . प्रतिवाद . . . प्रतिरोध . . . न कहीं नहीं
अरुणित अरुषी के श्वास में सब . . . रक्ताक्त
नीरव स्वप्न का अंश स्यात् . . . नहीं था कहीं। 
 
कैसी ज्यामिति है! क्षुद्र इस पृथी का व्यास
तुम सदा रहती हो समीप किन्तु अनिश्चित
तुममें रहता है मेरी चेतना का . . . प्रतिवास
तुम होती हो तृष्ण . . . कर स्वयं को शब्दित। 
 
ऐ मृत्यु कलिका! अनादित्व है यह कल्पना
कल्पना में तुम रहोगी बन अनिंद्य अल्पना। 

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