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स्वप्नकुमारी

(सॉनेट) 
 
आकाश ने लिखा है एक पत्र . . दमकते नारंगी अक्षरों से 
किन्तु लज्जानत शर्वरी कह दिया है पवन की लहरों से 
कि उदीची से उदित एक तारिका . . भ्रमित न करे मन को 
शुक्ल हंसों पर आया है पत्र जो करेगा तप्त तृष्ण तन को। 
 
ऐ विभावारी! आज करो प्रतीक्षा . . यह आकाश है प्रेममय 
मेरी सुगंध में है . . तीर्ण मृदुल मृदा की गंध व प्राचीन प्रणय 
करो प्रतीक्षा . . ऐ खगेश्वर! रौद्र से होगा भस्म यह शेष पत्र 
प्रथम नहीं अनेक पत्रों का एक उत्तर, कि प्रेम पर्व है अत्र। 
 
क्षुधित क्षितिज के परिहास से, हो रही मैं . . अद्य असहाय 
नेत्रांबु से करूँ प्रक्षालन, इस शैल शीर्ष का मैं नित्य प्राय 
श्याम रंग से है भीत मुझे, मैं उजास से भी रहूँ . . भयभीत 
कहो, ऐ आकाश! यह मुहूर्त कैसे करूँ संग तुम्हारे व्यतीत? 
 
शीतल स्पर्श से हो रही उल्लसित प्रियंबदा प्रिया तुम्हारी 
प्रीति वल्लरी मैं तुम्हारे प्रांगण की . . हूँ मैं चिर स्वप्नकुमारी। 

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