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प्रेम पर्व (सॉनेट-30) 


 
मंदर पर सप्तरंग का आँचल, सखी, आओ उत्सव गीत गाओ
मदमत्त भ्रमर करे पुष्प संग प्रीत . . . कृष्ण रास संग रच जाओ
मुग्ध मन नृत्य करता . . . है स्निग्ध किरणों में सम्पूर्णतः तन्मय
रूप यौवन का हो रहा तीर्ण . . . गमक रहा . . . कर रहा अनुनय। 
 
प्रेम हो रहा व्यक्त सखी कि रक्तिम हुआ आह! प्राच्य आकाश 
स्वप्नगुच्छ हुआ स्फुटित . . . शतदल के सरोवर में आया प्रभास
पीत रंग ने किया स्पर्श . . . मुखमंडल हुआ स्वर्ण सा अरुणित
मंद-मंद स्वर में कहा प्रेम ने ‘सुनो प्रिया तुममें मैं हूँ प्लावित।’
 
इस नगर में नहीं रहा जीवन यदि . . . स्वर्गीय-सम्भव-सरल
यदि वसंतकुंज में भी . . . समस्त पीड़ाएँ रहीं, सदैव जलाहल 
कोई प्रतिवाद नहीं होगा . . . न होगा मृदु वेणु-ध्वन, न वंशीवट 
दृगोपांत में अश्रुमिश्रित परागरेणु से सिक्त होगा कालिंदी तट। 
 
प्रेम पर्व की वर्तिका हो रही प्रज्वलित . . .जीवन हुआ फाल्गुन 
मन के कोण-अनुकोण में गूँज रही गीतप्रिया की . . . मधुर धुन। 

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