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प्रेम पर्व (सॉनेट-26)

 

लता सी जड़ जाती हूँ यदि तुम्हारे अंग से
नदी सी तीव्र बह आती हूँ यदि लीन होने
पुष्प सी महक जाती हूँ यदि मन मृदा पर
अमृत सी तुम्हारे वाक्यों से यदि जाती हूँ झर, 
 
तड़ित सी दीप्त करती . . .यदि तुम्हारा गगन
चंदन सी यदि . . . शीतल करती तुम्हारा तन
मदालापी की धुन सी यदि . . . तुममें हूँ घुलती
स्वप्न सी पक्ष्म में तुम्हारे यदि सदा विचरती, 
 
श्वास में तुम्हारे यदि होती अस्त होकर उदय 
ऊषा सी यदि अधरों में रहती . . . बन अनुनय 
चिता बन यदि श्मशान को करती सुवासित
बन चन्द्रिका यदि मैं तुम्हें करती आलोकित, 
 
अतएव, मैं हूँ केवल प्रेयसी . . . हूँ अभिसारिका
तुम्हारे स्वर्ग की रंभा . . . मैं तुम्हारी नीहारिका। 

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