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मृत्यु कलिका-सॉनेट 1

 

अभिव्यक्ति नहीं होती शेष कभी अनंतता में
रहें अज्ञात सभी इस पीड़ा की प्रवलता में 
शून्य द्वीप की कदाचित् अतिथि मैं भी बनूँगी
इस झंझानिल में एक शुष्क पर्ण सी मैं भी बहूँगी। 
 
कितनी प्रतीक्षा, आत्मा की भिक्षा . . अपूर्ण र्ईप्सा
सहस्र युगों की मुक्ति में अलिखित अभीप्सा
अंततः क्यों नहीं आती तुम ऐ! अंतिम श्रावणी
नीर से अंबर हो रही प्रथित . . आहा! व्यथा पर्वणी। 
 
अभिशाप की रेखाएँ . . धमनियों से लिए तप्त रक्त 
सजीव हो रही हैं . . आ रहा है समीप एकाकी-नक्त
मंद कम्पन में स्पर्श की अनुभूति . . अनुभूति में स्मृति 
तुम स्तीर्ण हो जाती हो उस स्मृति में बन मौन आकृति। 
 
ऐ! मृत्यु कलिका, मेरे लवणत्व में भरो मदिर मधुरता
उष्ण भस्म में भरो चंपई समीरण की तीर्ण शीतलता। 

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