ऑर्गेनिक हो क्या अब भी तुम
कथा साहित्य | कहानी रेखा भाटिया1 Feb 2023 (अंक: 222, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मम्मी फिर झल्लाकर बोलीं, “क्या कहा बेटा फिर से बोल! आवाज़ बीच में कट रही है?”
मैंने जीभ लपलपाते ख़ुशी में झूमते कहा, “मम्मी! मेरी पड़ोसन ने कल पराठे और खीर भेजी। उसने मेरे डब्बे वापस किए। खीर में बहुत सारा ड्राई फ़्रूट ऊपर से डालकर भेजा। मैंने अकेले ही खीर खा ली . . . बाप रे! बहुत हैवी थी, ठेठ इंडियन स्टाइल में बनी . . . खाकर मज़ा आ गया!”
मम्मी ने पूछा, “तेरे डब्बे लौटने आई थी?”
“मैंने राम नवमी के दिन बहुत कुकिंग की थी। अष्टमी पर दिन में मीरा आंटी के घर हवन पर गए और शाम को बच्चों को गिफ्ट्स देने हिन्दू टेम्पल गए थे। मन नहीं मान रहा था इसीलिए नवमी के दिन काला चना, हलवा, पूरी, पनीर, वेज ज़ाफ़रानी, दही कढ़ी, पकौड़ा, मसाला आलू भिंडी बनाकर भेजा। मेरी पड़ोसन की दो बेटियाँ ही हमारी कन्याएँ हैं यहाँ पर। तुम मेरी फ़्रेंड अर्चना को तो जानती हो न? जब मेरी सर्जरी हुई थी, उसने खिचड़ी और टमाटर की चटनी भेजी थी, उसे भी खाना भेजा। सोचा, उसे ख़ाली बरतन कैसे दूँ? अपनी क्लास में टीचर के लिए खाना लेकर गई, वह इंडियन फ़ूड की दीवानी है और थोड़ा-सा मंदिर भी ले गई। यहाँ बहुत सारे लोग उपवास करते हैं, सोचा आज तो खाना खाएँगे? ले चलते हैं उनके लिए भी।”
मैंने माँ की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास किया . . .
“वैसे भी मम्मी, इस बार मेरी सास के श्राद्ध के दिन शाम को स्कूल से वापस आकर थक गई थी, ‘कुक’ कुछ नहीं किया था। तुम्हें पता है न सौरभ के घर की रस्में? कन्याओं को खाना खिलाना आदि . . . उस दिन थोड़ा ‘डोनेशन’ फ्लोरेंस में तूफ़ान की चपेट में आए पीड़ितों की मदद के लिए भेजा, ज़्यादा कुछ कर नहीं पाई थी। अन्यथा मन ऊपर-नीचे होता है। कुछ करो तो मन को अच्छा लगता है, इंडिया से आदत जो है।”
माँ ने झिड़की देते कहा, “दाढ़ की सर्जरी हुई तो कुछ भी खा लेती, फ़्रेंड से खिचड़ी मँगवाने की क्या ज़रूरत थी, क्यों किसी को तकलीफ़ देना? मैं कितनी बार दाँतों के डॉक्टर के पास जाती हूँ। किसके पास टाइम है आकर देखने का और खिचड़ी लाने का आज के ज़माने में? दूध-ब्रेड खा लेती . . . और यह सब भारी खाना कौन खाता है आज की तारीख़ में? यहाँ पर तो अब बच्चे भी यह सब खाना पसंद नहीं करते! घर पर बैठकर इतना कौन पकाए और सारे ताम-झाम करे, समय किसके पास है? यहाँ तो पास के मंदिर में बच्चे आ जाते हैं। उन्हें बिस्कुट, चॉकलेट्स, पैसे दे दिए, वो ख़ुश हो जाते हैं। अगली बार के लिए तो बच्चे बोल रहे थे पिज़्ज़ा ही मँगवाना। श्राद्ध में भी ब्राह्मण कितनों के घर जाकर खाना खाए, अपॉइंटमेंट लेनी पड़ती है। अब यहाँ इंडिया में रहन-सहन बदल गया है। लोग पहले जैसे रीति-रिवाज़ और परम्पराएँ नहीं निभाते हैं। समय की कमी है सबके पास . . . लोगों ने वहम करना भी छोड़ दिया है। जिसको जो अच्छा लगता है वही करता है . . . और यह डब्बों में क्यों भेजते हो एक-दूसरे को? अमेरिका में तो इतने अच्छे डिस्पोसेबल डब्बे मिलते हैं, उन्हीं में भेजा करो। इतना किसी का एहसान ही क़्यों लेना, जो बाद में भार बन जाए?”
मैं रुआँसी हो गई, “अरे मम्मी! मैं प्लास्टिक के डिस्पोज़ेबल अब यूज़ नहीं करती, मेरी फ़्रेंड भी नहीं करती! हम काँच के बरतन यूज़ करते हैं। मैंने सोचा ख़ाली डब्बा ऐसे कैसे दे दूँ? हम इंडियंस तो ख़ाली डब्बा नहीं लौटते हैं, इसी बहाने थोड़ा कुक भी कर लिया।”
मैंने गहरी साँस ली और नम आँखों से कहा, “एनेस्थीज़िया की वजह से ब्रेड खाने का मन नहीं था, कुछ गरम खाना था . . . मैं पूरे दिन की भूखी थी, यहाँ ठंड बढ़ गयी है। दर्द भी बहुत हो रहा था, तेरी याद आ रही थी। तेरे हाथ की घी वाली खिचड़ी फ़्रेंड से बोलकर मँगवा ली। उसने ख़ुद ही कहा था। मैं भी हर बार उसके पास पहुँच जाती हूँ मदद करने। हमारे पास तो रोज़ की कामवाली नहीं है, परिवार का कोई सदस्य भी पास में नहीं है। थोड़ा-बहुत कर लेते हैं एकदूसरे के लिए वक़्त आने पर!”
मम्मी नर्म-गर्म होकर बोलीं, “मैंने ऐसा क्या कह दिया गुड़िया! जो रो रही है? अच्छा है एक-दूसरे का ख़्याल रखते हो। परन्तु काम भी करते हो। बाई भी नहीं है। बच्चों के पीछे भी इतना टाइम देते हो। जब अब इंडिया में ही कोई ज़्यादा रस्मों-रिवाजों में विश्वास नहीं करता, तुम क्यों अमेरिका में रहकर अपनी लाइफ़ को मुश्किल बनाती हो? याद आ रही थी मैं समझी पर एक दिन ब्रेड खाने में क्या है? तुम तो वैसे भी वहाँ रहकर ब्रेड, ओट्स कुछ नहीं लेती हो? क्या हर वक़्त इंडियन की रट लगाए रहती हो . . . बहुत साल हो गए हैं तुम्हें वहाँ पर। सास को गुज़रे भी बहुत साल हो गए हैं अब। काम से आकर थककर कुक करना . . . बरतन धोना? अरे! यहाँ अब मेहमान घर पर आते हैं तो हम खाना बाहर से मँगवाते हैं, या बाहर ही लेकर जाते हैं। मेहमान भी ख़ुश और बाई भी ख़ुश, नहीं तो काम छोड़कर भाग जाएगी। तू भी थोड़ी स्मार्ट बन गुड़िया? तेरी बहनों और भाभी को देख!”
माँ की बातों का हर शब्द गर्म शीशे की तरह एक कान से पड़ दिमाग़ में खलबली मचाकर दूसरे कान से निकल रहा था। मैंने कुछ भारीपन महसूस किया। बहनें सहेलियों के साथ व्यस्त हैं। बच्चों की स्टडीज़ ट्यूशन से हो जाती है। भाभी बाहर काम करती है, माँ घर देखती है। मैं और सौरभ अपने दम पर यहाँ आए थे, ग़रीब सौरभ की ख़ुद्दारी मुझे धनवान पीहर से हर कर ले आई थी यहाँ।
“मम्मी, अच्छा फ़ोन रखूँ? आज नेहा की इंडियन डांस क्लास है उसे लेकर जाना है, फिर वहीं से उसे गेम प्रैक्टिस पर जाना है। शाम को दिवाली के फ़ंक्शन की भी प्रैक्टिस है,” मैंने तपाक से फ़ोन कॉल कट करना चाहा।
“ठीक है गुड़िया! सिया को भी आज जिमनास्टिक क्लास पर सुहाना लेकर गई है। उसे भी वीक में टाइम नहीं मिलता सो इतवार की क्लास में डाला है। कितना टाइम हुआ है वहाँ सुबह का और सौरभ कहाँ है?”
“मम्मी सुबह के आठ बजे हैं। सौरभ नेहा के लिए नाश्ता बना रहा है और लंच की तैयारी में लगा है। मैं पूरा दिन नेहा के साथ बिज़ी हूँ, सौरभ थोड़ा घर को देख लेगा। फिर बात करवाती हूँ? बॉय मम्मी,” मैंने कहा और कॉल ख़त्म किया।
मेरा उतरा चहेरा देख कौतूहल से सौरभ ने पूछा, “मम्मी क्या कुछ कह रही थी? क्या हुआ?”
“कुछ नहीं! यहाँ आकर इतने वर्षों में मैं ख़ुद को इंडियन रेडीमेड फ्रोज़न पैक समझने लगी थी, एकदम बेस्वादा। परन्तु मैं अब भी ऑर्गेनिक भारतीय हूँ और इंडिया के इंडियंस नॉन-ऑर्गेनिक होते जा रहे हैं। मम्मी यही कह रही थी,” बिना सोचे-समझे मैंने बेरुख़ी में तपाक से कहा, “चलो! नाश्ता बन गया नेहा का?“
“क्या!!” सौरभ की समझ से सब बाहर था।
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सरोजिनी पाण्डेय 2023/02/06 01:07 AM
बढ़िया ! शीशा=glass, सीसा =lead (कहानी में 'पिघला हुआ सीसा 'अधिक उपयुक्त रहता)