मेरा मन समुन्दर बना
काव्य साहित्य | कविता रेखा भाटिया1 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
लगता है मन मेरा समुन्दर बन गया
अपनी ही गहराई को नापने में मगन
क्या-क्या भीतर है उस गहराई में
जान ख़ुद हैरान हूँ कितना छिपा रखा
कभी नींद में जागा होता हूँ तुम्हें देखता
दिल के भरम दूर होते जाते
ख़्वाब में तेरे आने की दस्तक से
यक़ीन होने लगता, हक़ीक़त है यह
कभी बेक़ाबू साँसों को आती तेरी महक
उन गहराइयों से जिनमें तुम्हें ले डूबा हूँ
समुन्दर में उठती मौजें ले चलतीं
उन किनारों पर जिस छोर तुम खड़ी हो
कभी ख़्वाब जगाता है उनींदी आँखों को
ज़िद करता तुम बनो हक़ीक़त
कितने ख़्वाबों में तुम ख़्वाब ही रहीं
कितने जीवन साथ जी लिये ख़्वाबों में
कभी लावा बन फूटता भीतर समुन्दर
तेरे प्यार का ज्वालामुखी धधके अंदर
सोच तुम प्यार से सहलाती बग़ल में बैठ
शरमाती, सकुचाती, नयनों से बतियाती
कभी पायल खनका हाँ कहती
कभी चूड़ियाँ खनका न कहती
कभी तुम्हारे झुमके हाँ–न में उलझाते
कभी छल्ला घुमा लट्टू बना लेती हो
कभी ढलते सूरज की लाली में घूँघट उठाती
सुनामी ढहा देती हो रूप की चाँदनी से
मुस्कराती बिखेरती हो छिपे सीप मोती
मदहोशी का ज्वार चढ़ जाता है मन में
कभी जोगी मन रमा रहता तेरी धूनी लगा
हर भाव की नदी इसी समुन्दर में उतरती
जिस भाव में तू नदी बन मिलती मुझसे
उलझा रहता मैं समुन्दर की गहराई नापता
कभी समुन्दर सूखते हैं सुना है
प्यार का दरिया बहना बंद हो जाये
ढूँढ़ना अवशेष मेरे प्यार के सूखे समुन्दर में
यक़ीन आ जाएगा मेरा मन समुन्दर बना
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