अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

जीवन का शून्य

 

एक मन में आस थी, एक मन में प्यास थी
एक थी आरज़ू और एक स्वप्न था बसा
चल रही थी वक़्त से होड़ एक दौड़ में हम
तय था करना कौन आता है अव्वल इसमें
 
पल-पल वक़्त था बीत रहा और मैं रुकी
तिल-तिल रिस रही थी और सहम रही थी
जल रही थी उस सैलाब को थामे भीतर
पल-पल की टीस से उग रहीं थी भीतर
 
कई उलझनें कैक्टस बन मरू धरा मन पर
उस उमस की तपन से और मन का दरिया
काट रहा था उलझनों के जंगल दलीलों से
भौगोलिक दूरियाँ कई संकेत देती रहीं मुझे
मैं चाह कर, समझकर भी अनदेखा कर देती
 
वक़्त की ज़रूरतों को भविष्य ने छिपा लिया
गर्भ में और नज़रें ही चुराता रहा कहीं न भाँप लूँ
वक़्त से पहले आने वाले कल का परिणाम
बिफर पड़ूँगी क्या यह डर था उसे या साज़िश
 
जानकर कहीं बिफर अपना आपा खो देती
मानसिक संतुलन या बिखरकर टूट जाती
टूटी तो अब भी हूँ, बिखरी तो अब भी हूँ
जीती है मौत निकल भविष्य के गर्भ से
 
प्राणों ने छोड़ दिया साथ दर्द भरी साँसों का
थाम लिया मौत ने, प्राणों को मुक्ति दर्द से
न वक़्त हारा है, न ही वक़्त जीता है और मैं
जीवन के समीकरण में उलझ रही हूँ शून्य से!!! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं