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पराक्रम की गाथा

 

आज कुछ स्वर फिर उठे वातावरण में
गूँजी चीत्कारें अजीब मंज़र था
सुन जिन्हें चीख-चीत्कार मची ज़ेहन में
उस पर थोपा जा रहा है एक और निर्णय
जाना ही होगा वहाँ दुनियादारी निभाने
 
कोई सुनवाई नहीं है उसकी यहाँ
कोई सुनवाई नहीं है उसकी वहाँ
वह पूछ रही है फिर से उस अदृश्य से
जिसमें उसका विश्वास है
युगों से नारियाँ विश्वास ही तो करती आई हैं 
यही उसने देखा था
 
वह पूछ रही है ख़ुद से भी
आख़िर कब तक वह इस तरह लताड़ी जाएगी
मार दिया जाता है उसे जीते जी
कई बार, बार-बार, घर-परिवार-समाज में
उसी से सारी अपेक्षाएँ और उसी की उपेक्षा
वह टूटती है, बिखरती है फिर सिमट
जोड़ती है ख़ुद को हर दिन फिर से टूटने के लिए
 
क्यों होती है नारी इतनी सहनशील
वह नाराज़ रहती है, चिड़चिड़ी हो जाती है
कुंठाग्रस्त, निराश लेकिन
अब भयभीत नहीं होती
उसमें दृढ़ता है बहुत
उसे विश्वास है उस पर हाथ उठाना मुमकिन नहीं
यथार्थता बदल चुकी है
कहा जाता है, माना जाता है, सोचा जाता है
नारी सबला है, आत्मनिर्भर है
 
वह उठ खड़ी है, सोचती है, समझती है
समझाती है ख़ुद को, तर्क-वितर्क करती है
एक कोरी धमकी वह भी दे देती है हर बार
बार-बार, उसके तर्कों के आगे
उसकी बौद्धिक प्रगति के आगे
टिकना मुश्क़िल हो जाता है
 
उसका स्वर लहराता है तब
ठीक उसी समय पलायन कर जाता है पुरुष
विवेक जागने से पहले
पुरुषार्थ की सीमाओं से परे
पराक्रम की नई गाथा लिखता
 
वह सूनी दीवारों में, बंद कपाटों के पीछे
थर्रा रही है, ग़ुस्सा रही है
वह आक्रोश में है
बौद्धिकता से आक्रोश से बाहर निकल
उसकी अधूरी, अनसुनी बातों के स्वर दबा 
वह सामान्य होने की भरपूर कोशिश कर रही
आज एक बार फिर उसने बचा लिया है
एक घर टूटने से ख़ुद टूटकर
घर बचा रहेगा, वंश बढ़ता रहेगा
समाज बचा रहेगा, दुनियादारी निभती रहेगी
पराक्रम की इस गाथा का कहीं ज़िक्र नहीं होगा
 
पलायन पुरुष का अधिकार नहीं
पलायन नारी का स्वभाव नहीं
आज कुछ स्वर दबा दिए गए
ख़ामोशी है, सन्नाटा फैला है चारों ओर! 

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