अधूरे संकल्प
काव्य साहित्य | कविता रेखा भाटिया15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
एक होड़, एक भागदौड़ में
सिमटी सहमी ज़िन्दगी
अधूरे संकल्पों की शैया पर
औंधे मुँह लेटी है
तेरे भीतर का गुनगुना सावन
तेरे अचैतन्य में भटक
असंख्य कल्पनाओं को जन्म देता
ख़्वाहिशों और डर का जाल बुनता है
धरा पूरा करती एक चक्र
तेरे जीवन का एक चक्र ढह जाता
घबराकर तू लेता एक और संकल्प
स्वस्थ तन, स्वस्थ मन, खानपान
दौड़भाग तेरी फिर शुरू हो जाती
क्या पता तुझे क्या पल रहा गर्भ में
समय के, धरा के, भविष्य के
कालचक्र के चक्र से परे हैं
ग्रह, नक्षत्र, तारे, सौरमंडल
कल तू वानर था, आज मानव है
कल तू किस रूप में जन्में . . .
एक संकल्प इस ग्रह को बचाने का
हो सके तो ले ले
कल्याण होगा तेरा और तेरे वंशजों का
ऊर्जा के पिंड ग्रह मिटते नहीं हैं!
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