थोड़ी उलझन
काव्य साहित्य | कविता रेखा भाटिया15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
हम हैं उलझे मन के प्रतियोगी
बाहर से कम भीतर से अधिक
अधिक आतुर भागने को आगे
कुछ सोच उसे पाने की ख़ातिर
जो दुनिया बसाएँ भीतर सोचें मन में
चाहते हैं बदले बाहर भी सबकुछ
वैसा ही हो जाए जैसा हम हैं चाहते
भ्रमजाल में आतुर बसाने भीतरी दुनिया
बाहर ज्ञान-गंगा का भंडार भरा
बार-बार चेताते झाँको भीतर गहरा
बाहर कुछ नहीं रखा, सब मिथ्या
भीतर ही बह रही ज्ञान-गंगा
जगाओ चेतना दिशा मोड़ो विचारों की
कभी-कभी दिमाग़ पर ज़ोर पड़ता
आज़माते ख़ुद को बैठ आँखें बंदकर
भीतर अँधेरा बाहर चमकता नज़ारा झलकता
मोह भीतर का बाहर खींच लाता
ऐशो-आराम, दोस्ती, रिश्ते, प्यार
रंगीन है बाहरी दुनिया उल्टा ज्ञान
बाहर भूलभुलैया तो भीतर भी अँधेरा
महीन रेखाओं के बीच उलझाकर
उम्दा रच दी भीतर-बाहर की दुनिया
लाँघ जाओ एक रेखा मिल जाती चेतावनी
प्रभु राज़ बता दो कैसे सँभालते हो इतना
बाहरी दुनिया नीरस रच देते
दया थोड़ी हम पर कर देते
भीतर प्रकाशमान रहता
बाहर का मोह थोड़ा कम होता
इस खेल में माना बाहर रोग हैं बहुतेरे
बस में कर पाना चाहते सभी कुछ
लगा लेते हैं रोग तन, मन, अक्ल को
मन और अक्ल बन जाते क्यों प्रतिद्वंद्वी
दो पैर चलना सीखते साथ एक साल में
अक्ल और मन नहीं सीख पाते सारी ज़िन्दगी
बाज़ारवाद में खुली ज्ञान दुकानें बंद हो जातीं
जो मन और अक्ल दोनों बन जाते एक संस्था
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