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कहानी संग्रह खिड़कियों से झाँकती आँखें

पुस्तक: खिड़कियों से झाँकती आँखें (कहानी संग्रह)     
लेखक: सुधा ओम ढींगरा                  
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन                 
पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेट,बस स्टैण्ड, सीहोर - 466001 (म0प्र0) 
मूल्य: रुपये 150/-                    
खिड़कियों से झाँकती आँखें
 

अमेरिका में अकेलापन भी एक महामारी है जो इंसान को आधा ऐसे ही मार देती है। कोरोना की महामारी, लॉक डाउन ने दिनचर्या और जीवन को झँझोड़ कर पूरी तरह उलट-पुलट दिया। ऐसे में मन को राहत प्रदान करने के लिए किताबें सच्ची साथी होती हैं। सुधा ओम ढींगरा जी का नया कहानी संग्रह 'खिड़कियों से झाँकती आँखों' ने महामारी में सच्चे साथी का स्थान लिया। एक प्रवासी होने के नाते इस कहानी संग्रह ने आत्मविश्लेषण करने पर मजबूर कर दिया। हर रोज़ नए क़िस्से, नए अनुभव भारत के अलग-अलग प्रांतों से आए लोगों से मिलकर होते हैं। सभी की अलग कहानियाँ, अलग चरित्र, स्वभाव लेकिन एक ही बात सब में समान रूप से देखी जाती है जिसका जीवंत उदाहरण हर रूप में सुधा जी के इस कहानी संग्रह की प्रत्येक कहानी में मिलता है। सुधा जी के प्रत्येक कहानी संग्रह की ख़ूबसूरती होती है हर कहानी दूसरी कहानी से अलग होती है और हर कहानी की शैली भिन्न होती है। 'खिड़कियों से झाँकती आँखें' कहानी संग्रह मन की कई आँखों को खोलने पर मजबूर करता है और दिखाता है रिश्तों की असलियत। यहाँ भारतीय देश से दूर, माटी से दूर, अपनों से दूर ख़ालीपन के एहसास से भरे, प्यार को तरसते, बिछोह की ज्वाला को हृदय में दबा कर जीते है, जीते चले जाते हैं। सोचते हैं विदेश में आकर एक बेहतर ज़िंदगी मिलेगी, बेहतर अवसर मिलेंगे। सबसे कठिन समय होता है जब इन इच्छाओं में परिवार की ज़रूरतें, उन ज़रूरतों के बाद उनकी चाहतें, ख़्वाहिशें बढ़ जाती हैं। तब इंसान मेहनत करता बहुत यांत्रिकी-सा हो जाता है। विदेश में रहकर अपने भीतर शून्य पैदा कर लेता है। उस ख़ालीपन और एकांकी जीवन की वजह से जो एक नए देश में, नई ज़मीन पर मिलता है। यह संघर्ष हमेशा दोहरा होता है एक तो नई ज़मीन में ख़ुद को रचाने-बसाने का और दूसरा अपनी ज़मीन को अपने भीतर ज़िंदा रखने का। कुछ वर्ष बीतने पर यह संघर्ष बाद में और भी बढ़ जाता है, एक तो नई ज़मीन से जुड़ाव होने लगता है साथ ही देश, अपनों से दूर होने की वीरानगी भी ताउम्र झेलते हैं। 

सुधा ओम ढींगरा का लेखन लाखों प्रवासी भारतीयों के मन की बात समझाता, मन का हाल बताता, उनके संघर्ष, उनके अंतर्मन का द्वंद्व कहता, उन्हें भारत और भारतीयता से जोड़ने का सार्थक प्रयास है। सिर्फ़ विदेशी धरती पर रहकर जीवन में रिक्तता का वर्णन मात्र और असलियत में जीवन के यथार्थ को, संघर्ष को, यहाँ की संस्कृति, सभ्यता को समझ कर, साथ ही भीतर अपनी ज़मीन को ज़िंदा रखकर सांमजस्य बिठा कर लिखना कठिन कार्य है, उसका सफलता से निर्वाह कर जाना और भी दुरूह होता है। जब आप झूठ को सच मानकर नहीं झूठ मानकर ही उजागर करते हैं। एक लेखक की सक्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि लेखक प्रवासी जीवन को बारीक़ी से जान-परख कर सत्य के कितना क़रीब रखने में सक्षम है, समर्पित, निष्ठावान और संवेदनशील है। लेखिका ने प्रवासी जीवन के संघर्षों के साथ कई प्रश्न उठाए हैं; साथ ही कई सकारात्मक सुझाव भी दिए हैं, जैसे कोई अनुभवी डॉक्टर नब्ज़ पर हाथ रखकर रोग का पता लगाता है, फिर रोग का इलाज बताता है। यह आकलन करने की क्षमता सबके पास नहीं होती। सुधा जी की कहानियाँ पढ़ने के बाद आप उस संघर्ष के अंत को देख पाते हैं। यह कहानियाँ उस मौन को तोड़ती हैं जो मातृभूमि, देश प्रेम, बिछोह, आत्मा, परमात्मा, जन्म, इस सब से परे वर्तमान में जीते प्रवासी भारतीयों का है। पाठक उस मौन संघर्षों को समझ, उन संघर्षों के अंत के बाद वाले जीवन के असली परिपेक्ष्य को भली-भाँति जान पाते हैं। सुधा जी के शिल्प की सुघड़ता है वह दोनों देशों भारत और अमेरिका के समकालीन दौर को, प्रवासी भारतीय मन की विशेष बुनावट को गहराई से समझ कथा-कहानियों का ताना-बाना बुनती हैं। निश्चित करती हैं, दोनों देशों की संस्कृति, सभ्यता, वर्तमान राजनीतिक, समाजिक परिवेश भली-भाँति पाठकों तक पहुँचे। 

संग्रह की पहली कहानी जिसमें नायक के मन की आँखें भी खुल जाती हैं और उसे एहसास हो जाता है इस देश में आकर जब पैसा कमाते हैं तो बदले में हम सिर्फ़ अपने रिश्ते ही नहीं खोते यह देश और भी बहुत कुछ वसूलता है। साथ ही नायक के लिए उसके संघर्ष की परिभाषा भी बदल जाती है, उसे समझ में आ जाता है पैसे कमाने के संघर्ष के साथ और कौन से संघर्ष भी उसे करने हैं... इस कहानी के द्वारा लेखिका ने बुढ़ापे की लाचारी, एकाकीपन और उस एकाकीपन में कुछ पलों के साथ की राहत ढूँढ़ते बुज़ुर्ग जो हर युवा में अपनी संतान की छवि देखते हैं पर गहराई से पकड़ बनाई है। अत्यंत भावुक कहानी।

ग़रीबी जीवन की बहुत बड़ी विडम्बना होती है। एक परिवार को ग़रीबी में कितने अभावों में जीवनयापन करना पड़ता है, निपुण होकर भी ग़रीब संतान को जीवन में कितना संघर्ष करना पड़ता है! उस संघर्ष में उनका जीवन बचपन में खिलने की अवस्था में मुरझा जाता है। ज़रूरतों को पूरा करते-करते... 'वसूली' कहानी में लेखिका ने बहुत बारीक़ी से उस संघर्ष को अंकित किया है। होनहार संतान को अमेरिका आने का मौक़ा मिलता है और वह अपनी मेहनत से तरक़्क़ी करता है। साथ ही परिवार की निर्धनता को दूर करने के लिए, मदद के लिए भाई पर भरोसा कर भारत पैसा भेजता रहता है बिना कोई सवाल किये। उसका भाई भी उसे उसके कर्त्तव्य की याद दिला कर, अधिकार जताकर बहुत पैसे वसूलता है और अंत में उससे और परिवार से धोखा करता है। धोखे को वह हक़ का नाम देता है। भारत में संपत्ति के नाम पर भाई-भाई का दुश्मन बन गया है। परिवारों में झगड़े हो कर खून के रिश्ते टूट जाना यह आम बात है, अक़्सर सुनते हैं। पैसे के कारण धोखाधड़ी भी कोई नई बात नहीं है लेकिन इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने बहुत से और महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर रोशनी डाली है। किस तरह प्रवासी भारतीय पराये देश में, पराये लोगों में भी अपने अस्तित्व को बचाये रखकर अपनी सार्थकता सिद्ध करने की ख़ातिर कितने अधिक घंटे काम करते हैं। भारत में यह जानने की कौन कोशिश करता है? सोचते हैं डॉलर किसी पेड़ पर उगे हुए होते हैं यहाँ; साथ ही अक़्सर अधिकार और कर्त्तव्यों की भाषा वक़्त के साथ बदल देते हैं भारत में।    

प्रवासी भारतीय परिवार के प्रति मोह में इस यथार्थ को अक़्सर नकार देते हैं और सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। इस कहानी में नायक अपनी समझदार पत्नी के समझाने पर यथार्थ का सामना कर उस मोह के आईने को टूट जाने देता है! अपनों को की गई मदद कई बार मजबूरी बन जाती है, वह स्वेच्छा से की गई सेवा या दान नहीं होता। इस कहानी में सुधा जी ने प्रवासियों की मनःस्थिति की बारीक़ी से विवेचना की है। सुधा जी का लेखन हमेशा वास्तविकता का बोध करवाता है। जो साठ से अस्सी के दशक के बीच आए, उनकी मानसिकता हमेशा संकीर्ण ही रही, और वह नॉस्टेल्जिक ही बने रहे। वह प्रैक्टिकल होकर नहीं सारे फ़ैसले भावुक होकर लेते रहे। 

यदि कोई परिवेश बदलने पर भी दिमाग़ के कपाट ज़ोर से बंद कर दे। माहौल को स्वीकारे नहीं। सोच को बदले नहीं, फिर भी परिस्थितियाँ तो बदलेगी हीं। परिवर्तन तो आएगा ही और उसके साथ समझौता नहीं करना, उसे स्वीकारना नहीं कभी 'एक ग़लत कदम' बड़ा बन जाता है। लेखिका ने अगली कहानी में एक बुज़ुर्ग दंपति के जीवनकाल में आए बदलाव, परिस्थितियों में आए बदलाव के घटना क्रम को और पिता द्वारा सोच न बदलने से उनके जीवन में आई विकट परिस्थितियों का चित्रांकन किया है। कहानी के अंतराल में कई गंभीर और भावुक परिस्थितियों के बाद जब कहानी का पात्र शुक्ला जी बुढ़ापे में पूरी तरह से हताश हो जाते हैं। उनके दो बेटे और भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी भारत से आईं दो बहुएँ उन्हें नर्सिंग होम में छोड़ जाते हैं; तब उनका बड़ा बेटा जो डॉक्टर है और अमेरिकन डॉक्टर बहू, जिसे एक समय में शुक्ला जी ने उनकी रूढ़िवादी विचारधारा के कारण बुरी तरह नकार दिया था, बेटे-बहू से सारे रिश्ते तोड़ दिए थे। सत्रह साल तक कोई रिश्ता नहीं रखा; वे उन्हें थामकर अपने साथ घर ले जाते हैं। कहानी का अंत बहुत भावुक कर देने वाला और बेहद सुखद है। उनकी अमेरिकन बहू ना केवल उनके जीवन के ख़ालीपन को दूर करती है बल्कि उन्हें पूरे मान-सम्मान के साथ घर-परिवार का सुख भी देती है। अपने संस्कारों से वह उस बड़प्पन का उदाहरण देती है जिसकी कामना सभी अपने परिजन से करते हैं। एक ऐसा परिवार जिसमें सभी प्यार से रहते हैं, सद्भाव से रहते हैं और एक दूसरे का ख़याल करते हैं। कहानी में एक तरफ़ भारतीय रूढ़िवादी सोच रखने वाले शुक्ला जी हैं, जिनकी पत्नी उनकी रूढ़िवादी सोच के कारण परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देती है। वहीं दूसरी ओर उनकी डॉक्टरों के ख़ानदान से आई अमेरिकन बहू जैनेट बहुत सौम्य और सुलझी हुई, बड़ों का आदर- सम्मान करने वाली बेहद सरल स्वभाव की होती है। इस कहानी से लेखिका ने साबित किया है कि सिर्फ़ त्वचा का रंग, समान भाषा बोलने वाले या समान धर्म के होने या भारत में पला-बड़ा होने से ही अच्छे संस्कार नहीं आते, यह एक ग़लत धारणा है। चार पात्रों की बातों से कहानी वर्तमान से कई बार भूत में चली जाती है और आगे बढ़ती है, धीरे-धीरे कहानी में और पात्र भी जुड़ जाते हैं जैसे जैनेट के पिता के पात्र के माध्यम से लेखिका ने बहुत कुशलता से अमेरिका में बुज़ुर्गों की जीवन शैली और सोच से परिचय कराया है।उनका कहानी कहने का अंदाज़ क़ाबिले तारीफ़ है। पूरी कहानी में दोनों सभ्यताओं के बीच की सोच के अंतर से भी लेखिका ने पाठकों को अवगत कराया है। कहानी एक सूत्र में पिरोयी हुए है। कई कोणों के बावजूद कसी हुई है और कहीं पकड़ ढीली नहीं पड़ती है। 

कई प्रवासी नॉस्टेल्जिक अवस्था में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं। अपनी परंपरागत रूढ़िवादी भारतीय सोच को कभी बदलते नहीं। सत्तर-अस्सी के दशक में पलायन कर आए भारतीय हैं जो परिवारों की ज़रूरत, पैसे की ज़रूरत की ख़ातिर और अधिक अवसरों की ख़ातिर यहाँ आए और यहाँ आकर रच बस गए। बेहतर जीवन शैली, बेहतर अवसर तो उन्होंने पा लिए, परिवार की ज़िम्मेदारियाँ भी बखूबी निभा लीं; लेकिन बच्चों की ख़ातिर या अन्य कई निजी कारणों से भारत वापस नहीं जा सके और एक ख़ालीपन मन में बसा लिया, एक अपराध बोध भीतर में बसा लिया। उनकी सोच में भारत आज भी वैसा ही भारत है जो वह तीस -चालीस साल पहले छोड़ आए थे... उनकी आज भी वही सोच है और वह उसी भारत की कमी महसूस करते हैं। वे यह भूल जाते हैं, इस अवधि में भारत भी बदल गया है। भारत आज मार्डन इंडिया बन गया है। अपनी संस्कृति से लगाव होना ठीक है, वह आपकी पहचान भी होती है लेकिन इतने वर्षों रहने के बाद भी जो आपकी कर्मभूमि है, आपका घर है उसे अपनाने में तकलीफ़ क्यों?

संग्रह में अगली कहानी है 'ऐसा भी होता है' इसे पढ़कर कई प्रवासी भारतीय भावुक हो जाएँगे। यहाँ यह कई बेटियों की कहानी है। लेखिका ने लिखा है बेटियाँ भावुक बेवकूफ़ होती हैं और यहाँ उन्होंने नब्ज़ पकड़ी है समाज की असल बीमारी की। भारतीय समाज में यह बहुत बड़ी विडंबना है जो दशकों से चली आ रही है। बेटियों को बोझ समझाना, बेटी पराया धन होती है। दहेज़ की एक मोटी रक़म देकर उन्हें शादी के बाद विदा किया जाता है। बेटी पढ़-लिख कर डॉक्टर भी बन जाए लेकिन पता नहीं माँ -बाप को अपनी बेटी पर भरोसा क्यों नहीं होता... शादी करवाएँगे तो भी बड़ी रक़म दहेज़ की देकर ही मानेंगे! जब प्रकृति ने कोई भेद नहीं रखा, नौ महीने माँ के पेट में रहने का समय एक-सा तय किया है तो क्यों भारतीय समाज भेद करता है।अक़्सर सुनने में आता है भारत के कई गाँवों में आज भी बेटियों को पैदा होते ही मार दिया जाता है? आख़िर क्यों? जब भारत इंडिया बन गया है, पढ़-लिख गया है फिर भी समाज की सोच बदहाल क्यों है? पढ़-लिख कर बेटियाँ शादी न करें, अपने पैरों पर खड़ी होकर आत्मनिर्भर बन नौकरी करें तब भी समाज को परेशानी! माँ-बाप की मर्ज़ी शामिल कर नौकरियों पर जाएँ तो असुरक्षित है समाज में।   

बलात्कार जैसे जघन्य अपराध होते हैं? जन्म से ही बेटों को क्यों नहीं सिखाया जाता घर से ही कि बेटियों की क़द्र करो। क्योंकि परिवार, समाज स्वयं बेटियों की क़द्र नहीं करता। कहानी बहुत सशक्त है। लेखिका ने कमाल ही कर दिया है इस कहानी में। एक ऐसी बेटी की कहानी जिसका जन्म ऐसे परिवार में होता है जहाँ बेटियों की कोई क़द्र नहीं है। उनकी पढ़ाई का कोई महत्त्व नहीं है। किसी तरह बेटी अपने बूते पर थोड़ा बहुत पढ़ लेती है। परिवार उसकी शादी अपने स्वार्थ के लिए विदेश में करवाता है लेकिन क़िस्मत से बेटी का ससुराल और ख़ासकर उसकी सास बहुत सुलझे हुए होते हैं। बेटी की ज़िंदगी में उसके मायके का दख़ल रहता है। पैसे की माँग बनी रहती है। जिसे बेटी चुपचाप पूरा करती रहती है। जब हक़ की बात आती है तो स्वार्थी परिवार रिश्ते आगे कर बेटी को मजबूर करता है और जब अधिकार की बात आती है तो स्वार्थी परिवार मजबूरियाँ आगे कर देता है। बेटी भी चुपचाप मायके की सब ज़रूरतें पूरी करती रहती है लेकिन धीरे-धीरे मायके का स्वार्थीपन उसे समझ में आता है। रिश्तों का खोखलापन उसे समझ में आता है। उसे समझ में आ जाता है, बिना क़ुसूर किए ही उसे कटघरे में खड़ा किया जा रहा है और वह एक बहुत बड़ा कठोर निर्णय लेती है। वह अपने माता-पिता को एक ख़त लिखती है और उस ख़त के ज़रिये अपनी ज़िंदगी का वह सारा दर्द बयां करती है जो उसे उसके परिवार ने यानी मायके ने दिया है और वह उस हद तक भी जाती है जो एक बेटी के लिए सबसे ज़्यादा कष्टदायी होता है... वह अपने मायके से हमेशा के लिए रिश्ता तोड़ देने की बात लिखती है और आगे मदद नहीं करने की बात भी कहती है। कहानी में कही गई बात 'रिश्ते निभाना जैसे सिर्फ़ बेटियों की ज़िम्मेदारी है और वे उसके लिए मरती-खपती रहती हैं।' समाज की सोच पर लेखिका ने तंज़ कसा है। शादी होते ही बेटी का घर मायका हो जाता है। उसका घर नहीं रहता! सारे रिश्तों को निभाने का दर्द सिर्फ़ औरत की ज़िम्मेदारी ही क्यों होती है? पति शराबी हो तब भी औरत ही ज़ुल्म सहते हुए, परिवार की ज़िम्मेदारी उठाते हुए, नालायक पति से ज़लील होते हुए भी सारे रिश्ते निभाए और यदि औरत शराबी हो तो कितने पति ऐसे हैं जो उस पत्नी संग रिश्ता निभाते होंगे? लेकिन अमेरिका में कई औरतें भी शराबी होती हैं और कई पति-पुरुष पत्नी से अधिक ज़िम्मेदार और सुलझे हुए होते हैं। यहाँ बेटे -बेटी में भेद नहीं किया जाता। माता-पिता बुढ़ापे में अपने घर में रहते हैं, जितना बेटे के घर जाते हैं, उतना ही बेटी के घर भी। 

अगली कहानी है 'कॉस्मिक की कस्टडी'। यह कहानी एकदम भिन्न प्रकार की है। यह कहानी पूरी तरफ़ से यहाँ की कहानी है।

अमेरिका में लोग जानवरों के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। उन्हें अपनी संतान की तरह ही प्यार करते हैं। इंडिया में जानवरों को घर के बाहर रखा जाता है; लेकिन अमेरिका में जानवर घर के अंदर परिवार के एक सदस्य की तरह ही रहते हैं। उनका खाना-पीना, देख- भाल, रूटीन, घर में एक बच्चे की तरह ही उनका ध्यान रखा जाता है। यहाँ तक कि उनका एक डॉक्टर भी होता है। कुत्ता मालिक के साथ जहाज़ में यात्रा करता है। फ़ैमिली पूल में स्विमिंग करता है। गाड़ी में साथ घूमता है। कई होटलों में पालतू जानवरों को साथ लाने की अनुमति होती है। कई बार सड़क पर चलते जब आप अजनबियों को मुस्कराकर अभिनंदन करते हो और उनके पालतू जानवरों से दूर भागने की कोशिश करते हो तब यह बात कई मालिकों को नाग़वार गुज़रती है। 

कहानी के पात्र मिसेज़ रॉबर्ट, बेटा ग्रेग, कॉस्मिक और सुधीर पटनी जो फ़ैमिली डिस्ट्रिक्ट एटर्नी हैं। फ़ैमिली डिस्ट्रिक्ट एटर्नी सुधीर भारतीय हैं, जिसका सपना जज बनने का था। भारत में वह सपना पूरा नहीं हो सका और वह दूर-दराज़ अमेरिका निकल आए। सपनों के पीछे और जो अक़्सर होता है; उसे अमेरिका में जीवन के अलग-अलग अनुभव होते हैं। यहाँ की संस्कृति, सभ्यता, जीवन शैली, लोगों की सोच,परिवार की संरचना, समाज की भिन्न बनावट सब कुछ भारत से भिन्न। सुधीर को कई चौंकाने वाले अनुभव होते हैं अलग-अलग केसों के ज़रिये; जिससे वह कई बार परेशान हो जाता है और सोचता है उसने कोई ग़लत पेशा तो नहीं चुन लिया। सुधीर भारतीय परिवेश में पला है। उसके मन के भीतर कई द्वंद्व एक साथ चलते हैं। दो भिन्न संस्कृतियों के दो पाटों के बीच कई बार असहज महसूस करता है। भारत में वर्ण भेद की वजह से वह जज नहीं बन पाया और अमेरिका आने के बाद जल्द ही उसे समझ में आ गया हक़ीक़त बड़ी सख़्त है। पश्चिम भी रंगभेद और नस्लभेद के अँधेरों से बाहर नहीं निकल पाया है और वह अपने जज बनने के सपने के साथ समझौता कर लेता है।उसका मन उसे कटोचता है वह अपनों से दूर है, जो अक़्सर यहाँ बसे भारतीयों को महसूस होता है। 

इस बार का केस ज़रा टेढ़ा है। माँ और बेटे के बीच में 'कॉस्मिक की कस्टडी' को लेकर केस है। कॉस्मिक कौन है! इस कहानी में यह जिज्ञासा बनी रहती है। दोनों एक दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं। सुधीर को लगता है इस केस में कुछ ना कुछ तितर-बितर ज़रूर होगा। लेकिन जैसे-जैसे केस आगे बढ़ता है सुधीर को समझ में आने लगता है माँ -बेटे का रिश्ता भी बहुत भावुक डोर से बँधा है। माँ-बेटे एक दूसरे से प्यार भी करते हैं और फ़िक्र भी करते हैं, जब परतें खुलती हैं उसे समझ आता है यह रिश्ता भी किसी भारतीय माँ-बेटे जैसा ही है। सुधीर को हैरानी तब होती है जब बेटा माँ को अकेलेपन को दूर करने के लिए किसी पुरुष साथी को ढूँढ़ने को कहता है। यह भारत में एक बेटा माँ से कभी नहीं कहता। मिसेज़ रॉबर्ट भी बेटे से कह देती है जिस्मानी तौर पर उसके पिता उसके साथ नहीं हैं लेकिन मन और आत्मा से हमेशा साथ हैं। ऐसा भारत में सुना है लेकिन यहाँ भी ऐसे लोग हैं। बेटे को जब पता चलता है अकेलेपन की वजह से उसकी माँ अवसाद में जा रही है, उसके बाद कहानी और भी भावुक हो जाती है और एक सुखद अंत के साथ ख़त्म होती है। पूरी कहानी भावों के उतार -चढ़ाव के साथ माँ-बेटे के रिश्ते के प्यार और ठहराव की परतें खोलती है साथ ही सुधीर पटनी के मन के द्वंद्व की परतें जो दो संस्कृतियों के बीच का अंतर है परत दर परत खुलता है। लेखिका ने एक संतुलित और सुदृढ़ कहानी गढ़ी है। कहानी को ऐसे बाँधा गया है, पाठक अंत तक बँधा रहता है और अंत में जान पाता है, कि कॉस्मिक एक कुत्ता है, उसकी कस्टडी का केस था।

अगली कहानी 'यह पत्र उस तक पहुँचा देना' नस्लवाद और रंगभेद पर आधारित है। यह कहानी एक ऐसी यात्रा पर ले जाती है जिस पर पाठकों को विश्वास करना थोड़ा कठिन हो। अमेरिका जैसे विकसित और उन्नत देश में रंगभेद और नस्लवाद! संसार में दबदबा रखने वाला सारे विश्व में आपदा में मददगार देश, जिसमें लोग अलग-अलग देशों से आकर यहाँ बसे हैं, जिनका खुले दिल-दिमाग़ से स्वागत होता है, यहाँ भी ऐसा होता है?

अमेरिका में रंगभेद और नस्लवाद की समस्या, जो इसी के विरोध में चले गृह युद्ध के बाद कहीं दब गई थी। पर वातावरण में विद्यमान है, ऊपरी सतह पर कुछ नज़र नहीं आता। समयग-समय पर भीतर ही भीतर सुलगती चिंगारी-सी सिर उठाती है, पर उसे दबा दिया जाता है। पिछले दो-तीन वर्षों से वह चिंगारी आग पकड़ने के कगार पर आ गई है। महामारी की मार के साथ ही इस चिंगारी ने भी आग पकड़ ली है। रंगभेद की आग में अमेरिका जल रहा है। बहुत सारे पाठकों को कहानी या समीक्षा पढ़कर विस्मय होगा लेकिन यह सच है...

कहानी से ली गयी कुछ पंक्तियाँ 'गन्दी राजनीति जीत गई और सच्चा प्यार हार गया। पॉलिटिशियन किसी भी देश के हों सब एक जैसे होते हैं ', ' कसूर इतना था उसने एक दकियानूसी पॉलिटिशियन की बेटी से प्यार किया ', ' इमिग्रेशन के कागज़ों में ग़लत जानकारी और फैक्ट्स के साथ छेड़छाड़ यानी तथ्यों का अभाव; धोखे और फ्राड का केस तैयार किया गया था','उसके सामान में ड्रग्स छिपा दिए गए।' 'एक बेकसूर, राजनीति, नस्लवाद और रंगभेद की बलि चढ़ गया।' कहानी मस्तिष्क में हलचल मचा देती है। जितनी घुमावदार कहानी है, उसे बयान करने में भी लेखिका ने अद्भुत प्रयोग किया है। एक रोलर कोस्टर की राइड की तरह पाठक कहानी को महसूस करता है।आशंका, डर, बेचैनी, बर्फ़ीला तूफ़ान, डरावने जंगल की घुमावदार सड़क उससे जुड़ी जन्मी भयानक कहानियाँ, ख़राब मौसम में अप्रयाश्चित घटनाएँ, जैनेट और विजय की दर्दनाक मौत, रहस्य और अंत में टॉरनेडो के ज़रिये विजय के पत्र का जैनेट तक पहुँच जाना। पाठक अंत तक हक्का-बक्का, भौंचक्का कहानी के साथ चलता रोंगटे खड़े कर देने वाले अनुभवों से गुज़रता है। कहानी बहुत सशक्त है और बहुत सारी उधेड़बुन के बाद रंगभेद के कई राज़ खोलती है। लेखिका की कल्पनाशीलता यहाँ चरम पर है, एक ऐसी लम्बी रेस का घोड़ा जो हवा से बातें करता कब लाइन क्रॉस कर प्रथम आ जाता है, दर्शकों को पता भी नहीं चलता। भारत में भी धर्म, वर्ण, नस्ल, जात-पात के भेदभाव को लेकर आए दिन राजनैतिक घमासान चलता रहता है। प्रदर्शन, तोड़-फोड़, हिंसा, दंगे भी होते हैं। यह किसी भी देश के लिए हानिकारक है। हर देश की अलग-अलग परिस्थितियाँ, अलग-अलग सरोकार, फिर भी दकियानूसी मानव सोच एक-सी है पूरे विश्व में। लेखिका के जज़्बे को सलाम है उन्होंने कहानी का इतना ज्वलंत विषय चुनकर, उस चुनौती को पूरी गंभीरता से निभाया है। 

अगली कहानी 'अँधेरा-उजाला' इस कहानी के दो पक्ष हैं। अँधेरे और उजाले की तरह। एक कहानी इला की है तो दूसरी मनोज की। कहानी में जात-पात, ऊँच-नीच,भेदभाव किस तरह ज़िंदगियों में दख़ल देकर उन पर नकारात्मक प्रभाव डालता है,इसकी विवेचना बहुत गहराई से की गई है। यह एक इन्फेक्शन है समाज के लिए जिसका अभी तक कोई इलाज नहीं ढूँढ़ा गया है। कहानी का विषय गंभीर है, कहानी भी बहुत गंभीर है लेकिन फिर भी कहानी एक सुखद उल्लास की अनुभूति देती है। भारत में जात-पात, ऊँच-नीच का ज़हर आज भी फैला हुआ है; इसी की आड़ में गन्दी राजनीति खेली जाती है। भारतीय समाज में बुज़ुर्गों का बड़ा मान है लेकिन बुज़ुर्गों की सोच, पुरानी मानसिकता ग़लत भी हो सकती है। इसीलिए कुछ ग़लत बातों को देख आज के युवा उसे बर्दाश्त नहीं करते; वे अपने निर्णय भी खुद लेने लगे हैं, ग़लत बातों का विरोध भी करते हैं। पहले बड़ों का बच्चों के जीवन में अधिक दख़ल रहता था जैसे इला की दादी का उसकी माँ के प्रति अपमान-भरा व्यवहार, घर के नौकरों के प्रति भेदभाव-भरा व्यवहार। इला के पिता उसे समझते थे लेकिन माँ का विरोध नहीं करते थे,पत्नी को चुप करा देते। इला के मन को ठेस पहुँचती थी। उसके मन में विद्रोह पनपने लगा था। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, कहानी में कई उतर-चढ़ाव आते हैं।

पैसे की ताक़त, ऊँची जात की ता्क़त जैसे कई पहलुओं को कहानी में इला के मन के द्वंद्व द्वारा लेखिका ने सफलतापूर्वक अंकित किया है। गंद उठाने वाली सोमा की बेटी वीरां भी लोक गीत गाने में निपुण थी, मनोज की पहली गुरु थी लेकिन मनोज ने कभी उसका ज़िक्र नहीं किया। उसकी प्रतिभा की किसी को पहचान नहीं थी। मनोज का कहानी में दोबारा प्रवेश, तब वह एक बड़ा गायक बन चुका है। इला को पता चलता है उसके माता-पिता की उदारता और महानता की वजह से मनोज कुछ बन पाया है। वह गर्व महसूस करती है लेकिन मनोज के साथ उसकी नज़दीकी का जब परिवार विरोध करता है तब वह परिवार की दोहरी मानसिकता का विरोध कर आक्रोश में घर छोड़ देती है, विदेश आकर बस जाती है। कहानी के इस मोड़ पर लेखिका ने एक और मुद्दा उठाया है संवाद की कमी और दूरियों की वजह से इला की कई ग़लतफ़हमियाँ कभी दूर नहीं होती कि मनोज की दुर्गति के लिए उसका परिवार ज़िम्मेदार नहीं था। इसी ग़लतफ़हमी ने उसके मन में परिवार के लिए सालों तक ग़ुस्सा भर रखा था। वह समझती रही मनोज अँधेरों में खो गया है जिसकी वजह वह है और सारी उम्र एक अपराध बोध से घिरी रहती है। इस बात से अनजान मनोज की ज़िंदगी में जो संघर्ष करने की हिम्मत, प्रेरणा, रौशनी है वह उसी के लिए वादे की वजह से है। नियति के खेल अनुसार वर्षों बाद वह मनोज की बेटी से मिलती है उसे सच्चाई का पता चलता है; लेकिन तब तक बहुत सारा वक़्त गुज़र चुका है। भारतीय समाज में फैले भेदभाव के साथ अमेरिका खुले विचारों वाला समृद्ध देश है। यहाँ जात -पात, ऊँच-नीच, अमीरी-ग़रीबी वाला भेदभाव नहीं है, लेखिका ने उस पर भी प्रकाश डाला है। कहानी में लेखिका ने पंजाबी लोक गीतों, संगीत को ख़ासा स्थान दिया है। लोक गीतों की अपनी ख़ूबसूरती है। यह कला हमेशा ज़िंदा रहनी चाहिए। कहानी के सकारात्मक अंत पर लेखिका ने यह सन्देश दिया है। संपूर्ण कहानी किसी चल चित्र की भाँति पाठकों के मस्तिष्क में चलती बहुत सशक्त कहानी है। कई मुद्दे अपने-आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं चाहे आप उन पर ध्यान दो या न दो लेकिन वह मुद्दे सभी के जीवन को कहीं ना कहीं प्रभावित करते हैं।

अंतिम कहानी है 'एक नई दिशा'; ईंट,गारा, पत्थर, चूना, लकड़ी, लोहा जब मिल जाते हैं तो कई तरह की ऊर्जा पैदा करते हैं, वही उनकी भाषा होती है। मकानों में नकारात्मक और सकारात्मक ऊर्जा होती है, कहानी से ली गई कुछ पंक्तियाँ। महामारी में अब घर ही सुरक्षित ठिकाने बन गए हैं। मकान ही उस ऊर्जा से भीतर पनाह दे रक्षा कर रहे हैं, इस दौर में सब को यह समझ में आ गया है। कहानी में दो कहानियाँ हैं, एक मकानों को दिखाने की यहाँ की रीत और वास्तु से जुड़ी दिलचस्प जानकारी की, जिसका ज़िक्र भारतीय पुरातन ग्रंथों में वास्तुशास्त्र में भी मिलता है। अमेरिका में रेड इंडियंस वास्तुकला को बहुत मानते हैं। भारतीयों की तरह प्रकृति की पूजा करते हैं। घरों में सकारात्मक ऊर्जा के लिए गोलाई का आकार देते हैं। लेखिका ने दो सभ्यताओं की अद्भुत जानकारी और समानता भी कहानी में जुटाई है। 

यह कहानी है मौली की। कहानी के विकास के साथ ही परिस्थितियों से सामना होने के बाद मौली के व्यक्तित्व में एक बड़ा बदलाव आता है। इस सुदृढ़ कहानी में लेखिका ने यहाँ की रियल स्टेट मार्केट में कैसे कामकाज होता है, उस पर भी प्रकाश डाला है। चाइना और इंडिया के कई संभ्रात परिवार जब अपने बच्चों को यहाँ पढ़ने भेजते हैं, तब उन्हें यहाँ बड़ा घर ख़रीद कर देते है और विदेश में अपना धन निवेश करते हैं। वह धन सफ़ेद है या काला है और कैसे निवेश करते हैं,यह एक अलग विषय है। ठीक इसके विपरीत जब यहाँ से नौकरी पेशा वर्ग भारत में घर ख़रीद कर निवेश करते हैं तो वह धन सफ़ेद होता है; क्योंकि यहाँ के कानून के हिसाब से सरकार पहले ही उस धन पर टैक्स ले लेती है। अमेरिका में नेम ब्रांड वस्तुओं का बहुत चलन है, व्यक्ति की संपन्नता की पहचान इन्हीं से होती है। भारत में भी अब यह चलन बढ़ रहा है। मौली की मुलाक़ात जब रीटा और समीर भास्कर से होती है तो उनके पहनावे से मौली को यक़ीन होने लगता है वह भारत के किसी रईस घराने से हैं। लेकिन धीरे-धीरे उनकी बातचीत, व्यवहार से मौली को शंका होने लगती है; क्योंकि वह घर से ज़्यादा उसके हीरों के हार में दिलचस्पी लेते हैं। बार-बार इशारा मिलने पर भी वह अपनी शंका को टालती है और जीवन में कई बार ऐसा होता है। सुधा जी की कहानियों में इंसानी सोच,व्यवहार,मनोविज्ञान की बारीक़ पकड़ होती है, साथ ही वर्तमान परिवेश,इतिहास से जुड़े तथ्य,मुल्कों की सही जानकारी बहुत शोध के बाद तथ्यों के साथ पाठकों तक पहुँचती हैं। एक लेखक इसके लिए कितनी मेहनत करता है, वह प्रशंसनीय है। मौली अपने सरल स्वभाव के कारण हार की असली जानकारी युगल को दे देती है; लेकिन जल्द ही उसे अपनी ग़लती का अहसास होता है तब वह सूझबूझ से असली हार को नक़ली हार से बदल देती है। वही जोड़ा मौक़ा पाकर दूसरी रियल स्टेट एजेंट की हीरे की अंगूठियाँ लूट लेता है। मौली तो बच जाती है लेकिन इस घटना से मौली के भीतर बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाता है। वह समाज कल्याण में पैसा लगाने का निर्णय लेती है। महामारी के इस दौर के अनुसार यह कहानी बहुत सटीक बैठती है। विश्व आर्थिक मंदी से गुज़र रहा है,जो विश्व युद्ध से भी बदतर होने वाली है। पार्टियाँ, समारोह, शादी के कार्यक्रम पर रोक लगने से जीवन में न्यूनतम में भी गुज़ारा हो सकता है। लोगों को समझ में आ गया है। कोई भी देश जब युद्ध, महामारी, आतंकी हमले से गुज़रता है। स्थानीय स्कूल, कॉलेज बंद हो जाते हैं; वहाँ के बच्चों और युवाओं के विकास का इस पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बच्चों की शिक्षा उनके और देश के भविष्य और विकास के लिए अत्यंत ज़रूरी है। मौली का बच्चों को शिक्षित करने का निर्णय, उससे सुधा जी ने कहानी के माध्यम से बहुत बड़ा सन्देश दिया है। कहानी में कहीं भी ठहराव नहीं है और एक अलग दिशा में सोचने का सन्देश देती है। इस कहानी संग्रह की हर कहानी समाज को एक सन्देश देती है।

लेखिका की कल्पना की उड़ान, शब्दावली, वर्तमान के सन्दर्भों में यथार्थ का चित्रण, विषय पर गहरी पकड़, कथा वाचन का ढंग, कहानियों के भीतर घुमाव, रहस्य-रोमांच, भाषा की संपन्नता, कई नाटकीय मोड़, दोनों सभ्यताओं की जानकारी, उनका अंतर तारीफ़ के क़ाबिल है। यही ख़ूबी इस कहानी संग्रह को अत्यंत रोचक और पठनीय बनाती है। इसे प्रवासी साहित्यकार का लिखा प्रवासी कहानी संग्रह कहना उचित नहीं होगा। आज प्रवासी साहित्यकार विश्व की अग्रिम पंक्ति के साहित्यकारों में अपना स्थान बना चुके हैं। भारत के उनके अनुभव और विदेशी धरती पर उनके वास ने, उनके अनुभवों ने उनकी सोच और समझ को समृद्ध कर दिया है। उनकी लिखी कहानियाँ विश्व स्तर की कहानियाँ और साहित्य है। जो हिन्दी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है। 

सुधा जी का उपन्यास और कहानियाँ पढ़कर सोचने पर मजबूर हो गई कि यह कहानीकार की मात्रा कल्पना है या जीवन को बहुत क़रीब से समझकर बारीक़ी से निरीक्षण कर लिखी गईं सच्ची घटनाएँ। सत्य को मखमली घास पर चलकर उघाड़ा गया है, जिससे बुरा नहीं लगता, क़िस्सागोई के साथ चलता जाता है और अहसास करवाता है। आँखों के सामने दृश्य पटल पर कहानी और उसके सभी पात्र अपना-अपना किरदार अदा करते महसूस होते हैं । जीवंतता का उदाहरण सोचने पर मजबूर कर देता है ऐसे लेखक कहानी के कथाकार नहीं जीवन के बुनकर हैं; जो जीवन के विभिन्न धागों को, विभिन्न पहलुओं को आपस में गुँथकर, आपस में बुनकर जीवन रूपी रंगीन कम्बल को साकार रूप देते हैं ।
 

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