अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

धुँधला मनस्मृतियों में

 

इन उदास मुरझाते पौधों को देखती हूँ
गमलों में सूख चुके
कत्थई रंग में ज़र्रा-ज़र्रा सूखे
जी चुके अपना जीवन
कभी मुस्कुराते खिले थे
रंगत से महके
होती थी रौनक़ बग़िया में इनकी सुगंध से
 
सोचती हूँ क्या मेरा बचपन भी
बचपन क्यों धुँधला हो गया मनस्मृतियों में
जैसे भूला-बिसरा गीत गूँजता
मस्तिष्क की स्वर लहरियों में
फीके पड़ गए हैं स्मृतियों के नयन-नक़्श
 
हल्का-सा झोंका याद है झूले का
आँगन में बड़ा-सा मज़बूत झूला बचपन का
कई पेड़ सीताफल के
जिनके अधपके, बेस्वाद फलों को तोड़
छिपा दिया करते थे गेहूँ की कोठरी में
 
तोड़ छिपा लिया करते थे जामफल
पड़ोसी के घर से दीवार फाँद
कभी चोरी में हो जाते कामयाब
कभी पकड़े जाने पर ख़ूब डाँट खाते
कच्चे फल भी मीठे लगते
पड़ोसी बिचारा कच्चा कड़वा
 
आँगन का बुहारना, पानी की छनकार
घाघरों की क़तार और बाल्टी का सरकाना
पानी की टंकियों में उतर बचा पानी
खींच लेना, वही सब्ज़ीवाले, वही फल वाले
पोस्टमैन चाचा, कुल्फ़ीवाला, अख़बारवाला, 
कामवाली बाई, स्कूल की टिफ़िनवाली, 
रिक्शेवाला, बस का कंडक्टर, पानीपुरी वाला
जिससे थोड़ा खट्टा-ज़्यादा मीठा पर बहस करते
एक रुपया में सारा बाज़ार ख़रीद लेते
घर के भिखारी भी वही, दूकान के नौकर भी
 
कुछ बदलता नहीं था सालों तक वही माहौल
चलते-चलते उन्हीं गलियों में, फिर गाड़ी दौड़ाते
कितने वर्ष बिता दिए, सड़क के गड्ढे भी याद रह जाते
तीज, उत्सव, त्योहार भरापूरा बचपन 
 
बचपन सबका होता है मीठा
अब धुँधला मनस्मृतियों में
यह प्रवास का फल है
या सभी के जीवन का वही चक्र
पिघल मोम-सा नई आकृतियों में ढल
बचा है थोड़ा किसी कोने में ख़ाली जार के
एक बादल का टुकड़ा जो जुड़ा है अपनी धरा से
उसी की नदिया का पानी ले उड़ा है दूर अम्बर
अब बरसने को बेताब
 
कत्थई पौधों में पंछी आते हैं ढूँढ़ने
शीत की सर्दी में कीट-पतंगे खाने को
पौधे को क्या याद होती है उसकी रंगत
उसका बचपन, मौसम में लद जाता था
फूलों-फलों से
धुँधलाया बचपन, कत्थई रंग है मेरा
कुछ पंछी शीत में आएँगे इधर देस से
एक बादल का टुकड़ा है मन मेरा
पंछियों का इंतज़ार है कत्थई पौधे को! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं