धुँधला मनस्मृतियों में
काव्य साहित्य | कविता रेखा भाटिया1 Nov 2023 (अंक: 240, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
इन उदास मुरझाते पौधों को देखती हूँ
गमलों में सूख चुके
कत्थई रंग में ज़र्रा-ज़र्रा सूखे
जी चुके अपना जीवन
कभी मुस्कुराते खिले थे
रंगत से महके
होती थी रौनक़ बग़िया में इनकी सुगंध से
सोचती हूँ क्या मेरा बचपन भी
बचपन क्यों धुँधला हो गया मनस्मृतियों में
जैसे भूला-बिसरा गीत गूँजता
मस्तिष्क की स्वर लहरियों में
फीके पड़ गए हैं स्मृतियों के नयन-नक़्श
हल्का-सा झोंका याद है झूले का
आँगन में बड़ा-सा मज़बूत झूला बचपन का
कई पेड़ सीताफल के
जिनके अधपके, बेस्वाद फलों को तोड़
छिपा दिया करते थे गेहूँ की कोठरी में
तोड़ छिपा लिया करते थे जामफल
पड़ोसी के घर से दीवार फाँद
कभी चोरी में हो जाते कामयाब
कभी पकड़े जाने पर ख़ूब डाँट खाते
कच्चे फल भी मीठे लगते
पड़ोसी बिचारा कच्चा कड़वा
आँगन का बुहारना, पानी की छनकार
घाघरों की क़तार और बाल्टी का सरकाना
पानी की टंकियों में उतर बचा पानी
खींच लेना, वही सब्ज़ीवाले, वही फल वाले
पोस्टमैन चाचा, कुल्फ़ीवाला, अख़बारवाला,
कामवाली बाई, स्कूल की टिफ़िनवाली,
रिक्शेवाला, बस का कंडक्टर, पानीपुरी वाला
जिससे थोड़ा खट्टा-ज़्यादा मीठा पर बहस करते
एक रुपया में सारा बाज़ार ख़रीद लेते
घर के भिखारी भी वही, दूकान के नौकर भी
कुछ बदलता नहीं था सालों तक वही माहौल
चलते-चलते उन्हीं गलियों में, फिर गाड़ी दौड़ाते
कितने वर्ष बिता दिए, सड़क के गड्ढे भी याद रह जाते
तीज, उत्सव, त्योहार भरापूरा बचपन
बचपन सबका होता है मीठा
अब धुँधला मनस्मृतियों में
यह प्रवास का फल है
या सभी के जीवन का वही चक्र
पिघल मोम-सा नई आकृतियों में ढल
बचा है थोड़ा किसी कोने में ख़ाली जार के
एक बादल का टुकड़ा जो जुड़ा है अपनी धरा से
उसी की नदिया का पानी ले उड़ा है दूर अम्बर
अब बरसने को बेताब
कत्थई पौधों में पंछी आते हैं ढूँढ़ने
शीत की सर्दी में कीट-पतंगे खाने को
पौधे को क्या याद होती है उसकी रंगत
उसका बचपन, मौसम में लद जाता था
फूलों-फलों से
धुँधलाया बचपन, कत्थई रंग है मेरा
कुछ पंछी शीत में आएँगे इधर देस से
एक बादल का टुकड़ा है मन मेरा
पंछियों का इंतज़ार है कत्थई पौधे को!
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