मेरे अश्रु नहीं बेमोल
काव्य साहित्य | कविता रेखा भाटिया15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
अपने झूठे भ्रम में अब तक मुझे स्वीकार न किया
आस्था न रख पाए मुझमें मुझे यूँ ही नकार दिया
थी मुझमें भी सवेरों की रौशनी अँधेरों को भगाने की
सूरज दूसरे के आसमान का उस पर अधिक विश्वास किया
अपितु जो आरोप लगाए मुझ पर मैंने तो कि थी रक्षा
अपने पूर्ण सत्य की, छोड़ तुम से अधूरे सत्य को तुम्हारे
राम बनी थी मैं रावण राज में सीता बनाना स्वीकार न था
अस्तित्व को कुचलना और अग्नि परीक्षा लगा अपमान था
मेरे भीतर की अग्नि ने ललकारा था मुझे न्याय को
चुप्पी और सन्नाटे में भीतर दुबक सिमटना मेरा स्वभाव न था
क्यों घुटने टेक देती जब सक्षम थी खड़ी होने में
तानों के तीर बींध-बींध कर मुझे घायल कर दिया था
ज़माने में मेरे निष्ठुर होने का ढिंढोरा पीट दिया था
विष का प्याला पकड़ा कहा मान जाओ झूठ को कृष्ण
बन जाओ मीरा, मिट जाओ अन्याय की चौखट पर
कैसे विश्वास कर लेती कब तक चुप मीरा बनी रहती
द्रौपदी की हुंकार पर सोए रहे पाण्डव फिर भी लाज बची
जाग गए थे कृष्ण, लाज उन्हें आई थी मूढ़ अज्ञान पर
एक कुरुक्षेत्र मेरे मन में अब मचल रहा वैराग्य में बहकर
एक और धर्मयुद्ध हो जाने दो मेरी आसक्ति में बहकर
क्षितिज के दोनों पार अक़्सर मैं ही बँट जाती थी
कभी इस पार कभी उस पार के जुए में हारकर
दाँव-पेच का चलन पुराना मत समझो भोग वस्तु मुझे
ठान लिया है मैंने भी चुप्पी साधे रहूँगी रँगे सियारों आगे
मेरे अश्रु नहीं बेमोल बहाऊँ व्यर्थ झूठे अहंकारों पर
वक़्त का दरिया लाएगा समय की मार की बरसात
मद का रंग उतरते ही हुंकार भरूँगी माँ शक्तिशाली जैसी
सीता, द्रौपदी, मीरा की नहीं अपनी कहानी ख़ुद लिखूँगी
विश्वास मेरा अडिग है मुझ पर कर सको तो कर लो
जैसी हूँ वैसे ही स्वीकारो मुझे तो पल में तुम्हारी हूँ
अपितु ताउम्र अकेली अपने स्वाभिमान संग भली हूँ।
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