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समीक्षित पुस्तक: ज़ोया देसाई कॉटेज (कहानी संग्रह)
लेखक: पंकज सुबीर
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन, सीहोर (म.प्र.)

‘ज़ोया देसाई कॉटेज’ कथाकार, ग़ज़लकार, व्यंग्यकार और संपादक पंकज सुबीर का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह है। इससे पहले उनके ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’, ‘महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ’, ‘कसाब डॉट गाँधी एट यरवदा डॉट इन’, ‘चौपड़े की चुड़ैल’, ‘होली’, ‘प्रेम’, रिश्ते’, ‘हमेशा देर कर देता हूँ मैं’ कहानी संग्रह आ चुके हैं। ‘ये वो सहर तो नहीं’, ‘अकाल में उत्सव’, ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ और ‘रूदादे सफर’ उनके उपन्यास हैं। ‘बुद्धिजीवी सम्मेलन’ उनका व्यंग्य संग्रह है। 

‘ज़ोया देसाई कॉटेज’ में उनकी ग्यारह लंबी कहानियाँ संकलित हैं—‘स्थगित समय गुफा के फ़लाने आदमी’, ‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’, ‘डायरी में नीलकुसुम’, ‘खजुराहो’, ‘जाल फेंक रे मछेरे’, ‘ज़ोया देसाई कॉटेज’, ‘जूली और कालू की प्रेमकथा में गोबर’, ‘रामसरूप अकेला नहीं जाएगा’, ‘उजियारी काकी हँस रही है’, ‘नोटा जान’, ‘हराम का अंडा’। 

प्रथम कहानी ‘स्थगित समय गुफा के फ़लाने आदमी’ महामारी कोरोना को लिए है। कोरोना विश्व में आशंकाओं का अँधेरा, दहशत, मृत्यु भय, अंधकार ले कर आया था। जब मृतक शरीर संस्कार के लिए एक के ऊपर एक थप्पियाँ बना कर रखे जा रहे थे। कहानी तीन तरह के लोगों को लिए है। संक्रमण और मृत्यु भय से पराये हुए चतुर अपने, अनासक्त, निस्पृह, घमंडी, स्वार्थी और आत्मकेंद्रित लोग। दोगले, छद्म और ड्रामेबाज़ (अपने) प्रेस रिपोर्टर/ पत्रकार और बेनाम स्वयं सेवक-फ़लाने आदमी। इन अज्ञात, अपरिचित, संवेदनशील अजनबी फ़लाने आदमियों का कोई नाम नहीं होता। लेकिन मानवता इन्हीं के कारण जीवित है। पूरा विश्व इन्हीं से चल रहा है। एक स्थगित सी समय गुफा में रह रहे यह चार लोग ही असली नायकत्व लिए हैं। कहानी में कोरोना हो जाने के कारण पिता को छत के अलग कमरे में कर दिया जाता है। बाहर से ही खाने की थालियाँ, पानी, दवाइयाँ आदि अंदर कर दिये जाते हैं। पत्नी और बेटी नहीं जानती कि कब उनकी मृत्यु हो जाती है। उन की चिंता मृत शरीर से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाने की है। वह समय जब सरकार निष्क्रिय और अपने अनासक्त थे, जब टीवी कवरेज के लिए नाटक, ढोंग किए जा रहे थे, तब अनाम समाजसेवक, यानी फ़लाने लोग ही मृत्युभय को फलाँगते हुए आगे आते हैं। 

‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’ में मित्रगण और सोशल मीडिया की गुलाबी आभासी मायानगरी के लोग नायक राकेश कुमार का व्यक्तित्व द्विखंडित कर देते हैं, उसे मनसा रुग्ण कर मनोचिकित्सक के पास पहुँचा देते हैं। 

‘डायरी में नीलकुसुम’ 35 वर्ष पुराने शुभ्रा के अविस्मरणीय किशोर प्रथम प्रेम की स्मृतियों की कहानी है। दलित विमर्श की कहानी है। दलित के दुख, लाचारी, पीड़ा, अपमान की कहानी है। अँधेरे और उजाले की अलग-अलग सच्चाइयों की कहानी है। माँ के यौन शोषण को देखकर भी दलित बेटा ख़ून के घूँट पीने के लिए विवश है और बेटे के कारण माँ गाँव से निष्कासित हो जाती है। 

यह कह पाना कठिन है कि ‘खजुराहो’ और ‘ज़ोया देसाई कॉटेज’ पंकज सुबीर की ऐतिहासिक कहानियाँ हैं या ऐतिहासिक रस की कहानियाँ हैं, प्रेम कहानियाँ हैं या पितृसत्ता के अधिनायकत्व की कहानियाँ हैं। खजुराहो मध्यप्रदेश का प्रमुख पर्यटन स्थल है और विश्व भर में उन मैथुन मूर्तियों वाले मंदिरों के लिए चर्चित है, जिनका निर्माण चंदेल राजाओं द्वारा दसवीं से बाहरवीं शताब्दी के मध्य करवाया गया था। ‘खजुराहो’ की सुजाता और नेहा एक होटल ‘हवेली’ में मिलती हैं। नेहा के कमरे में मैथुन रेखाचित्रों और वैसी ही शायरी या गद्यगीतों से भरी एक डायरी है। यहाँ स्त्रियाँ विवाहित होने के बावजूद दूसरे पुरुषों के साथ अपने सुख की तलाश कर रही हैं। देहात्मबोध उनके लिए प्रमुख है। यौनावेगों के कारण सारे तटबंध तोड़ स्त्री दरिया की तरह बहना चाह रही है। दरिया ड्राइवर कमर हसन हो या कोई और। इसे नारी विद्रोह भी कह सकते हैं और देह धर्मी पुरुषों की देन मनोरोगों से छुटकारा पाने का तरीक़ा भी, “क्या होगा जब मेरे दरिया को पता चलेगा कि मैं दूसरे दरियाओं से भी गुज़रती रही हूँ। शायद वह मुझे समाप्त ही कर देना चाहे। भूल जाएगा कि मैंने उसे कभी नहीं पूछा कि वह कहाँ कहाँ से गुज़रता है।” 

‘ज़ोया देसाई कॉटेज’ में मांडवगढ़ के अंतिम बादशाह बाज़बहादुर और उसकी प्रेमिका तथा रानी रूपमती (चरवाहे की बेटी) के ‘रानी रूपमती महल’ का ज़िक्र है। आदम खान के आक्रमण के समय बाज़बहादुर हार कर खानदेश भाग गया और रानी रूपमती ने दुश्मन से बचने हेतु ज़हर खाकर जान दे दी। कहानी विदेश से अपने कॉर्पोरेट पति के साथ आई उस उदास सी ज़ोया की है, जो अपने को रूपमती ही मानती है और यहाँ उसे उसका बाज़बहादुर यानी राहुल मिल जाता है। क्योंकि, “इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि साथ कितना रहा, फ़र्क़ इससे पड़ता है कि साथ कैसा रहा। प्रेम को समय से नहीं मापा जाता, एहसास से मापा जाता है।” 

‘जाल फेंक रे मछेरे’ वैवाहिक संदर्भों में अर्थतन्त्र की कहानी है। सकीना बेटे ताहिर को अमीर घर में विवाह के लिए प्रशिक्षित कर रही है। चाहती है कि इंदौर की रहने वाली बिना बाप की इकलौती अमीर बेटी सबा से उसकी शादी हो जाये। बेटे को मछेरे की तरह जाल फेंकने में पारंगत करती है, जबकि इस जाल में लड़की नहीं उसकी माँ आ जाती है, “भाभी सोनमछरी लेने गया मछेरा ख़ुद ही जाल में फँस गया है। ताहिर निकाह की बात कर रहा है—पर सबा से नहीं सबा की अम्मी से निकाह की बात कर रहा है।” 

‘जूली और कालू की प्रेमकथा में गोबर’ कहती है कि कल के सामन्तीय शोषण का स्थान आज अफ़सरशाही ने ले लिया है। तब होरी या गोबर के दुख बहुत बड़े थे, पर थे केवल आर्थिक स्तर पर। आज होरी या गोबर पर होने वाले अत्याचार हर सीमा पार कर चुके हैं। कलेक्टर की कुतिया जूली किसान के देसी कुत्ते कालू के संसर्ग में आती है, इसलिए कालू को गोली मार दी जाती है। किसान का युवा बेटा गोबर इस प्रक्रिया का विरोध करता है, इसलिए गोबर की मुँहजोरी पर सबक़ सिखाने के लिए क्लेक्टर का पूरा स्‍टाफ़ उस पर जानलेवा अप्राकृतिक यौन हमले करता है। 

‘रामसरूप अकेला नहीं जाएगा’ में यान्त्रिकी ने आदमी की, उसके काम की अनिवार्यता समाप्त कर दी है। मशीनों ने खेतीहार मज़दूरों को अलविदा कह दिया है, क्योंकि खेतों में फ़सलों की कटाई के लिए दैत्याकार मशीनें पहुँच चुकी हैं। विद्युतीय वाद्य यंत्रों ने मंदिर में झाँझ, मँजीरा, नगाड़ा बजाने वालों की छुट्टी कर दी है। लांड्री, ड्राई क्लीन वालों के पास कपड़े धोने, सुखाने की ऑटो-मैटिक इलैक्ट्रिक मशीनें हैं। तरखान मशीनों की मदद से चुटकियों में अपना काम निपटा रहा है। चौकीदार का काम सी.सी. कैमरे कर रहे हैं। ऐसे में कामगार रामस्वरूप क्या करे? कहानी मशीनीकरण की देन बेकारी और आदमी के फ़ालतू हो जाने की बात करती है। 

‘उजियारी काकी हँस रही हैं’ निरंकुश पितृसत्ता की और नारी दमन की कहानी है। 15-16 वर्ष की बच्ची ब्याहकर आती है। ससुराल में ‘जिमी स्वतंत्र होई बिगरहि नारी’ स्त्री अनुशासन का मूल मंत्र है। अवधारणा है कि ठोड़ी तक घूँघट निकालना, धीमें बोलना, हँसी की आवाज़ न निकालना अच्छे घर की बहुओं के लक्षण हैं। अगर वह ग्रुप फोटो में हँस दे तो कहा जाता है कि फोटो बिगड़ गई। अगर वह हम-उम्र भतीजे-भतीजियों के साथ खेल-बोल ले तो माना जाता है कि चरित्र बिगड़ गया। अगर वह सुंदर हैं, तो कुंठित पति उत्पीड़न का कोई वार ख़ाली नहीं जाने देता, जबकि ग़ैर क़ानूनी होते हुए भी दूसरी शादी करना पितृसत्ता में सामान्य घटना है। 75 की पत्नी का भी किसी काम से इंकार करना नरक का द्वार खटखटाना है। क्योंकि, “पत्नी का तो दायित्व है कि वह पति का काम करे। इसीलिए तो उसे ब्याहकर लाया गया था।” 

‘हराम का अंडा’ में संतान का इच्छुक जोड़ा डॉ. श्रेष्ठा के क्लीनिक में अपनी मेडिकल रिपोर्ट लेकर आता है और पत्नी में कुछ कमी होने के कारण डॉ. आई.बी.एफ़. की बात करती है। पुरुष धर्म की आड़ लेकर इसे हराम कहता है। मूलतः वह जानता है कि इस प्रणाली पर लाख-सवा लाख ख़र्च करने की बजाय पचास हज़ार में दूसरी शादी कर बच्चा पाया जा सकता है। पुरुष सत्ता अपनी स्वर्ण अंगूठियों, चेन, घड़ी, मोबाइल पर बिना सोचे ख़र्च कर सकता है, लेकिन पत्नी के टेस्टों या आई.बी.एफ़. पर ख़र्च करना उसकी मानसिकता में नहीं है। कहानी यह भी कहती है कि स्त्री उसके लिए सिर्फ़ एक कोख है, वंशफल तैयार करने का साधन है। 

‘नोटा जान’ किन्नर विमर्श लिए है। किन्नर जो समाज के लिए अभद्र, असभ्य और त्याज्य हैं। यहाँ ब्रजेश से बिंदिया बनी, मैट्रिक में स्कूल में डिस्टिकशन लेने वाली, बाहरवीं तक पढ़ाई करने वाली, देश की प्रथम किन्नर जनप्रतिनिधि रह चुकी, किन्नर मुखिया को नायकत्व दिया गया है। बताती है—जैसे ही समाज को पता चला कि वह किन्नर है, उसका शारीरिक यौन शोषण होने लगा। घर छोड़ वह किन्नर समाज में आ गई, लेकिन अनाम रह कर बेटे का तरह माँ-बाप बहनों की लगातार आर्थिक सहायता करती रही। न माँ-बाप ने कभी घर चलने को कहा और न बहनों की कभी उससे मिलने की इच्छा हुई। उनके लिए वह सिर्फ़ नोटा का बटन हो गई, इंसान नहीं। 

‘रूदादे-सफर’ उपन्यास की तरह ‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’ कहानी का डॉक्टर और नायक संगीत में अतिरिक्त रुचि रखते हैं। ‘खजुराहो की डायरी’ काव्यात्मक, गद्य काव्य सी है। कहानीकार की हिन्दी में भूपाली/सीहोरी बोली सहज रूप से घुल-मिल गई है। ‘ढोंड़ चले जै हैं काहू के संगे’ कहानी का शीर्षक ही स्थानीयता लिए है। शब्द—वबा (महामारी) अंग्रेज़ी के आम बोलचाल के शब्दों से कोई परहेज़ नहीं किया गया। 

सूत्रात्मता भाषा को शाब्दिक कौशल से, अर्थ-व्यंजना से, दूरगामी संदेशों से, गहन चिंतन से सम्पन्न कर रही है। जैसे:

  • प्रेम और बरसात जब तक एक ही गति से बरसते हैं, तभी तक अच्छे होते हैं, अन्यथा तो ये उदास ही करते हैं। 

  • प्रेम में होना ही तो बसंत में होना होता है। 

  • कहते हैं कि चंबल का पानी क्रोध को पोषित करता है। 

  • साँप कितना भी लहरा कर चलता हो, उसे सरकारी नौकरी के बिल में घुसा दीजिये, एकदम सीधा होकर चलने लगेगा। 

  • डॉलर, पॉन्डस, दीनारों के चक्कर में देश को छोड़कर चले गए लोग देशवासियों से अधिक देशभक्त हो चुके थे। 

  • आदतें छूटती नहीं हैं, बस होता यह है कि नयी आदतों के पीछे पुरानी आदतें छिप जाती हैं, दब जाती हैं। ज़रा कुरेदो तो रख में से चिंगारी चमक उठती है। 

  • दुनिया का सबसे अपवित्र शब्द पवित्र है। 

  • उड़ना और बहना जीवन में बहुत ज़रूरी है, उड़े बिना पता नहीं चलता कि आकाश का विस्तार कितना है और बहे बिना पता नहीं चलता कि पृथ्वी की सीमाएँ कहाँ-कहाँ तक हैं। 

  • कहानी सब की ऐसी ही होती है, दुख और उदासी से भरी हुई, बस दुख के कारण बादल जाते हैं। 

  • बहुत सुंदर स्त्रियों के हिस्से में सुख नहीं आते। 

इन कहानियों में अपनों का परायापन और परायों की संवेदनशीलता/मानवीयता है। मशीनीकरण, मित्रों और आभासी दुनिया से पगलाया, विसंगति का शिकार आम आदमी है। दलित विमर्श और प्रथम किशोर प्रेम है, किन्नर की वेदना है। देहात्मबोधों की, प्रेम की प्यासी आत्माओं की, निरंकुश यौनाकांक्षाओं की चर्चा हैं। अफसरशाही की दरिंदगी है। निरंकुश और वस्तुवादी पितृसत्ता है। 

डॉ.मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब
13 प्रीत विहार, आर.एस.मिल, जी.टी. रोड, अमृतसर, 143104, पंजाब
 

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