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मुट्ठी भर आकाश की खोज में: ‘रोशनी आधी अधूरी सी’ की शुचि 

समीक्ष्य पुस्तक: रोशनी आधी अधूरी सी
लेखक: इला प्रसाद
प्रकाशक: Bhavna Prakashan (1 जनवरी 2016)
हार्डकवर: 164 पेज
मूल्य: ₹350.00

प्रवासी लेखिका इलाप्रसाद के उपन्यास ‘रोशनी आधी अधूरी सी’ में शानदार भविष्य के लिए जी तोड़ परिश्रम करने वाले शोध छात्रों के स्वप्नों और उन्हें किसी भी मंज़िल तक न पहुँचा पाने वाले शोध संस्थानों, उनकी नकारात्मक राजनीति और भविष्यहीन, कैरियररहित शिक्षानीति पर व्यंग्य है। नायिका शुचि ने रांची से इलेक्ट्रॉनिक्स में एम.एस.सी. की, बी.एच.यू. से पीएच.डी., मुंबई के आई.टी. से पोस्ट डोक्टोरेट के लिए दाख़िला और अमेरिका में बसे आईटियन से शादी। अपनी सारी शैक्षिक डिग्रियों के बावजूद वह एक स्कूल टीचर की नौकरी तक नहीं जुटा पाती। क्या है यह सब? उपन्यास बड़े-बड़े सवाल छोड़ता है। क्या आज युवा का कोई भविष्य नहीं? क्यों वह स्थानीय, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय- प्रत्येक स्तर पर मिसफिट है, विसंगति का शिकार है? विश्वग्राम की अवधारणा और उसमें समाई सांस्कृतिक धरोहर भले ही परिदृश्य विस्तृत कर रही है, त्रासदी यह है कि अपने हिस्से का मुट्ठी भर आकाश अथवा कोई आधी अधूरी रोशनी खोजने में जीवन निकल जाता है। 

‘रोशनी आधी अधूरी सी’ एक युवती के सपनों, संघर्ष, क्षमताबोध और जीवट की गाथा है। उपन्यास नायिका प्रधान है। एक छात्रा, इलेक्ट्रॉनिक्स की शोध छात्रा शुचि के स्वप्नों और उन्हें किसी भी मंज़िल तक न पहुँचा पाने वाले शोध संस्थानों, उनकी नकारात्मक राजनीति और भविष्यहीन, कैरियर-रहित शिक्षा-नीति को लिए है। शुचि युवा है, मन की साफ़ है, परिश्रमी है, पढ़ाई में तेज़ है। वह उस शानदार भविष्य की स्वामिनी होने का स्वप्न लिए है जहाँ उजली भोर, सुनहरे दिन, चमकीली रातें उसकी प्रतीक्षा में होने चाहिए। यह घने कोहरे में आगे बढ़ने, राह ढूँढ़ने के साहस की कहानी है। जबकि सच्चाई यह है कि उसके सपने ख़ुद ब ख़ुद एक धीमी मौत मरते जाते हैं। विफलताओं का अहसास तब होता है, जब उसने अपनी दसों अंगुलियाँ ख़ाली महसूस की, जब पता चला कि वह जीने के लिए एक भी सपने को साकार करने का सुख, एक आश्वासन तक नहीं जुटा पाई, वह आज भी कोहरे में चलते- चलते रास्ता ढूँढ़ रही है। अपने हिस्से का आकाश ढूँढ़ती शुचि जीवन के बीते दस सालों का लेखा-जोखा कर रही है। उसने रांची से एम.एस.सी. की, बी.एच.यू. से पीएच.डी. की, मुंबई के आई.टी. से पोस्ट डोक्टोरेट के लिए दाख़िला लिया और अमेरिका में बसे आईटियन से शादी। वह अमेरिका के वि.वि. में पढ़ाने और शोध का स्वप्न लिए है, लेकिन यथार्थ की खुरदरी ज़मीन उसे घर में क्रेच खोलने या छोटे बच्चों की ट्यूशन करने के लिए ही छोड़ देती है। अपनी सारी शैक्षिक डिग्रियों के बावजूद वह एक स्कूल टीचर की नौकरी तक नहीं जुटा पाती। क्या है यह सब? क्या आज युवा का कोई भविष्य नहीं? क्यों वह स्थानीय, राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय- प्रत्येक स्तर पर मिसफ़िट है, विसंगति का शिकार है? 

उपन्यास तीन शीर्षकों और अनेक उपशीर्षकों में विभाजित है:

1. कोहरा

2. किंदील

3. रोशनी आधी अधूरी सी। 

कोहरा के बाईस उपशीर्षकों के अंतर्गत शुचि का बी.एच.यू. के हॉस्टल में बिताया जीवन है। किंदील के दस परिच्छेदों में मुंबई के आई.टी. में शुचि के बिताए जीवन का चित्रण है। रोशनी आधी अधूरी सी के ग्यारह उपशीर्षकों के अंतर्गत शुचि का अमेरिका आवास/ प्रवास चित्रित है। 

दो उच्च/उच्चतम शिक्षा संस्थानों की कार्य पद्धति, विद्यार्थियों/ शोधार्थियों की मन:स्थिति, शिक्षकों के रवैये और वातावरण में समाई समानता-असमानता का तुलनात्मक अध्ययन लेखिका ने बड़ी बारीक़ी से चित्रित किया है। वर्षों पहले शुचि ने काशी हिन्दी विश्व विद्यालय के ज्योतिकुंज हॉस्टल में पीएच.डी. के संदर्भ में प्रवेश लिया था। इससे पहले की सारी पढ़ाई रांची के स्कूल कालेजों की थी। एम.एस.सी. के अढ़ाई वर्ष बाद ही वह बी.एच.यू. में पहुँच पाई थी। 

उपन्यास कुछ मूलभूत, अनिवार्य या विवरणात्मक जानकारियाँ लिए है। जैसे बी.एच.यू. विशेष सांस्कृतिक पृष्ठभूमि लिए है। इसकी स्थापना महामना मालवीय जी ने की थी। बसंत पंचमी इसका स्थापना दिवस है। इसके पास नखलिस्तान सा भव्य परिसर है। यहाँ काशी नरेश का बग़ीचा है। चौड़ी सड़कें और वट, पीपल, अमलतास, गुलमोहर, पपीते, आम, सहजन, केले, अमरूद, जामुन के पेड़ हैं। बंदर मानों यहाँ के मूल निवासी हैं। विद्या के इस मंदिर के सारे विभाग काशी विश्वनाथ मंदिर जैसे बने हैं। 

मुंबई के तकनीकी संस्थान में सड़क के दोनों ओर जंगल है। राह चलते साँप मिल जाते हैं। बिल्लियाँ डाईनिंग टेबल पर आ बैठती हैं। तरह-तरह के पक्षी हैं। क्षेत्र विस्तार बी.एच.यू. से कम, लेकिन तकनीकी, सुविधा सम्पन्न, सुरक्षित और आधुनिक है। 

सांस्कृतिक चित्रण: 

बी.एच.यू. में भारतीय और आई.टी. में पश्चिमी संस्कृति में डूबा परिवेश है। ज्योतिकुंज हॉस्टल के बरामदे के कोने में मंदिरनुमा जगह पर सरस्वती की मूर्ति है। शुचि प्रथम बार माथा नवा कर ही प्रविष्ट होती है। बसंत पंचमी बी.एच.यू. का स्थापना दिवस है। उस दिन सरस्वती पूजा की जाती है। होली धूमधाम से मनाई जाती है। बाद में मिलकर सविता के कमरे में खाना खाया जाता है।

“चेन्नई की विद्या बड़े-सांभर बना लाई थी। महाराष्ट्र की पूरनपोली शुभा ले आई थी। विभा और निवेदिता चावल सांभर ले आए थे। सविता की पूरी मंडली- मानसी, वंदना, विनीता, संगीता सब थे। दाल- पुलाव, राज माह, आलूदम, खीर, लेमन राइस, गोभी- आलू, टमाटर की मीठी चटनी, आचार और भी जानें क्या-क्या।”1

बनारस का दशहरा, संकट मोचन हनुमान के मंदिर में रात भर चलने वाला नृत्य- संगीत का कार्यक्रम उसे भुलाए नहीं भूलते। 

वैसे आई.टी. के परिसर में भी शिव मंदिर है। यहाँ भी नवरात्रि के दौरान डांडिया रास का आयोजन होता है, लेकिन इसमें लड़कियाँ अपने ब्वाय फ़्रेंड्स को विशेषत: आमंत्रित करती है। होली भी खेली जाती है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जगजीत सिंह, पंडित जसराज, जाकिर आदि को सुना जाता है। टेक फ़ेस्ट और वार्षिकोत्सव में पूरा संस्थान मतवाला हो जाता है। 

अमेरिकी भारतीय समुदाय भी भारतीय दर्शन और संस्कृति से पूर्णत: जुड़ा है। मंदिर और भारतीय उत्सव त्योहारों का आयोजन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। वहाँ शिव मंदिर, विष्णु मंदिर, लक्ष्मी मंदिर, सब हैं। मकर संक्रांति, होली, जन्माष्टमी, गरबा, शेराँ वाली की भेंटें– सब पर भारतीय एकत्रित होते हैं। इसी बहाने परस्पर मिलते-जुलते हैं। रश्मि अपनी बेटी सोनल के जन्मदिन पर पूजा का आयोजन करती है। शेराँ वाली के दरबार में भजन गाये जाते हैं। सभी गाते-नाचते हैं– होली खेलत रघुवीरा, अवध में होली खेलत . . .। ह्यूस्टन में वियतनामी बौद्ध मंदिर है। बिहारिन शुचि जानती है कि कभी बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण ही उसके प्रांत का नाम बिहार पड़ा है। भारत में मिलने वाली बुद्ध की काली प्रतिमा यहाँ आकर वियतनामियों सी धवल हो गई है। 

विश्वग्राम या भूमंडलीकरण में समाया व्यक्तिवाद:         

विश्वग्राम या भूमंडलीकरण की अवधारणा हर ओर है। बी.एच.यू. के इस हॉस्टल में देश के विभिन्न प्रान्तों की छात्राएँ विभिन्न विषयों पर पढ़ाई या शोध कर रही हैं। दिव्या गुजराती है, शुचि बिहारिन, मनीषा दक्षिण भारतीय, विभा तेलगू, निवेदिता और काकोली बंगालिन, अमृता केरल की, मोनिका सिंह यू. पी. की, वीणा शर्मा बनारस की। यह हॉस्टल मानो पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता है। अर्चना आण्विक भौतिकी में शोध कर रही है, वीणा रसायन शास्त्र में एम. एस. सी.। विभा कैमिस्ट्री में है और निवेदिता भौतिकी में एम. एस. सी. करने आई है। अमृता ज्योलोजी में और जया बॉटनी में एम. एस. सी. कर रही है। स्नेहा इंग्लिश में, मोनिका सिंह साइकोलोजी में और सविता कॉमर्स विभाग में हैं। शोध छात्राएँ मनीषा और दिव्या शुचि की सीनियर है- इलेक्ट्रॉनिक्स यानी आण्विक भौतिकी में पीएच.डी. कर रही है। जया बी.एड. कर रही हैं, संजना भूगोल में एम.फिल. कर रही है। बी.एच.यू. की शुभदा साइकोलोजी की वरिष्ठ शोध छात्रा है। विभा जेनेटिक्स में पीएच.डी. कर रही है। मानसी की आत्मीयता में तो उसे अपनी छोटी बहन दिखाई देती है। बी.एच.यू. अपने आप में एक शहर है। दोस्तों का शहर . . .बाँहें खोल भेंटने को तैयार। बी.एच.यू. में सविता जैसी लड़कियाँ हैं, जो स्किज्रोफेनिक सिमी जैसी लड़कियों को आत्महत्या से बचा सकती हैं, अपनी आत्मीयता से जया जैसी लड़कियों को पुनर्जीवन दे सकती हैं। हॉस्टल में एक दोस्ताना, सौहार्द सम्पन्न वातावरण है। 

मुंबई के तकनीकी संस्थान में शुभा दक्षिण भारतीय है, एम.टेक कर रही शुभदा मद्रास से है। सुनयना कम्प्युटर साइन्स में पीएच.डी. कर रही है। भाग्य श्री और रूपाली एम.टेक. की छात्राएँ है। बंगालिन सोमा दत्ता इंडस्ट्रियल डिज़ाइन सेंट्रल विभाग में पीएच.डी. कर रही है। शुभा छोटी बहन सा स्नेह बरसाती है। प्रिया, रूपाली, लेखा, सुनयना, शुभदा, भाग्य श्री, सोमा दत्ता सब हैं, जबकि शुचि को स्पष्ट है कि अकेले चलना सीखना होगा। आर.टी.आई. का वातावरण उन्मुक्त है। किसी के पास दूसरे के लिए वक्त नहीं है। रिश्ते दिल से नहीं दिमाग़ से बनते हैं। हर कोई दूसरे का गला काटने को तत्पर है। बिना किसी से उलझे अपना गणित तलाशना यहाँ अनिवार्य है। कितनी भी दोस्ती हो, अविश्वास के लिए गुंजायश रहती ही है। अपनी ग़लती कोई नहीं स्वीकारता। न वैयक्तिक अथवा अकादमिक जीवन के दाँव-पेंच साँझे करता है। सब अपने स्वार्थ से, अतिव्यस्तताओं से, गोपनीयता से बँधे हैं। रिश्तों में जातीयता या प्रांतीयता न रहकर बौद्धिक समायोजन रहता है। जैसे बिहारिन शुचि की मराठी इन्द्र से शादी होती है। अमेरिका में स्थिति इससे आगे की है। सोनल, अजय, अनु की मित्र मंडली में भारतीय भी हैं और गोरे भी। 

बी.एच.यू. के हॉस्टल में शुचि ने पाँच साल बिताए हैं। यह उसके जीवन का सुंदरतम समय रहा। कालांतर में वह घर जैसा या उससे भी बढ़कर लगने लगा था। वहाँ आर्ट्स, साइन्स, कम्प्युटर, सोशल साइन्स– सभी तरह की छात्राएँ थी। उसने कितने सारे विषयों का ज्ञान एकत्रित किया। सबकी समस्याओं, सबके स्नेह, सबके विश्वास ने उसका दायरा बढ़ा दिया था। जबकि मुंबई के तकनीकी संस्थान में स्थिति भिन्न है। 

“वह बेहद अकेलापन महसूस करती थी उन दिनों। यह अकेलापन बनारस का अकेलापन नहीं था। जहाँ पुराने दोस्तों की जगह नए दोस्तों ने ले ली थी। इस तकनीकी संस्थान में उसका दिल कभी लगा ही नहीं। अविश्वास इतना घर कर गया था कि किसी से जुड़ पाना संभव ही न लगता।“2 

बी.एच.यू. की सविता का मुंबई के इस तकनीकी संस्थान में मिलना ऐसे ही लगता, जैसे नव विवाहिता से कोई मायके वाला मिलने आया हो। 

शोध तंत्र: 

शोध निदेशकों से परिचय या मुलाक़ातें शुचि को अवांछित होने का बोध ही देती हैं। बी.एच.यू. में ब्लैकबोर्ड के सामने चाक पकड़ाकर उसे खड़ा कर महानालायक़ घोषित कर दिया जाता है। जबकि तकनीकी संस्थान में गाइड कहता है, 

“मैं आपको क्यों गाइड करूँ? मुझे क्या फायदा होगा इससे? मैं ऐसे छोटे प्रोजेक्ट लेता भी नहीं।“3 

बी.एच.यू. की श्रुति का कार्य इसलिए लटकाया जा रहा है कि वह गाइड से कोई समझौता नहीं कर रही और आई.टी. की सोमा दत्ता का गाइड उससे लिफ़्ट लेना चाहता है और उसकी असहमति के परिणामस्वरूप पीएच.डी. का चक्का जाम करके रख देता है। महुआ के विभाग में तो सब बंधुआ मज़दूर से हैं। नित्य बारह-चौदह घंटे काम करो। सालों घिसटते रहो। पेपर छपे तो उसमें पहला नाम गाइड का हो। छह साल तो लग ही जाएँगे। अध्यापकों के ग्रुप बने हुये हैं। शुचि बी.एच.यू. में प्रो. रैना की छात्रा है और आर.टी.आई. में प्रो. माशलकर की। अगर रास्तों पर पत्थर बिछाने के लिए बी.एच.यू. में प्रोफेसर कुंद्रा हैं, तो आई.टी. यू. में प्रोफेसर अहमद। शुचि जैसी छात्राएँ कहीं भी हों, उन्हें तो पिसना ही है। दो पाटों के बीच में साबुत बचा न कोय। कभी फ़ंड की कमी के कारण और कभी विश्वविद्यालीय राजनीति के कारण शोधार्थी सताये रहते हैं। वहाँ भी लैब में एक अधूरापन है, यहाँ भी। बी.एच.यू. की तरह आर.टीआई. में शोध के संदर्भ में लड़कियों के लिए कोई अलग कमरे नहीं होते। रिसर्च स्टाफ़ रूम में बैठा हर शोधार्थी अपने को विशिष्ट समझता है। यह साबित करने पर तुला है कि उसे सब आता है, दूसरों को कुछ नहीं और यह कि उसका गाइड भगवान है। 

बनारस का बी.एच.यू. हो या मुंबई का तकनीकी संस्थान। शिक्षक/गाइड पुरुष ही हैं। सिर्फ हॉस्टल वार्डन (और गणित की प्राध्यापिका) नीना बैनर्जी या मैडम अरोड़ा ही स्त्री है। आम अवधारणा है कि लड़कियाँ अच्छी शोधार्थी नहीं हो सकती। यदि किसी ने अच्छा शोध किया तो उसे उसके गाइड की मेहनत कहा और माना जाता है। 

स्त्री:

उपन्यास नारी विमर्श पर नहीं है, किन्तु स्त्री जीवन की क्रूर सच्चाइयाँ यहाँ चित्रित हैं। जैसे इस देश में आम अवधारणा है कि हॉस्टल में रहने वाली लड़कियाँ अच्छी नहीं होती, यानी चरित्रहीन होती हैं। लड़कों के लिए लड़कियाँ ग्रीनरी/हरियाली हैं, टाइम पास के लिए आती हैं। ज्योतिकुंज की शोध-छात्राओं के कारण लड़के इसे बूढ़ियों का हॉस्टल कहते हैं। लड़कियाँ अच्छी शोधार्थी भी नहीं हो सकती। 
 
बी.एच.यू. में सिर्फ़ विद्यार्थी नहीं होते। विद्या की अर्थी निकालने वाले बलात्कारी, गुंडे, बदमाश, अपराधी चरित्र के लोग भी रहते हैं। अंधेरा होते ही रास्ता लड़कों के झुंडों से भर जाता है। ऐसे ही एक रात नौ बजे अपनी मित्र से मिलने आई एक लड़की दवारा सरोजिनी नायडू हॉस्टल का रास्ता पूछने पर लड़कों ने राजा राममोहन राय हॉस्टल का रास्ता दिखा दिया और फिर उसे बार-बार उनकी हवस का शिकार होना पड़ा। वह पागल हो गई।

“ऐसी घटनायें बड़े आराम से दफ़न हो जाती थी बी.एच.यू. में।“4 

शुचि देखती है कि लैब में थोड़ी देर हो जाये तो बी.एच.यू. की सड़कों से निकालना ख़तरे से ख़ाली नहीं। बी.एच.यू. के लड़के राह चलते दुपट्टे खींच लेते हैं। बी.एच.यू. हो या आर.आई.टी.– ब्वाय फ़्रेंड तो लड़कियों के होते ही हैं। युवाओं की रेल-पेल हो और रूमानियत न हो, यह तो संभव ही नहीं। कृष्ण कथाएँ तो चलती ही हैं। बी.एच.यू. हॉस्टल में होमो लड़कियाँ भी हैं और जया और रवि जैसे राखी बाँध बहन-भाई भी। लेकिन सम्बन्धों के स्तर पर बी.एच.यू के युवा बहुत भावुक हैं। सुधीर अपनी बहन की मित्र वंदना को मिलने के बहाने ढूँढ़ता है। मोनिका मदन से प्रेम करती है और शादी से परिवार द्वारा इंकार किए जाने पर रो-रो कर पगला जाती है। ज्योतषियों-तांत्रिकों के चक्कर में पड़ जाती है। यही बाक़ी असफल प्रेमिकाओं का हाल है। जबकि आई.टी. यू. के बौद्धिक आईटियन दिल से नहीं दिमाग़ से काम लेते हैं। यहाँ का कैम्पस भी बी.एच.यू. से सुरक्षित है। अमेरिका की स्थिति और वहाँ के भारतीयों की मन:स्थिति भिन्न है। चिंता यह है कि जिस देश में पाँचवी श्रेणी से यौन शिक्षा का प्रचलन हो, वहाँ बेटियों के भारतीय माँ-बाप कैसे रहें? इसीलिए वनजा, नम्रता बेटियों की किशोरावस्था से पहले ही अमेरिका छोड़ देती हैं। 

जातिवाद:

अमेरिका का जातिवाद भारत के जातिवाद से भिन्न है। भारत में इसकी जड़ें समाज और राजनीति दोनों में गहरे धँसी हैं। मण्डल कमीशन के संदर्भ में इला कहती हैं कि सभी जानते हैं कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए राजनेता कुछ भी कर सकते हैं। बी.एच.यू. के हॉस्टल में जाति महत्वपूर्ण है, व्यक्ति नहीं। छात्र संघ में राजपूत ग्रुप का वर्चस्व है। बिहारिन होने के कारण शुचि का जब-तब मज़ाक उड़ाया जाता है। बिहार में भिन्न जाति में विवाह करने पर ऑनर किलिंग की सज़ा आम बात है। बी.एच.यू. की मोनिका की प्रेमी मदन से इसलिए शादी नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों परिवारों के आर्थिक स्तर में ज़मीन आसमान का अंतर है। आईटियन बिहारिन शुचि की आईटियन मराठी इन्द्र से शादी तो हो जाती है, लेकिन अमेरिका में इन्द्र हमेशा शुचि से कहता है कि एच.वन.बी. वालों से नहीं, ग्रीन कार्ड वालों से दोस्ती करो। 

भविष्य, अर्थसंकट और बेरोजगारी: 

आई.टी. में सब भाग रहे हैं- बी. टेक., एम.टेक., पीएच.डी.। सुबह चार बजे रात होती है और आठ बजे सवेरा– चार घंटे ही नींद का समय है। सब का एक ही सपना है- मल्टी-नेशनल कंपनी और अमेरिका में नौकरी। शुचि भी भाग रही है। बी.एच.यू. से आई.टी. और फिर इन्द्र से शादी, अमेरिका आगमन और फिर अमेरिकन भारतीय बनने के प्रयास। लगता हर बार चेहरा बदलकर अंधेरा ही उसे घेर लेता है। उसके पास एक वंचित अतीत, उदास वर्तमान और अनिश्चित भविष्य है। सपना तो था अमेरिका में आकर यूनिवर्सिटी में पोस्ट डॉक्टोरेट करने और पढ़ाने का, शोध और अध्यापन का, लेकिन उसे घर में क्रेच खोलकर ही संतोष करना पड़ता है। वह चित्रकार भी है, पर ऐसी चित्रकार जिसकी पेटिंग्स को कोई देखना भी नहीं चाहता। मूल्यांकन तो बाद की बात है।    

“हर बार तो चेहरा बदल कर अंधेरा चला आया। कभी आर.टी.आई. की शक्ल में, कभी विवाह और अमेरिका की शक्ल में . . .”5 पृष्ठ 132 

उपन्यास भारत और अमेरिका के अर्थसंकट और बेरोज़गारी के भी परिदृश्य लिए है। नौकरी जुटा पाना न भारत में आसान है और न अमेरिका में। कोंटेक्ट्स चाहिए। शोध के चौथे साल शुचि को फ़ेलोशिप मिल पाती है। भारत में शुचि एक अस्थायी कॉलेज में छोटी सी नौकरी ही पाती है और अमेरिका में एक स्कूल टीचर की नौकरी भी नहीं जुटा पाती। पति इन्द्र भी नौकरी और बेकारी के बीच झूल रहा है। रश्मि जानती है कि यूनिवर्सिटी में शाम या रात की क्लासेज़ लेने से तो अच्छा है कि किसी स्कूल में नौकरी कर ली जाये। कम से कम जीवन बीमे की सुरक्षा तो मिलेगी। आर्थिक असुरक्षा हर पल बनी रहती है। अमेरिकी अख़बारों में 46000 नौकरियाँ ख़त्म होने का समाचार है। हर रोज़ एक कंपनी बंद हो रही है। छंटनी हो रही है। रज़ाई का गिलाफ़ भी लेना हो तो सेल की प्रतीक्षा की जाती है। जॉब फ़ेयर लगते हैं। अमेरिका के दूर-दराज के हिस्सों से भी प्रत्याशी आते हैं, पर सी.वी. ले आवश्यकतानुसार बुलाने के लिए कह कर लौटा दिया जाता है, निर्मल वर्मा की कहानी ‘लंदन की एक रात’ के विली, जार्ज और मैं की तरह। कैटरीना तूफ़ान के बाद से हालात और भी बदतर हो जाते हैं। मेक्डोनल्ड में तो शुचि-इन्द्र एक ऐसे असहाय, अपाहिज, बेघर बूढ़े से भी मिलते हैं, जिसने पिछले छह दिन से कुछ नहीं खाया है। कुछ लोग सेट भी हैं। जया चितरंजन स्कूल में टीचर है और सविता मुंबई के फ़्रेंच बैंक में है। स्नेहा नालंदा के कॉलेज, दिव्या बड़ौदा यूनिवर्सिटी और सुनीति दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है। निवेदिता मैजिस्ट्रेट बनती है। भाग्यश्री, सुनयना अमेरिका पहुँच जाती हैं। 

अन्य:

उपन्यास में एक स्वप्न मनोविज्ञान/परामनोविज्ञान भी दस्तक दे रहा है। शुचि ने. आई.टी आने से कुछ महीने पहले एक भविष्यसूचक स्वप्न देखा था और यह स्वप्न उसके अचेतन-अवचेतन में बस गया था– आई.टी. का परिसर, उसके एक छोर की निर्माणाधीन बिल्डिंग की दूसरी मंज़िल। उसे तो लगता है नियति ही उसे यहाँ खींच लाई है।

पारिवारिक स्तर पर भी शुचि तनावों से घिरी है। पिता परिवार में बहन-भाई का प्रभुत्व है और पति परिवार में ननदें, देवर, जेठ, अंकल, आंटी सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, अहंकार से भरे हुये। 

छात्र संस्थानों में निकलने वाले जुलूस, पुलिस का लाठीचार्ज, धरने, मैस में होने वाले घपले, हॉस्टल का न निगल सकने वाला खाना। खाने से काकरोच वग़ैरह निकालना। कोपरेटिव मैस की माँग आदि का भी ज़िक्र है। 

कुछ अन्य तथ्य भी हैं। जैसे अमेरिका के अनेक स्कूलों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। यूनिवर्सिटी में तो है ही। हिन्दी गाने समझने के लिए लोग हिन्दी पढ़ते हैं। मैक्डोनल्ड आदि में बैठ कर अमेरिकन भी हिन्दी गाने ही सुनते हैं। 

सूत्रात्मता एवं शब्दावली: 

सूत्रात्मता उपन्यास को भाषिक और बौद्धिक सौंदर्य से सराबोर कर रही है:- 

  1. ज़िंदगी और कोहरा क्या पर्यायवाची हैं?6 

  2. जिनके पास गर्व करने को कुछ नहीं होता, वे भाषा का, जाति का, प्रांत का, धर्म का या ऐसी ही किसी और चीज़ का गर्व पालते हैं।7 

  3. जब तक चलती रहोगी गिरोगी नहीं। रुकने का भी, नीचे उतरने का भी एक तरीका होता है। जैसे ऊपर चढ़ने का।8 

  4. आंशिक आत्मनिर्भरता का एहसास भी आत्मविश्वास बढ़ाता है।9 

  5. औरों की उपेक्षा इंसान को पहले मार डालती है, वास्तव में मरने से पहले।10 

  6. जब आप सफल होते हो तो सब सुनते हैं। वरना सच भी बोलो तो कोई नहीं सुनता।11 

  7. कोई फेल हो जाता है, कोई बीमार हो जाता है, लेकिन झेलना उसे ही होता है अपने ऊपर, जिसका शोषण होता है।12

  8. हम देकर भी कृतकृत्य होते हैं, भर जाते हैं अंदर से।13 

  9. ख़ुदा अच्छे दोस्त देकर, बुरे रिश्तेदार देने के लिए तुमसे क्षमा मांगता है।14 

  10. शिक्षा और मनुष्यता दो अलग चीजें हैं। डिग्रीयाँ जमा करने से हम शिक्षित कहलाने का गौरव पा लेते हैं। किन्तु जरूरी नहीं कि अच्छे इंसान भी बन जाएँ। उसके लिए प्रकृति की पाठशाला में जाना पड़ता है, ठोकरें खानी पड़ती हैं।15 

  11. स्त्री का अहं पुरुष के लिए तोड़ने की चीज है।16  

  12. मन्दिर जाने के लिए आस्थाओं का उतना प्रश्न नहीं होता, जितना आवश्यकाओं का। 17

  13. आदमी को आधार चाहिए। निराकार की उपासना हर किसी के बूते की बात नहीं। 18 

  14. सब लड़कियाँ बुद्धू होती हैं। जो होता ही नहीं उसकी तलाश में उम्र जाया करती हैं।19 

दोनों संस्थानों के पास अपना शब्द संसार है। बी.एच.यू. में कायस्थों को लाला कहते हैं- यानी ला - ला । पी. एम. टी. यानी पिया मिलन ट्री। आर. टी. आई. के विद्यार्थी जनता कहलाते हैं। कुछ चमका क्या (समझ आना), फाट मारना (तुक्के लगाना), प्रेप (प्रेपरेटरी), डेमो (डिमांस्ट्रेशन) आदि शब्द प्रचलित हैं। लोग मराठी, हिन्दी, अपभ्रंश और अँग्रेज़ी से मिली-जुली खिचड़ी भाषा बोलते हैं। 

निष्कर्ष:

इलाप्रसाद प्रतिष्ठित, उच्चस्तरीय शिक्षण एवं शोध संस्थानों की परतें केले के गाभ की तरह परत दर परत खोलती जाती हैं। वहाँ की राजनीति, प्रेम कथाएँ, भ्रष्टाचार, दोगलापन, ऊपर उठने या अपना काम निपटाने के रहस्य यहाँ मिलते हैं। उनकी सूक्ष्म दृष्टि बनारस के बी.एच.यू., मुंबई के तकनीकी संस्थान और अमेरिका के जीवन का अनेक स्तरों पर तुलनात्मक अध्ययन करती जाती है। अंत कुछ-कुछ सुखांत है। उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने के बाद शुचि भले ही अमेरिका में स्कूल टीचर की नौकरी तक न जुटा पाई हो, लेकिन पहली से चौथी तक के बच्चों को ट्यूशन दे आत्मनिर्भरता का अहसास पा लेती है। चित्रों की प्रदर्शनी लगाने और दो की बिक्री भी हो जाने पर उसका आत्म विश्वास लौट आता है। इन्द्र भी अंतत: ढंग की नौकरी पा ही लेता है। अपने हिस्से का यह आकाश, यह आधी अधूरी रोशनी खोज आत्म संतोष पा लेना ही उसकी नियति है। 

संदर्भ:

  1. इला प्रसाद, रोशनी आधी अधूरी सी, 2016, भावना प्रकाशन, दिल्ली-91, पृष्ठ 48 

  2. वही, पृष्ठ 127 

  3. वही, पृष्ठ 109

  4. वही, पृष्ठ 72 

  5. वही, पृष्ठ 132 

  6. वही, पृष्ठ 7

  7. वही, पृष्ठ 27

  8. वही, पृष्ठ 30

  9. वही, पृष्ठ 41

  10. वही, पृष्ठ 51

  11. वही, पृष्ठ 64 

  12. वही, पृष्ठ 64

  13. वही, पृष्ठ 65

  14. वही, पृष्ठ 75

  15. वही, पृष्ठ 94 

  16. वही, पृष्ठ 95

  17. वही, पृष्ठ 134

  18. वही, पृष्ठ 143

  19. वही, पृष्ठ 163

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब
madhu_sd19@yahoo.co.in

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