अपने अपने रिश्ते
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. मधु सन्धु1 Oct 2024 (अंक: 262, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
पुस्तक: अपने अपने रिश्ते
लेखक: रमेश कुमार ‘संतोष’
विधा: लघुकथा
प्रकाशक: शुभदा बुक्स, साहिबाबाद
संस्करण: जून, 2023
वह गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिन्दी विभाग की एक संगोष्ठी का अवसर था। सभा के प्रारम्भ होने से पहले सभी विद्वजन बैठे थे। तभी रमेश कुमार संतोष जी ने मुझे अपने लघु कथा संकलन ‘अपने अपने रिश्ते’ की प्रति दी। यह रमेश कुमार संतोष जी का शुभदा बुक्स, साहिबाबाद से 2023 में प्रकाशित लघुकथा संग्रह है। इससे पहले उनका एक उपन्यास ‘स्थिर अस्थिर’, दो कहानी संग्रह ‘अंतहीन’ तथा ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ और कविता संग्रह ‘थकी हारी तलाश’ आ चुके हैं।
‘अपने अपने रिश्ते’ में 74 लघुकथाएँ हैं। यहाँ समसामयिक जीवन के चित्रण हैं, विसंगतियाँ और व्यंग्य हैं, अलग-अलग समस्याओं से जूझ रहा निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति है। लोकतन्त्र के अंदर का अलोकतंत्र है। प्रशासन के अंदर का कुशासन है। ये लघु कथाएँ थोड़े में बहुत कुछ कह जाती हैं। विषबुझे तीरों की तरह गंभीर घाव करती हैं।
संकलन निम्न अथवा निम्न मध्यवर्ग के विडंबित आर्थिक परिदृश्य लिए हैं। पारिवारिक अलजबरे में उनका व्यक्ति नितान्त असहाय, असफल, हताश और बेबस है। उनकी ‘पल भर की खुशी’ का अकाउंटेंट ऑफ़िस का हिसाब किताब रखने में तो कुशल हो सकता है, लेकिन इतने कम वेतन में घर का अकाउंट बनाने में असमर्थ है। ‘कटौती’ का पति अख़बार बंद कर देता है, बच्चे को प्राइवेट स्कूल से हटवाकर सरकारी स्कूल में दाख़िल करवा देता है, दूध आधा किलो कर देता है, फ़िल्मों और घूमने का ख़र्च भी बंद कर चुका है, घर में काम करने वाली को भी हटा चुका है, पराँठे अब घर में नहीं बनते, सब्ज़ी पूरे दिन में एक ही बार बनती है, लेकिन वेतन से पूरा नहीं पड़ता। ब्लू कॉलर वाले सर्वहारा लोगों यानी दिहाड़ीदार मज़दूरों और घरेलू नौकरों की त्रासदियाँ अलग हैं। ‘समर्पण’ का नायक ठेकेदार के यहाँ काम करता है तो काम ज़्यादा और पैसे कम मिलते हैं और दिहाड़ी पर जाये तो कई-कई दिन काम नहीं मिलता, फ़ाक़ों की नौबत आ जाती है। ‘नौकरी’ घरेलू नौकर के हिस्से के हाड़ तोड़ परिश्रम को लिए है। कैसा जीवन है कि आदमी को दो वक़्त की रोटी के लिए किसी पैलेस के बाहर बुत बनना पड़े। लेखकीय निष्कर्ष कहते हैं कि किसी भी घर या देश में झगड़े की जड़ ग़रीबी और बेकारी ही है।
अंतरधार्मिक/ सांप्रदायिक दंगों का आतंक भी आदमी आदमी के रिश्तों में दरारें ला रहा है, क्योंकि हिंसा, लूट, आगजनी, इनसे जुड़े हैं। ‘दहशत’ का नायक धार्मिक दंगों के बाद लगे कर्फ़्यू के समाप्त होने पर घर का आवश्यक सामान ख़रीदने जाता है। उसे ऑटो रिक्शा करना है। लेकिन कभी रिक्शावाला और कभी दूसरे धर्म की सवारी देखकर वह इतनी दहशत में आ जाता है कि शहर न जा वापस घर लौट आता है। शहर में दंगा हो जाने पर ‘दंगा’ का नायक घर में अकेली माँ के कारण परेशान है।
लोक का लोकतन्त्र से, आम आदमी का प्रशासनतंत्र और राजनेता से रिश्ता गड़बड़ा गया है। लधुकथाकार हैरान है कि लोकतन्त्र के मूल आधार ‘स्वतन्त्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय’—कहाँ हैं? क्या नेता, क्या प्रशासन—सभी कुबेर बनने की दौड़ में अंधाधुंध भाग रहे हैं। ‘लोकतन्त्र की जय हो’ तथा ‘राजनीतिज्ञ’ में लेखक कह रहा है कि यह कैसा लोकतन्त्र है? पैसे देकर और शराब बाँट कर वोट ख़रीदे जाते हैं और मेहताना देकर जुलूस निकलते हैं। राजनेता बनते ही देश के कर्णाधार लूट-खसूट शुरू कर देते हैं। नेताओं के भ्रष्ट तेवर और दिन दोगुने रात चौगुने बढ़ रहे बिज़नेस का कोई आर-पार नहीं। राशनकार्ड भी ग़रीबों के नहीं, नेताओं के अमीर चमचों के बना करते हैं।
प्रशासकीय अधिकारियों की तो पौ बारह है। वेतन और घूँस दोनों से उफनाए बैठे हैं। जनता/ आम आदमी जाये भाड़ में। ‘दोष किसका’ में बरसाती मौसम में सड़कें गड्ढों से भर जाती हैं और दुर्घटनाएँ होने लगती हैं। क्यों? इसका उत्तरदायी अपनी कुर्सियाँ सहला रहा प्रशासन/ कार्पोरेशन और उसके घटक-इंजीनियर, ठेकेदार, ऑफ़िसर हैं:
“अगर कार्पोरेशन ने सही ऑफ़िसर को नियुक्त किया होता तो ठेका कुशल ठेकेदार को मिलता। अगर ठेकेदार कुशल होता तो सड़क बनवाने वाले इंजीनियर को सही काम करने के लिए कहता। अगर सड़क अच्छी बनती तो सड़क टूटती नहीं और न ही वहाँ गड्ढा बनाता। अगर गड्ढा न होता तो उसकी साइकिल वहाँ गिरती ही नहीं। अगर साइकिल न गिरती तो स्कूटर वाला उससे न टकराता और उसकी टाँग न टूटती।” (पृष्ठ 28)
कैसी विडम्बना है कि चोर चौकीदार और पुलिस से मिलकर, उनकी छत्रछाया के नीचे ही अपना कुकृत्यों को अंजाम देते हैं। ‘जी साहिब’ कहानी का सच यह है कि हर अवैध धंधा पुलिस की छत्रछाया में ही पनपता है। शराब का अवैध धंधा करने वाला जागीरा अगर थानेदार को समय पर रिश्वत का लिफ़ाफ़ा पहुँचा दे तो शराब वैध हो जाती है।
जीवन और जगत में गहरे पैठ कर यह कहानियाँ लिखी गई है। यह वह संसार है, जहाँ न शिक्षा का कोई मूल्य है, न ईमानदारी का और न परिश्रम का। ‘प्रश्न चिन्ह’ कहानी कहती है कि नौकरी सिर्फ़ सौदेबाज़ी है। इसका मेरिट से, शिक्षा जगत से कोई सम्बन्ध नहीं। अगर मुँहमाँगी रिश्वत दे सकते हो तो ठीक अन्यथा ‘प्रश्न चिन्ह’ के नायक की तरह पिता की कबाड़ी की दुकान पर बैठकर जीवन निकालना पड़ेगा। ‘मापदंड’ में भी बेकारी और शिक्षा के अवमूल्यन का अंकन है। त्रासदी यह है कि नायक को बी.ए. करने के बाद भी भिखारी बनना पड़ता है।
यह घोटालों की दुनिया है। ‘बेबस’ में लोक डाउन और गोलगप्पे बेचने वाले की भूखों मरने की विवशता है, क्योंकि प्रशासनिक मानदंडों के अनुसार वह सरकारी राशन का हक़दार नहीं। ‘उपहार’ में बिलों के भुगतान के लिए अधिकारी को रिश्वत मिलनी अनिवार्य है। राजनेता या प्रधान जी उन नेताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनका जीवन ‘इस हाथ ले, उस हाथ दे’ की शैली पर चल रहा है। पार्टी के कार्यकर्ता होते हुए भी वे लोगों के काम पैसे लेकर ही करवाते हैं। ‘उत्साह’ का सिपाही भी रिश्वत देकर नौकरी पाता है और अब रिश्वत से भरी जेब उसे संतुष्ट करती है। दृश्य मीडिया यानी दूरदर्शन का काम भी सिर्फ़ आत्ममुग्ध नेताओं के झूठ को सच कहकर प्रसारित करना है।
‘मुद्दा’ एक और भी है। कूड़े से बिजली बनाई जा सकती है। गंदे प्लास्टिक के लिफ़ाफ़ों में केमिकल डालकर मज़बूत सड़कों का निर्माण किया जा सकता है। गोबर से गैस बन सकती है, तो फिर दाल के पराँठे बनाने वाले या गुलाब जामुन की बची चाशनी से मीठे चावल बनाने वाले कंजूस, कमीने, भूखे-नंगे क्यों?
उनकी प्रेमिकायें प्रेम को विवाह में परिणित करने के लिए नैतिक-सांस्कृतिक मूल्यों की समर्थक हैं। घर-परिवार, मूल्यबोध, समाज उनके लिए प्रमुख है। जब कि नादान वय, टीवी, मोबाइल के प्रभाव स्वरूप किशोर विवाह और बलात्कार भी एक सच है। ‘गलत प्रभाव’ में दूरदर्शन का बच्चों पर पड़ने वाला कुप्रभाव है।
हर रिश्ते का एक अपना सच है। स्त्री पत्नी होने के साथ-साथ एक माँ भी है। ‘ममता’ का झगड़ालू पति उसे जला देता है, फिर भी अपनी सारी पीड़ा, वेदना, नफ़रत के बावजूद वह अस्पताल में मरने से पहले पुलिस को झूठा बयान देती है कि स्टोव फट गया था, ताकि बच्चों के सिर पर बाप का साया बना रहे। दिनचर्या उस मध्यवर्गीय पुरुष की परेशानियों को लिए है, जिसका जीवन बच्चों, ऑफ़िस, पार्ट टाइम काम आदि में बीत रहा है और अक्सर लगता है कि ज़िन्दगी उसकी दसों अंगुलियों से फिसल रही है। ऐसे में वह सपनों में अपने को रेलवे स्टेशनों पर भटकते देखता है, गाड़ी उससे छूट-छूट जाती है, एक दलदल उसे घेर रही है। मूलतः यहाँ परा मनोवैज्ञानिक स्थितियों का अंकन है। ‘तृप्त’ बताती है कि वृद्धावस्था में दंपती सचमुच एक दूसरे के विषय में सोचने लगते हैं। रिश्तों का एक सच यह भी है कि दुनियादारी के दुनियादार बेटों ने रिश्तों का अवमूल्यन कर दिया है। उन्हें सिर्फ़ माँ की जायदाद की ज़रूरत है। ‘टूटते रिश्ते’ का बेटा सब जानते हुए भी माँ भाई से सम्बन्ध तोड़ने के लिए विवश है। ‘बेटी का दर्द’, ‘अपने अपने रिश्ते’, ‘कैद’, ‘उपेक्षित’ और ‘रिश्ते’ में ख़ून के रिश्तों और सामाजिक रिश्तों का अंतर स्पष्ट है कि माँ-बाप के लिए जो भाव बेटे-बेटी में हैं वे बहू में हो ही नहीं सकते और बेटी के लिए जो दर्द माँ-बाप में है, वह ससुराल वालों में नहीं हो सकता। जब भाभी-भाई माँ-बाप बन जाएँ तो विवाहित बहनें भावात्मक स्तर पर सम्पन्न हो जाती हैं। उनका ‘मायका’ बना रहता है।
भारतीय समाज, परिवार में लड़की की जन्मना अस्वीकृति भी बहुत बड़ा मुद्दा है। ‘अपना ख़ून’ में दूसरी बेटी के जन्म को परिवार कैसे स्वीकार करे? दादी, पिता, माँ-सब के लिए यह कठिन है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि अपने ख़ून, अपनी संतान के लिए कोई भी विकल्प किसी को भी मान्य नहीं। ‘दिखावा’ में अपनत्व, स्नेह, सत्कार का स्थान दिखावे ने ले लिया है। आज तेहरवीं का मृत्यु भोज एक कुप्रथा की तरह पनप रहा है। नाश्ते-खाने के ढेरों स्टाल लगवाये जाते हैं। पता ही नहीं चलता कि शादी का उत्सव है या शोकसभा।
आत्मीयता, मानवता में लिपटे ऐसे भी अनाम रिश्ते होते हैं, जिन्हें जीवन भर नहीं भूला जा सकता। जैसे ‘अनुभव’ का संवेदनशील बस कंडक्टर, ‘संवेदना’ और ‘फर्ज’ का डॉक्टर, ‘मजबूरियां’ का दुकानदार। उनके यहाँ वे स्वाभिमानी और भविष्यचेता किशोर भी हैं, और विदेश की धरती पर अर्थतन्त्र से मुक्त होकर सहायता करने वाले ट्रैवल एजेंट भी।
शिक्षकों और शिक्षण संस्थाओं की मनमानियाँ भी यहाँ चित्रित हैं। ‘व्यवसाय’ में शिक्षा के व्यवसायीकरण का अंकन है। एक समय था जब गुरुवार गुरु के संपर्क के लिए अति शुभ माना जाता था, तब शिक्षा को व्यवसायीकरण ने अपने आग़ोश में नहीं लिया था। जबकि आज बच्चे को स्कूल में दाख़िल करवाने का अर्थ है, उनके आदेशानुसार आवश्यक-अनावश्यक चीज़ों के लिए पूरे महीने के वेतन की आहुति। ‘बदलाव’ मातृभाषा हिन्दी और टेक्निकल शिक्षा पर है। ‘षडयंत्र’ सोशल मीडिया पर चल रहे षडयंत्रों को लिए है।
‘मूल्यांकन’ में एक लेखक की पारिवारिक स्थिति है। लेखक सारा दिन दफ़्तर में रहने के बाद भी घर पहुँच कर किताबों में गुम हो जाया करता है, जबकि पत्नी चाहती है कि वह घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचने में उसका सहायक बने। लेखक के मन का उल्लास इसमें समाया है कि उसकी रचना प्रकाशित हो रही है, जबकि पत्नी के पास उसकी रचनाओं के मूल्यांकन की कसौटी अर्थ है। यानी घर-परिवार की दृष्टि से मूल्यांकन हो तो लेखक को अवमूल्यित होना ही है। पैसे लेकर रचना प्रकाशन का धंधा भी ख़ूब चल रहा है।
निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक परिदृश्य और जीवन संघर्ष को अपनी लघु कथाओं का प्रतिपाद्य बनाने वाले रमेश कुमार ‘संतोष’ कथा चयन रोज़मर्रा की जीवनगत विसंगतियों से करते हैं। यहाँ शिक्षा जगत, लेखक और अध्यापक भी हैं तथा भ्रष्ट राजनेता तथा प्रशासन भी। लघुकथाओं में चित्रित विसंगत स्थितियों की अनेकानेक परतें पाठकीय चेतना को झिंझोड़ती भी है और उसे इनके ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए प्रेरित भी करती हैं।
madhu_sd19@yahoo.co.in
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