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फ़ेसबुक मित्रों की कविताएँ  (कविता अनवरत-1)


पुस्तक: कविता अनवरत 
संपादक: चंदर प्रभा सूद 
प्रकाशक: अयन, दिल्ली 
संस्करण: 2015 
मूल्य: ₹500/-

‘कविता अनवरत-1’ चंद्रप्रभा सूद जी द्वारा संपादित अनूठा संकलन है। स्थापित और अस्थापित, नामवर और अनाम, हिन्दी भाषी-अहिंदी भाषी, देशी, अन्यदेशी और प्रवासी—सब को एक मंच पर लाने का अन्यतम प्रयास है। संकलन में कुल इकसठ कवि हैं। तेरह राज्यों की सहभागिता के साथ-साथ नेपाल, आस्ट्रेलिया, कैनेडा के कवियों की भागीदारी भी उल्लेखनीय है। 
संपादक चंद्रप्रभा सूद लिखती हैं:

“‘कविता अनवरत‘ काव्य संकलन अयन प्रकाशन की एक महत्वाकांक्षी योजना है। अपने फ़ेसबुक मित्रों की रचनाओं के प्रकाशन की योजना बंगलोर में बैठे-बैठे सहसा ही बनी। 50 कवियों/कवयित्रियों को प्रकाशित करने की योजना थी। पर तीन खंडों से अधिक की सामाग्री प्राप्त हो गई। हमने काव्य की सभी विधाओं का स्वागत करते हुए उन्हें स्थान दिया। यह भी ध्यान रखा कि वह समाज विरोधी न हों और अश्लीलता से मुक्त हों। फ़ेसबुक आज मित्रों के संपर्क का एक सार्थक माध्यम बनकर उभरा है। एक पारिवारिकता का आभास होता है।”1 

‘कविता अनवरत-1’ आभासी दुनिया के साहित्यिक संसार को समेटे है। ‘कविता अनवरत-1’ आज की आवाज़ है। एक साहित्यकार का अपने मित्रों के प्रति स्नेह है। एक नए रचना संसार की, एक नई साहित्यिक यात्रा की, एक नए प्रयोग की शुरूआत है। 

‘कविता अनवरत-1’ का वैविध्य पाठक को मोह लेता है। प्रेम, रागात्मकता, स्नेह मन की मूल वृत्ति है और मन ही काव्य जगत का मूल द्वार है। एक अहसास है, जब प्रिय पात्र की परवाह करना, उसी को सपनों में सँजोना प्रिय लगता है:

“मुझे अब नींद की तलाश नहीं, 
अब रातों को जागना अच्छा लगता है। 
तुम मेरी क़िस्मत में हो या नहीं, 
पर ख़ुदा से तुम्हें माँगना अच्छा लगता है।”2 

 प्रेम के चुक जाने की पीड़ा भी क़तरा-क़तरा कर देती है। प्रेम किया था शहज़ादा सलीम ने, मजनूँ, फरहाद ने, राँझा, महिवाल ने—क्योंकि वे परिवार, समाज के बड़े-बड़े झूठों से अनजान थे, क्योंकि उनमें, वज्र विश्वास था, सुखद प्रतीक्षा थी, भविष्य का सूर्य था और इसके बाद की स्थिति करुण होकर रह जाती है:

“मेरी उम्र सिर्फ़ उतनी है
जितनी व्यक्ति से वस्तु बनने
तुम्हारी अचल सम्पत्ति में ढलने—
व्यक्तिवाचक से शून्यवाचक हो जाने से पहले 
स्वप्नलोक में जी थी।”3

स्त्री पर अनेक विमर्श यहाँ समेटे गए हैं। प्रेमिका, पत्नी, माँ, बेटी—हर रूप उभरा है। एक त्रासदी है कि स्त्री कल भी चुप थी और आज भी चुप है। 

बेटियों की भ्रूणहत्या सृष्टि क्रम की हत्या है। बेटियाँ फूल सी कोमल हैं तो लौह सी बलवान भी हैं। वे धरती भी हैं और आकाश भी। बेटियाँ उन पत्तियों की तरह हैं, जिनका डाली से छूटना उपवन में पतझड़ ला देता है:

“बेटियों और वृक्ष से ही तो कल है
इनसे ही जीवन जीने का एक-एक पल है, 
संकल्प लेना होगा इन्हें बचाने का आज
दुनिया बचाने का होगा ये ही एक राज।”4 

कहीं निराशा और झूठ, कहीं असहायता और भय, कहीं उत्पीड़न और शोषण, कहीं बलात्कार/गैंग रेप, कहीं सशक्त और जुझारू, कहीं अबला और सबला, कहीं काली और कल्याणी, कहीं होम-मेकर और कामकाजी-स्त्री का हर रूप यहाँ चित्रित है। आधी रात की भूखे व्याघ्र सी नर वृत्ति पर कवयित्री लिखती है:

“बड़ा असामान्य सा है आदम का ख़ून
अतिशय गर्म या अतिशय ठंडा
इतना गर्म कि रात के अंधेर में 
आँखें हो जाती हैं लाल
निकल आते हैं सींग 
तेजधार हो जाते हैं पंजे
और सुनसान मार्ग पर अकेली जाती हुई 
माँ, बहन, बेटी 
दिखाई देती है बस शिकार।”5

वृद्धावस्था की विडंबनाएँ और अनेक दारुण चित्र ‘कविता अनवरत-1’ में भरे पड़े हैं। 

“मातृभक्त सबसे बड़े, उनकी कहाँ मिसाल। 
मातृसदन घर पर लिखा, माँ को दिया निकाल।”6 

जब शरीर शक्तिहीन हो जाता है, पीड़ा-घुटन घेर लेती है, अपनों का व्यवहार ग़ैरों-सा हो जाता है, बेटे-बेटियाँ, नाती-पोते सब पराये हो जाते हैं। 

भगत सिंह जैसे स्वतन्त्रता सेनानी पर देशप्रेम की कवितायें भी इस संकलन में हैं, विनाश की भट्टी उस युद्ध का भी वर्णन है, जिसमें सैनिक झोंके जाते हैं और देश को खोखला करने वाला दोगला प्रशासन भी यहाँ चित्रित है:

“मुखिया हैं अब कुछ थानों के, गुंडों के सरदार रहे हैं। 
दिल्ली उनको नतमस्तक है, जो उस पर कर वार रहे हैं।”7 

घाटी की बातें भी हैं:

“घाटी का सैलाब आज यह प्रश्न उठाता है
धरती पर आफ़त क्यूँ अपने फन फैलाता है।”8

युवा के अंदर कुछ करने की चाहत और न कर पाने की कसक है। अव्यवस्था ने कुछ ऐसी घुटन, कुछ ऐसा दमन फैला रखा है कि कवि कहता है:

“अब अँधेरों में जीना सीख लो यारो क्योंकि
सूरज की चमक में भी मैं ग्रहण देखता हूँ।”9

चलता-भागता आदमी हाँफ रहा है। 

“राह कैसी है ये जिसमें है नहीं मंज़िल कहीं
इक सफ़र ही फिर मिला, इतने सफ़र करने के बाद।”10 

यह बाज़ारवाद का समय है, उपभोक्तावाद का समय है, बाज़ार आदमी पर हावी है, निरंकुश है, उसका पथ-प्रदर्शक, सलाहकार है:

“तुम्हारी सोच ऊँची हो, भले हों ख़्वाब भी ऊँचे, 
खड़े हो आज तुम उपभोक्ता बाज़ार में लेकिन।”11 

प्रदूषण-पर्यावरण के प्रति भी कवि सचेत है। वाहनों का ज़हर ऑक्सीजन सोख कार्बन लुटा रहा है। पत्ते काले पड़ रहे हैं और कलियाँ फूल बनने से इंकार कर रही गंगा के प्रदूषण पर कवि कहता है;-

“मिटती गंगा है अगर, मिट जाएगा देश।”12 

वह प्रदूषण के गुब्बार की भी बात करता है। वह महानगर से गाँव के नैसर्गिक जीवन की ओर मुड़ना चाहता है, क्योंकि वहाँ की भीड़ में हर कोई अकेला है, हर चेहरा अजनबी है, हर क़द बोनसाई है। उसे ऊँचाई और गहराई दोनों छूनी हैं, भले ही वह विदेश में हो, पुरवाइयों से उसे नाता नहीं तोड़ना। वह पिंजरे में क़ैद पक्षियों को भी आज़ाद करने की बात करता है, क्योंकि पिंजरे चीत्कारों के पोषक हैं, चहचहाहट के नहीं। 

टीवी और नेट ने इन्सानों में, रिश्तों में इतनी दूरियाँ ला दी हैं, कुछ ऐसा भ्रमजाल फैलाया हैं अब आभासी संसार ही सर्वेसर्वा हो गया है। 

“पुराने परिचित अब मित्र कहाँ हैं 
शाम ढली पर चौपाल कहाँ है 
दुनिया कर ली मुट्ठी में पर
हर विपदा में स्वयं अकेला पाते हैं
आभासी विश्व के मकड़जाल में।”13 

‘कविता अनवरत-1’ आस्था, आशावाद, एकता, प्रगति, विकास के संदेश भी लिए है। समय के साथ क़दम मिलाना भी अनिवार्य है:

“भरोसा ख़ुद पर करके जो समय की नब्ज़ को जाने
‘मदन’ हताशा और नाकामी उनसे दूर जाती है।”14 

महाभारत के संजय की तरह आदमी के पास कोई दिव्य दृष्टि भले ही न हो, लेकिन उसमें जीवन मूल्यों और संस्कारों को समझने की दृष्टि होना अनिवार्य है। 

तेज़धार व्यंग्य तो शीर्षकों में ही मिल जाते हैं। जैसे: चौराहे पर स्त्री विमर्श, दूल्हों की मंडी, महारावण। लोककथाओं की चर्चा, पौराणिक संदर्भों के उद्धरण, ऐतिहासिक प्रसंग भी यहाँ मिल जाते हैं। उर्दू शब्दों का बेरोक-टोक प्रयोग है। नये उपमान भी मिलते हैं, जैसे—सूनेपन की फटी चादर। ‘कविता अनवरत-1’ में लयात्मकता भी है और मुक्त छंद भी। ग़ज़ल भी है और शेरो-शायरी भी है। गीत, दोहे, कुण्डलिया, हाइकु–मुक्तक यानी काव्य का हर रूप यहाँ उपलब्ध है।      

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब। 

संदर्भ: 

  1. चंद्रप्रभा सूद, कविता अनवरत-1, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015 

  2. वही, बोधिसत्व कस्तूरिया, पृष्ठ 17

  3. वही, मधु संधु, पृष्ठ 109 

  4. वही, संजय वर्मा दृष्टि, पृष्ठ 28 

  5. वही, वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 155 

  6. वही, रघुवीन्द्र यादव, पृष्ठ 218 

  7. वही, रघुवीन्द्र यादव, पृष्ठ 217 

  8. वही, चैतन्य चन्दन, पृष्ठ 143

  9. वही, शान्ति स्वरूप मिश्र, पृष्ठ 25 

  10. वही, राज वत्स्य, पृष्ठ 124

  11. वही, कृष्ण सुकुमार, पृष्ठ 44

  12. वही, पीयूष कुमार द्विवेदी पूतू, पृष्ठ 165 

  13. वही, प्रभाष मिश्रा, पृष्ठ 20

  14. वही, मदन मोहन सेक्सेना, पृष्ठ 73

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