अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

निर्णय

 

कल की बात है—धनदनाता बिज़नेस, अति संपन्नता, महल सा घर, टॉप करने वाला, मैडल/ ट्रॉफी जीतने वाला, आज्ञाकारी, समझदार, लाड़ला, सुपर इंटेलिजेंट बेटा, अत्याधुनिक जीवन शैली, बुलंदियों पर बने रहने की आकांक्षा।     सोने पर सुहागा था; न धन की कमी, न इंटेलिजेंस की। बेटा स्कूल के बाद महानगर के हॉस्टल में पढ़ाई करने लगा। हर छुट्टी पर आ धमकता, फिर आईआईएम अहमदाबाद से एमबीए और साथ ही विदेश गमन। वह जाना नहीं चाहता था, घर का बिज़नेस सँभालना चाहता था, कहता—मैं घर से निकल सकता हूँ, पर घर मेरे अंदर से नहीं निकलता। पर उसे बाँध कर कैसे रखते? आस-पड़ोस, नाते-रिश्ते, मित्र-परिचित-सब के बेटे विदेश में थे। 

आज घर का पेंट और शारीरिक ऊर्जा/तेज सब निस्तेज, हो रहे हैं। बाहर बरामदे में दो वृद्ध दीखते हैं—हैल्थ इन्श्योरेंस की फ़ाईल सँभालते हुए। अख़बारवाले, माली, धोबी, सफ़ाई कर्मचारी, मेड, फल-सब्ज़ी हॉकर, ऑन लाईन सामान लाने वालों का इंतज़ार करते हुए। उनकी उपस्थिति से अपने को तरोताज़ा करते हुए। सन्नाटा तोड़ते हुए। थोड़ा होंठ हिलाते, थोड़ा उठते-बैठते बस इन्हीं की हलचल की प्रतीक्षा रहती है। कभी कभार मोबाइल की घंटी भी टनटना जाती है—विदेश में बसी संतान से एक-आध पल बात या वीडियो कॉल हो जाती है। मन तुष्ट भी हो जाता है और कसमसाता भी है। निर्णय ऐसे ग़लत भी हो जाया करते हैं? 

♦    ♦    ♦

घर आवाज़ों से भरा रहता है। साथ वाले कमरों से, लॉबी-किचन से, ड्राईग-डाइनिंग से, छत-टेरेस से तीखी-मंद आवाज़ें आती रहती हैं। सब जानती-पहचानती हूँ, महसूसती हूँ। सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने की आवाज़ का अंतर भी पता चल जाता है। चिल-पों, उछल-कूद, गीत-संगीत, लड़ाई-झगड़े, मेहमान-मित्र— हंगामा ही हंगामा है। शान्ति तो है ही नहीं इस घर में। अपने में ही लगे रहते हैं। मेरे लिए अलग आया रख दी और उत्तरदायित्व ख़त्म। इतना भी नहीं कि रोज़ सुबह की चाय मेरे कमरे में आकर पी लें, डिनर यहाँ कर लें, थोड़ा बतिया लें, कोई सलाह-मशवरा ले लें। हाथ पकड़ बाहर का चक्कर लगवा आयें। बड़ों का मान–सम्मान करने से इनका क़द छोटा थोड़े हो जाएगा। वह मन ही मन बुदबुदा/कुनमुना रही थी। इससे अच्छी तो अपनी पड़ोसिन की ज़िन्दगी है। बेटा बाहर है, घर में शान्ति तो है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

डॉ शैली जग्गी 2025/06/11 01:26 AM

लघुकथा हो कर भी स्थिति का सिहांवलोकन... एक कहावत याद आ गयी... शादी का लड्डू जो..... डॉ मधु संधु की विशिष्टता ही यही है कि वह यथार्थ को भी ऐसा उकेरती हैं कि पाठक चौंक उठता है... अरे यह पक्ष तो देखा और सोचा ही नहीं... साधारण को ख़ास और आकर्षक बनाना आपको बाखूबी मालूम है... शुभकामनाएँ!

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

लघुकथा

कविता

साहित्यिक आलेख

शोध निबन्ध

कहानी

रेखाचित्र

यात्रा-संस्मरण

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं