अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्मृतियों में संचित मसूरी

कुछ ऐसा कोहरा कि पता ही न चले कि धरती कहाँ से ख़त्म होती है और आकाश कहाँ से शुरू होता है। चौमासा चल रहा था। सावन बीत चुका था। भाद्रों ने दस्तक दे दी थी। जन्माष्टमी आ गई थी। चौमासा! जो कहता है, बहुत काम निपटा लिए, रुको, थोड़ा विश्राम कर लो। इसी विश्राम के लिए हम सपरिवार मसूरी के लिए 18 अगस्त को प्रात: पाँच बजे रवाना हो लिए। लंबा दस-ग्यारह घंटे का सफ़र और भीगा-भीगा मौसम। रास्ते में एक-आध ब्रेक भी। कमर्शियल गाड़ी थी। इसलिए इसे बहुत दूर रोक दिया गया। रिक्शे पर सामान के साथ सवार होकर हम होटल पहुँचे। 

सुबह पाँच बजे चलकर शाम तक ही हम अपने गन्तव्य ‘हनीमून इन’ पहुँच पाये। कमरे आरक्षित थे। स्पोर्ट्स रूम/ हाल बच्चों के आकर्षण का मुख्य केंद्र रहा। मैनेजर कोट-पैंट में, सफ़ाई कर्मचारी काली ड्रेस में और बैरे तथा किचन में काम करने वालों ने पैंट-शर्ट के ऊपर हल्के ग्रे रंग की, थोड़े सिल्की कपड़े, ब्रोकेट की, हल्के प्रिंट की फिल्मी सी जैकेट पहन रखी थी। ‘हनीमून इन’ का इनसिग्निया चोंच लड़ा रहे दो पक्षी शीशे के हर गिलास पर बने थे। एक ही फ़्लोर पर हमें पाँच कमरे मिल गए। कुछ सेटिंग, कुछ रेफ़्रेशमेंट के बाद तरोताज़ा होकर माल रोड का चक्कर लगाने चल दिये। मीलों लंबा चढ़ाई-उतराई वाला मालरोड, थकान तो थी, लेकिन एक छोटी सी दुकान पर अमृतसरी कुल्चे-छोले का बोर्ड देख पाँव ठिठक गए। 

वर्षा ऋतु ने सारी घाटी नहला कर तरोताज़ा कर दी थी। हर ओर हरीतिमा थी। सफ़ेद, दूधिया, सलेटी, मटमैले बादल लगातार उठ रहे थे-कभी इस पहाड़ी से, कभी उस पहाड़ी से। एक पल खिड़की से दिख रही पहाड़ी का सारा परिदृश्य दूधिया बादलों और कोहरे से भर जाता और कुछ देर बाद सिर उठा कर देखो तो उनका नामोनिशान तक नहीं। दूर-दूर तक हरीतिमा ही दिखाई देती। अभी बूँदाबाँदी, अभी तेज़ बौछारें और पल भर में आकाश साफ़-इतना चंचल और गिरगिटिया मौसम। कभी मटमैली और कभी उजली धूप। रंगबिरंगे, धारीदार, फूलदार छाते लिए जगह-जगह फ़ेसबुक/ इनस्टाग्राम के लिए फोटो के लिए पोज़ बनाते लोग। कैसा मौसम है? बैठ जाओ तो ठंडा, चढ़ाई-उतराई पर हो तो गरम वस्त्रों का प्रश्न ही नहीं। 

यह होटल की चौथी मंज़िल थी और सचमुच आश्चर्य ही था कि उन्होंने यहाँ कार-पार्किंग भी बनाई हुई थी। दूर-बहुत-दूर, नीचे-ऊपर, महीन सी सड़कें और उन पर भाग रही खिलोनों सी कारें-भ्रम होता कि कहीं हम बुर्ज ख़लीफ़ा की 163 वीं मंज़िल पर तो नहीं खड़े। बंदर इधर-उधर कुलाँचें भर रहे थे। 

मसूरी उत्तराखंड राज्य के, नैनीताल ज़िले में, सागर से 1880 मीटर की ऊँचाई पर, शिवालिक पर्वतमाला में स्थित शांत पर्वतीय खंड हैं। यह देहरादून से 35, दिल्ली से 250, सहारनपुर से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी लिए है और मेरे शहर अमृतसर से 450-500 किलोमीटर तो पड़ ही गया होगा। जाती बार हम राजपुरा की तरफ़ से गए और वापसी में सहारनपुर की ओर से आए। कहते हैं कि यहाँ होने वाले मंसूर नाम के एक पौधे के कारण इसका नाम मसूरी पड़ा। लगता पूरे देश का फ़ैशन यहाँ बिखरा हुआ है। लड़कियाँ पौनी में, खुले बालों में, बॉब में, ब्लाण्ड में, स्कर्ट में, जीन्स/जौगिंग में, बिना बाज़ू में, पूरी बाज़ू में। प्रौढ़ाएँ जीन्स में, फ़्रॉक्स में, मिडी में, बिना दुपट्टे के सूट में। हाँ! पाँवों में सबके स्पोर्ट्स शूज़ ही थे। जा और आ रहे लोग खिड़की से ही पहचाने जा रहे थे। जाने वालों की चाल में चपलता, चंचलता, एटीच्यूड था और लौट रहे थे—हाँफती साँसों, लड़खड़ाती चाल और दम तोड़ती थकान के साथ। छोटे बच्चों का तो अंदाज़ ही अलग था। अपनी मनपसंद की ख़रीददारी के बाद उनके लिए एक क़दम भी उठाना दूभर हो रहा था। अब चाहे गोदी में उठाओ, प्रैम में बिठाओ या रिक्शा कर दो। यहाँ के रिक्शा भी कुछ अलग थे। बड़ी सी टीन की छत-शायद बारहमासी बौछारों से सवारियों को सुरक्षा देने के लिए। 

दूर-दूर तक फैले होटल—मानों आकाश से पाताल तक। रात के समय पहाड़ियों के झुण्ड जगमगा उठे। दूर घाटी में भी असंख्य सितारों सी रोशनियाँ झिलमिलाने लगी। जुगनुओं सी टिमटिमाती रोशनियाँ। क्या यह मसूरी के होटल हैं? क्या यह दून घाटी है? क्या यहाँ के रहवासियों के आवास चमक रहे हैं? 

मोबाइल नेटवर्क की समस्या भी आ रही थी और बहुत बार तो काल भी नहीं हो पा रही थी। 

कैमल बॅक रोड तो मसूरी का हृदय स्थल है। यहाँ तो आना ही था। ऊँट के कूबड़ जैसी ही है—यह सड़क। तीन किलोमीटर लंबी यह सड़क लाइब्रेरी पॉइंट से शुरू होकर कुलरी बाज़ार तक जाती है। किराये की साइकिल ले बच्चे मस्ती करने लगे थे। वर्षा तो हुई, लेकिन यह आनंदित कर रही थी। छाते खोलने की ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई।     

उत्तराखंड की ख़बरें आ रहीं थीं, डरा भी रहीं थीं। देहरादून में बादल फटे . . . टिहरी में लैंड स्लाइडिंग . . . इतने रास्ते बंद हो गए, इतने खुल गए। यूँ तो इस बार खिड़की के जादू ने ही बाँधे रखा। फिर भी इतनी दूर आकर कमरे में सिमट कर तो रहा नहीं जा सकता था। 13 किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता तय कर कैंपटी फ़ॉल जाने का मन बनाया और बच्चे–बड़े ब्रेकफ़ास्ट के बाद गाड़ी की ओर चल दिये। कई लोग तो बाइक से भी जा रहे थे। पहुँचते ही बहुत अच्छा लगा। यहाँ का दृश्य नयनाभिराम था। वॉटर फ़ॉल और झील में मस्ती कर रहे पर्यटक। बैठ कर थकान दूर कर रहे प्रौढ़ और यहाँ-वहाँ फोटो ले रहे युवा। बच्चों का ध्यान खाने-पीने की चीज़ों की तरफ़ भी था। कहते हैं कि अँग्रेज़ों ने यह जगह अपनी पिकनिक या चाय पार्टी के लिए बनाई थी। 

लेकिन क्या मालरोड, कैंपटी फ़ॉल या कैमेल बॅक रोड ही मसूरी है? क्या गाड़ी में बैठकर ऐसे पहाड़ी प्रदेश का पूरा मज़ा लिया का सकता है? मसूरी में ‘माउंटेन बाइक राइड’ सबसे मज़ेदार चीज़ है। एक रोज़ ‘माउंटेन बाइक राइड’ का आनंद भी लिया गया। होटल वालों ने ही एक्टिवा स्कूटर मँगवा दिये थे। 600/-रुपये एक स्कूटर का किराया और पेट्रोल अपना-अपना। हर स्कूटर पर दो-दो सवारियाँ। उन सड़कों पर ड्राइव करने का मज़ा ही कुछ अलग था। लंबी, गोलाकार, शांत, सड़कें। चार दुकान और फिर लाल टिब्बा। लाल टिब्बा का कैफ़े—जहाँ रेफ़्रेशमेंट ली गई। मसूरी की सबसे ऊँची चोटी लाल टिब्बा है। यह कोई आठ किलोमीटर के फ़ासले पर होगी। यहीं रास्ते में रस्किन बॉण्ड का निवास पड़ता है। सूर्यास्त और सूर्योदय के समय पहाड़ की इस चोटी का रंग लाल और ऑरेंज हो जाता है। इसीलिए इसे लाल टिब्बा कहा जाता है। कहते हैं कि पूरे विश्व में ऐसा केवल दो जगहों पर ही होता है—स्विट्ज़रलैंड और मसूरी का लाल टिब्बा। बाइनोकुलर से दूर-दूर की पहाड़ियों—बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री को देखने का मज़ा ही कुछ और होता है, लेकिन उस दिन काफ़ी कोहरा था। हमें प्रकृति के इस भव्य दर्शन से वंचित ही रहना पड़ा। हम होटल से दोपहर एक बजे चले थे और छह बजे तक लौट आए। 

विडम्बना देखिये कि अगले दिन तक तबीयत ही नासाज़ हो गई और मेरी मसूरी यात्रा स्फटिक गवांक्ष तक सीमित होकर रह गई। अफ़सोस एक ही रहा कि माल रोड की जिस सड़क पर हम निकलते थे, जहाँ से सबने अपने और अपनों के लिए ख़रीददारी की, वह सड़क लगभग टूटी-फूटी, गड्डों से भरी थी। पता नहीं इसका कारण पहाड़ी प्रदेश में होने वाली लगातार वर्षा थी या कुछ ओर। 

मसूरी भारत के सर्वाधिक मशहूर हिल स्टेशनों में से एक है। यहाँ के झरने, झील, बर्फ़ से ढके पहाड़, हरीतिमा पर्यटकों को बार-बार आने के लिए आमन्त्रित करते हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अंडमान—देश का गौरव 
|

जमशेदपुर से पाँच घंटे की रेल यात्रा कर हम…

अरुण यह मधुमय देश हमारा
|

इधर कुछ अरसे से मुझे अरुणाचल प्रदेश मे स्थित…

उदीयमान सूरज का देश : जापान 
|

नोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

पुस्तक समीक्षा

लघुकथा

शोध निबन्ध

कहानी

रेखाचित्र

यात्रा-संस्मरण

कविता

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं