यह क्या जगह है दोस्तों
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. मधु सन्धु10 Jul 2008
समीक्ष्य कृति : यह क्या जगह है दोस्तों
(कहानी संग्रह)
लेखिका : कृष्णा अग्निहोत्री
प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
जयपुर एवं दिल्ली
प्र. सं. : २००७
मूल्य : २०० रुपये
यह सच है कि बार-बार नारी की पीड़ा को कहना एक कील की चुभन है पर कई हजार साल से यह दमन की कील जो चुभी है उसे निकालना सरल भी तो नहीं, क्योंकि वह स्वयं ही उसे कभी कभी संस्कारों व कभी परिस्थियों एवं रीति-रिवाजों के कारण निकाल नहीं पाती। विद्रोह की शक्ति वह पहचानती नहीं..........गोल-गोल घूमकर भी वह नारी प्रगति के चौराहे पर भौंचक खड़ी है कि प्रगति क्या है...... शक्तिपूर्ण होकर भी सही दिशा अभी तक नहीं पकड़ पाई। (रैपर-१ यह क्या जगह है दोस्तों) कृष्णा अग्निहोत्री की कथायात्रा चार दशक लम्बी है। उनका प्रथम कहानी-संग्रह टीन के घेरे १९७० में अक्षर प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ था और आज चौदहवाँ कहानी संग्रह यह क्या जगह है दोस्तों नेशनल पब्लिशिंग हाउस जयपुर एवं दिल्ली से २००७ में प्रकाशित होकर पाठकों के पास पहुँचा है। तेरह कहानियों का यह संकलन १५६ पृष्ठों का है। सभी कहानियाँ भले ही परिवेशगत, संघर्षगत विविधता लिए हों, लेकिन केन्द्र में नारी वेदना और उसकी यातनाएँ ही हैं। हर कहानी में प्रगति के चौराहे पर असमझ में त्रिशंकु की तरह खड़ी भारतीय नारी है।
इन कहानियों का परिक्षेत्र अति व्यापक है। प्रथम पुरुष में पंजाब का पठानकोट शहर और बम्बई है। मुआवजा में नर्मदा के आसपास का क्षेत्र है। प्रेतों का फतवा में मोना और सुनील अमेरिका एवं दुबई में जा बसे हैं। उसका इतिहास में जबलपुर शहर है। कुल कलंकिनी की वसु कस्बे में रहकर भी ग्वालियर-इन्दौर आती जाती रहती है। कस्तूरी महक उठी का घटनास्थल बिहार का एक गाँव है। एक अनकही ग़ज़ल में मध्यकाल की दिल्ली है। मुआवजा की गोदावरी बसोड़ है। बाबुल की सोन चिरैया के पात्र वनजारे हैं। एक इंसान की मौत की नायिका अविकसित शरीर की यानी हिजड़ा है। तंद्रा और एक इंसान की मौत में आदिवासी जनजीवन के शेड़स हैं। प्रथम पुरुष साहित्यिक गोष्ठियों एवं सम्मानों के छद्म खोलती है। चक्रव्यूह का नायक चित्रकार है। यह क्या जगह है दोस्तों की नायिका संगीतकार है। घरेलू नौकरानियों से लेकर मजदूर, ड़ाक्टर, टीचर, आफिस में काम करने वाले, फिल्मी दुनिया के डायरेक्टर, जज, पंच सरपंच -सब प्रकार के पात्र यहाँ मिलते हैं।
संग्रह में ऐतिहासिक, राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक यथार्थ सब हैं, लेकिन अग्निहोत्री का हाथ मुख्यतः नारी की फड़कती रगों पर ही है। संकलन की तेरह में से ग्यारह कहानियाँ नायिका प्रधान हैं। मुआवजा और चक्रव्यूह दो कहानियाँ नायिका प्रधान नहीं हैं, लेकिन मुआवजा की गोदावरी और चक्रव्यूह की कालान्तर में प्रेमी को पिता कहने वाली स्त्री की मानसिकता को अग्निहोत्री ने खुलकर उजागर किया है।
एक अनकही गजल तेहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध यानी खिलजी वंश के पतन और गुलाम वंश के अभ्युदय काल के बीच का इतिहास लिए है। कहानी उच्चवर्गीय हिन्दू स्त्री की करुण कथा लिए है। रायकरण जैसे कमजोर राजा मंत्रियों की स्त्रियों को उपभोग करते है और सशक्त अलाउद्दीन के यहाँ काफिर और मुस्लिम स्त्रियों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय दर्जे के कई कई हरम हैं यानी औरत होना ही पाप है और उस पर सुन्दर होना तो उसके लिए अभिशाप है। यह निष्कर्ष लेखिका ने भारतीय इतिहास के गहन अध्ययन, चिंतन, मनन, मंथन के बाद निकाले हैं।
मुआवजा में नर्मदा परियोजना के संदर्भ में सत्ता (पटवारी एवं पुलिस) द्वारा शोषण, प्रशासनिक धाँधलियाँ, राजनैतिक षडयंत्र एवं आम आदमी की त्रासदी है। यहाँ मोहन राकेश की क्लेम, मलबे का मालिक या परमात्मा का कुत्ता जैसे विस्थापित नहीं मिलते, यहाँ परियोजनाएँ श्रवण और गोदावरी जैसों को विस्थापित बना उनके प्राण ले रही हैं और अनवर साहब या पटेल जैसे लोग करोड़ों के मुआवजे हड़प रहे हैं। टपरेवालों को कौन सा कानून और सत्ता मुआवजा देगी? न उनके पास राशनकार्ड है, न परिचय-पत्र, न विस्थापित होने का सर्टिफिकेट, न फाइल पर रखने के लिए रिश्वत का वजन। एक इंसान की मौत की ढुलारी निर्दलीय खड़ी होकर चुनाव जीतती है। जीवन पर्यन्त इंसानों व इंसानियत के लिए जीती हैं, फिर भी चार पुरुष मिलकर उसकी हत्या कर देते हैं। उसका चुनाव जीतना मर्दों को चुनौती सा लगता है-स्याली कुतिया ! अरे औरत का जन्म लिया है तो घर में औरत की तरह पड़ी रहती, मर्दों से पंगा ले रही थी। बड़ी आई स्वतंत्र पार्टी वाली ! अब जा यमराज की पार्टी में। (पृ० ८९)
घरेलू नौकरानियों के सहानुभूति पूर्ण चित्र आँकने में भीष्म साहनी की बबली का मुकाबला नहीं, लेकिन कृष्णा अग्निहोत्री की चिंता घरेलू नौकरानियों और उसके परिवार द्वारा गृहस्वामिनी के शोषण की दलित विरोधी कहानी है।
संबंधगत अकेलापन उनके पात्रों को गोद-गोद कर खा रहा है। यह क्या जगह है दोस्तों की संगीतकार ऋतु के पास न पति है, न प्रेमी, न बच्चे। यह औरत प्रेमी की ऐय्याशियों को ढोती रही है। पति की मृत्यु के बाद बच्चे उसके मूवी या टी० वी० देखने, संगीत सुनने या रियाज करने, रेडियो प्रोग्राम देने या फोन करने, किसी शादी-विवाह में जाने तक पर पाबंधी लगा देते हैं। यहाँ तक कि उसे साज बेच कम्प्यूटर खरीदने के लिए कहा जाता है। बाबुल की सोनचिरैया कभी सुखी नहीं रह सकती। सरपंच मैडम जितने भी भाषण दे कि अब मैं सरपंच हूँ- किसी स्त्री पर इस गाँव में जुल्म न होगा।(पृ० १०७) न्याय की गुहार लगाने से पहले ही पति-सास द्वारा सुमन का गला दबा उसे परलोक पहुँचा दिया जाता है। पंचायत बिठाएगी, मेरी फुलवा छुड़वाएगी? मैं तेरी दुनिया ही छुड़वा देता हूँ। कुछ कहानियाँ तो पीढ़ियों तक चलने वाले नारी दमन को लिए हैं।
कमाने वाली औरत इस समाज में सबसे अधिक पीड़ित है। वह शादी करना भी चाहती है और पितृ परिवार को आर्थिक संबल भी देना चाहती है। यह औरत अगर अविवाहित है तो प्रेतों का फतवा , तंद्रा, प्रथम पुरुष, कुलकलंकिनी के भाई- बहनों, माँ एवं प्रेमियों की तरह सब उसका शोषण करते हैं। परकीया बनकर जीवन बिताना उसकी नियति है और मरकर भी वह अपने भाई-बहनों के लिए प्रेमियों की जायदाद छोड़ जाती है। अगर विवाहित है तो है तंद्रा की शबाना/कविता की तरह महेन्द्र और उसके निठल्ले परिवार को ऐशो आराम की जिंदगी देती है या यह क्या जगह है दोस्तों तथा उसका इतिहास की ऋतु एवं मानवी की तरह अपने ही बच्चों से प्रताड़ित होती है।
फिर भी अग्निहोत्री के पात्र सजग और सक्रिय है। प्रथम पुरुष की ईशा अपने उद्वेलन को प्रथम पुरुष उपन्यास में उंड़ेल देती है। प्रेतों का फतवा की बबली भाई के विरुद्ध अपने जायदादी हिस्से के दावे हेतु केस दाखिल करती है। तंद्रा की शबाना अपने पति और बच्चों में ही जीवन सुख खोज लेती है। कस्तूरी महक उठी के वृद्ध, लाचार एवं उपेक्षित त्रिपाठी जी अंत तक आते आते पत्रकार रीना की प्रेरणा से गांव के अनाथ एवं उपेक्षित बच्चों को पढ़ाने लगते हैं।
चक्रव्यूह, प्रथम पुरुष, यह क्या जगह है दोस्तों आदि में पत्नी गौण और प्रेमिका प्रमुख है। किशोर प्रेम इन कहानियों में है ही नहीं और अगर है तो वासना प्रदान। चक्रव्यूह, यह क्या जगह है दोस्तों आदि के नायक-नायिकाएँ साठ-पैंसठ के पार खड़े संन्यास या वानप्रस्थ को चुनौती देते अकेलेपन की आड़ में आदम-हव्वा बन अपने प्रेम संबंधों की दुहाई दे रहे हैं।
प्रकृति चित्रण, मनोविज्ञान की स्थितियाँ (ईशा स्वप्न में छह फीट लम्बे जिस साँप को देखती है, उस सर्प का मुख राघव जैसा ही है।) तथा सूत्र-वाक्य कहानियों के कलात्मक सौन्दर्य तथा अर्थगाम्भीर्य को सँवारते हैं यथा प्रार्थना से राक्षसों को नहीं मारा जा सकता। उसके लिए तो मजबूत फरसे की जरूरत होती है। (पृ० ७२) आदमी को दर्द की भाषा से अधिक मतलब की जुबान समझ आती है। (पृ० ७५) कहानियों की रचना प्रक्रिया के लिए पाठक लगता नहीं है दिल मेरा आत्मकथा भी पढ़ सकता है।
निष्कर्षतः इन कहानियों में औरत के दो चेहरे ही मुख्यतः उभर कर आते हैं। एक चेहरे में वह प्रसन्न आकर्षक रूप लिए किसी का प्यार भरा आलिंगन करने के लिए बाहें फैलाए खड़ी है इस भूमिका में परिवार, समाज, बच्चे सब छोटे हैं। दूसरे रूप में उसका एक पैर दरवाजे के अंदर और दूसरा बाहर है। समाज और बच्चों के बंधन में बंधी यह स्त्री डरी और घबराई हुई है।
डॉ० मधु सन्धु ,
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
गुरुनानक देव विश्वविद्यालय,
अमृतसर-१४३००५, पंजाब।
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