अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोचना : सतरंगे स्वप्नों के शिखर - डॉ. नीना मित्तल

पुस्तक: सतरंगे स्वप्नों के शिखर 
कवयित्री: डॉ. मधु संधु 
समीक्षक: डॉ. नीना मित्तल
प्रकाशक: अयन, दिल्ली
वर्ष: 2015 
पृष्ठ संख्या: 110
मूल्य: 240 रुपये
आई.एस.बी.एन. : 978-81-7408-842-0

आधुनिक हिंदी साहित्य जगत में डॉक्टर मधु संधु एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। बहुमुखी रचना संपन्न लेखिका के कहानी संग्रह, अनेकों शोध ग्रंथों, अनुवादों, अनेक पत्रिकाओं में छपे उनके लेखों के अथाह जल परिमल के मध्य "सतरंगे स्वप्नों के शिखर" उनका प्रथम कविता संग्रह है। लगभग ४९ कविताओं का यह रचना समूह हमें जीवन की जहाँ बड़ी से बड़ी विसंगति से रूबरू करवाता है, वहीँ उनकी ज़िन्दगी को तरंगित कर देने वाली एक छोटी सी हरक़त भी उससे छूट नहीं पाई।

अधिकतर कविताएँ मुख्य तौर पर "नारी विमर्श" के दायरे में रहकर लिखी गई हैं, पौराणिक युग से लेकर आज की औरत की व्यथा कथा कही गयी है। स्त्री विमर्श कविता में लेखिका ने लिखा है –

तुम्हें पता है
राजकन्याओं की नियति
डम्बो पति
माओं की आज्ञाएँ शिरोधार्य करके
पत्नियों को मिल बाँट चखते थे
शूरवीर पांडवों की तरह।

वह पुरुष के पाशविक निर्णय का दंश सहती हुई स्वयं को पीड़ा की गहरी खाई में धकेलती रहती है क्योंकि जानती है कि पुरुष का न्याय सदैव ही उसका यातना शिविर रहा है। "मेरे देश की कन्या" की नियति के बारे में वे कहती हैं -

मेरे देश की स्त्री
इंद्र के बलात्कार और
गौतम के शाप की शिकार अहिल्या थी
जो पत्थर बन सकती थी
क्योंकि उसे मालूम था कि
राजन्याय मिलता तो
भंवरी बाई से अलग नहीं होता।

इस न्याय की कड़ी में वह राम के देवत्व को भी महामानव का नाम नहीं दे पाती क्योंकि आज के रावण को राम नहीं बल्कि महा रावण ही मार पायेगा। बुराई का अंत अच्छाई से नहीं बल्कि अति बुराई से ही हो पायेगा। अपनी कविता महा रावण में कवयित्री लिखती है –

कितना बड़ा झूठ है
कि
रावण मरते हैं
उन्हें मारने के लिए
राम की नहीं
महा रावण की आवश्यकता है।

वास्तविकता की अनुगूँज से अनुप्रेरित यह कविताएँ अत्यंत मर्मस्पर्शी हैं।

उनकी स्त्री विमर्श को रेखांकित करती हुई कविताएँ हमारी धर्म और न्याय व्यवस्था के मुँह पर करारा तमाचा है जिसमें प्रत्येक क्षण औरत को अग्निपरीक्षा देनी पड़ी है। मजबूरी में किए हुए उसके हर त्याग को आज उसकी मेहनत की पराकाष्ठा मानकर उससे वही अपेक्षा की जाती रही है परन्तु नारी सशक्तिकरण की राह में आज की विवेकशील नारी आसमान की बुलंदियों को छूना तो चाहती है पर पैर ज़मीन के ठोस धरातल पर रखकर उन्नति का अमृत चखना चाहती है। वह पहचान पाना चाहती है अपने पंख काट कर हवा में उड़ना नहीं चाहती।

सतरंगे स्वप्न पूरे करके भी
मेरे पैर धरती पर
जमे रहें
जमे रहें।

नारी की अर्थ स्वतंत्रता ने आज पितृसत्तात्मक ढाँचे को चरमरा दिया है। लेखिका लिखती है-

अर्थ स्वतन्त्र स्त्री ने
पुरुष सत्ताक सिंहासन के
ट्रेड सेंटर को
आतंकवादियों सा गिराया है
परिवार तंत्र में एक नया अध्याय भिड़ाया है।

इस संग्रह में कवयित्री ने समाज में गहराते प्रश्नों के दंश की पीड़ा को महसूस किया है। वहीं उन्होंने छोटी-छोटी समस्याओं को भी महत्व दिया है जो निजी जीवन में इतनी महत्वपूर्ण लगती हैं कि उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। नौकरी के लिए जाने पर पीछे नौकरानियों के एकछत्र निष्कंटक साम्राज्य की समस्या है क्योंकि नौकरों के बिना स्वयं नौकरी नहीं की जा सकती। अपनी कविता मेमसाहब में लेखिका लिखती है –

जब तुम अपनी डेढ़ छटांक की लौंडिया को
मेरे सहारे छोड़
सुब्हे नौ बजे निकल जाती हो
तो यहाँ सिर्फ मेरा ही राज चलता है।

ग्रेडेड वेतन पाने वाले सेवा कर्मचारियों को अर्धसरकारी संस्थाओं से सेवाएँ प्राप्त करने के लिए चक्कर लगवाये जाते हैं।

शिक्षा का बाज़ारीकरण करते एँट्रेंस टेस्टों की विभीषिका का वर्णन करते हुए वे कहती हैं -

स्कूल / कॉलेज / विश्व विद्यालय
निपट भी जाए तो भी
दैत्याकार सा एँट्रेंस
रास्ता रोके खड़ा है।

सेमिनार महोत्सव मनाने के लिए प्रतिबद्ध प्राध्यापक वर्ग है और यहाँ प्रमाणपत्रों का तामझाम बिकता है। उलझे विचारों के व्यापारी अपनी विचार मुद्रा का विनिमय करते हैं और प्रतिभागियों को सारी श्रृंखला का शिकार होना पड़ता है। संगोष्ठी कविता में इस हक़ीक़त को बयान करती हुई वे लिखती हैं -

लो खुल गया
विश्व विद्यालय अनुदान आयोग का पिटारा
ले जाओ संगोष्ठियाँ
बटोर लो प्रमाण पत्र
प्रमोशन के लिए।

सामाजिक परिवेश से सम्बद्ध लेखिका पारिवारिक परिवेश से भी उसी तरह घिरी है जैसे अशोक के वृक्षों की कतारबद्धता से सुसज्जित घर का सलोना बगीचा। जिसमें आत्मीयता की नरम घास बिछी है। पारिवारिक रिश्तों के गहराते अहसास मर्म को छू जाते हैं। टीसते रिश्तों व उत्सव लगते रिश्तों का सहज वर्णन है, तलाश है, प्रतीक्षा है माँ-बेटी-नानी की कड़ी को जोड़ती रिश्तों की गरिमा है।
यह पूरा काव्य संग्रह माँ-बेटी के अनन्य रिश्ते के एक परकोटे से घिरा हुआ लगता है जिसमें माँ हर पल अपनी बेटी के साथ ही बड़ी होती है। क़दम-क़दम पर सखी, सहेली, सहचरी बन साथ निभाने वाली बेटी कब बड़ी होकर ससुराल चली जाती है और मन को उसके मेहमान बन जाने की वेदना को सहन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अपने दाम्पत्य जीवन में शारीरिक व मानसिक रूप से कोल्हू के बैल की भाँति पिसती पुत्री बाहर से टोकरी भर रुपये लाकर भी घर में दोयम दर्जा ही प्राप्त करती है। बेटी के शरीर पर पड़ती हुई इस एक–एक सिलवट की जकड़न माँ के सिवाय कोई और नहीं जान पाता। बेटी के प्रति इतनी संवेदनशील माँ अपने नाती नातिनों के लिए अत्यंत उदार, स्नेहशील हो उठती है। दूसरों के लिए अमंगलकारी शनिवार उसे अपने लिए उत्सव का दिन लगता है। दीपावली लगता है। उन्हें देखकर नानी का दिल बेवज़ह खुशियाँ मनाता है। इन कविताओं को पढ़ कर ऐसा लगता है कि लेखिका की दुनिया इन बच्चों के आसपास सिमट गई है। यहाँ तक कि बड़े होते हुए सहोदर रिश्तों में धीरे-धीरे कैसी परिपक्वता आ जाती है, इस अंतर को उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से उकेरा है।

सारी दुनिया, सारे नाते रिश्तों की बात करने के बाद कहीं एक कोना ऐसा बचता है जहाँ निजता छिपी पड़ी रहती है। उस निजता में अपने जीवन के रागात्मक तंतु के खो जाने की टीस है, महत्वाकांक्षाओं की आसमानी बुलंदियों में हाथ छूट जाने का दर्द है। अपनी पीड़ा को जुबां देती हुई लेखिका कहती है -

तुमने पल में झटक डाला हाथ मेरा
साथ मेरा
और छूते बादलों को मान बैठे
छू लिया अंतिम शिखर।

ज़माने के बदलते तौर-तरीक़ों में जीवन की बदलती भूमिकाओं में स्नेह का धागा चटखता जा रहा है। व्यक्ति से शून्य हो जाने की वेदना, मौत से पहले मरने की अनुभूति तब गहरी गंभीर हो जाती है जब रिश्तों पर कटार चल जाती है। बिना किसी शर्त के जीने की सुविधा नहीं रहती और दोनों ओर प्रेम पलता है का एहसास गुम हो जाता है। लेखिका लिखती है -

मेरी उम्र सिर्फ उतनी है
जितनी अनामिका की अंगूठी से
सिंदूरबाजी से
मंगल सूत्र धारण से पहले
घूँट घूँट पी थी।

अपनी माँ से जुड़ाव की अनन्यता व पिता के प्रेम की गरमाई का रेत की तरह हाथ से फिसल जाना और माँ की तपस्या से जीवन की सफलता हासिल होने की गहरी अभिव्यक्ति इन कविताओं में सँजोई गई है। लेखिका माँ कहने व माँ बनने के दोनों अनुभवों को भरपूर जीती है। सफलता के शिखरों को न छू पाने के कारण आज की युवा पीढ़ी प्रवास के लिए मजबूर है। यही मजबूरी आज स्टेटस सिंबल व सफलता का पैरामीटर बन चुकी है। अकेले होना व अकेले कर जाने की व्यथा से कहीं दूर पितृऋण चुकाने की उड़ान बन गई है।

अपनी कविताओं में लेखिका ने समय को बड़ी सुंदरता से परिभाषा बद्ध किया है। बदलती परिस्थितियों, बीतते वक्त और विभिन्न भूमिकाओं में समय के परिवर्तन का बख़ूबी चित्रण किया है। स्वयं के पास समय के सागर का सैलाब और दौड़ती भागती बेटी का समयाभाव का सुन्दर वर्णन है
लेखिका कहती है-

पर उम्र उम्र की बात है
उधर समय का अकाल है
इधर समय का सैलाब है।

कवयित्री को कहीं ऐसा लगता है इस ऊहापोह में स्नेहाभाव रिसने लगा है। समय की कमी ने कंप्यूटर की "लाइक" तक सीमित कर दिया है। कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि डॉ. मधु संधु जी का यह काव्य संग्रह भाव पक्ष के जिन विचार बिन्दुओं की सतरंगी इंद्रधनुषी छटा को लिए चला है, अपने कलापक्ष के माध्यम से उनकी अभिव्यक्ति में भी उन्होंने कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी।

रचना संग्रह में तत्सम, तद्भव तथा आधुनिक अंग्रेज़ी शब्दों की अद्भुत छटा देखने को मिलती है। इन शब्दों का चयन लेखिका की रचना के मर्म को सम्प्रेषित करने में पूरी तरह सहायक है। अंग्रेज़ी भाषा के प्रचलित शब्द व्हाट्सप्प, लाइक, कमेंट करना, चैटिंग करना इत्यादि समयानुरूप शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी ‘सहोदर’ ‘किशोर स्टाफ’ जैसी कविताओं में चित्रात्मकता झलकती है। रोगों में जिजीविषा पैदा करने के साथ-साथ जो उसे इकसठ से सोलह की तरफ मोड़ने का जोश प्रदान करती है।

अतः डॉ. मधु संधु का यह काव्य संग्रह अपनी संवेदनशीलता, समाज सापेक्षता, वैयक्तिता, परिवेशमयता, रिश्तों की बुनावट के गहरे सरोकार लिए हुए है।

द्वारा - डॉ. नीना मित्तल
प्रोफेसर
हिंदी विभाग
प्रेम चंद मारकंडा एस डी कॉलेज
जालंधर शहर, पंजाब। .

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

साहित्यिक आलेख

लघुकथा

शोध निबन्ध

कहानी

रेखाचित्र

यात्रा-संस्मरण

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं