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प्रवास में बुद्धिजीवी-काँच के घर

काँच के घर
लेखक: हंसा दीप
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली,
मूल्य: २६० रुपए

‘काँच के घर’ कथाकार हंसा दीप का नव-प्रकाशित उपन्यास है। इससे पहले उनके तीन उपन्यास ‘बंद मुट्ठी’ (2017), “कुबेर’ (2019) और ‘केसरिया बालम’ (2020) तथा अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘काँच के घर‘ उपन्यास में 26 परिच्छेद हैं। हर परिच्छेद को एक व्यंजनात्मक शीर्षक दिया गया है। 

उपन्यास कोरोना काल के लॉक डाउन के अंतिम पड़ाव से शुरू होता है। कहानी अपने को उच्च कोटि का साहित्यकार मानने वाले कैनेडा निवासी नंदन पुरी और उनकी आसन्न प्रतिद्वंद्वी मोहिनी देववंशी आदि की है। नन्दन की संस्था ‘अर्ध्य’ और मोहिनी की ‘पपीहा’ है। सब ज़ूम पर हैं, सब गूगल मीट पर हैं, फ़ेसबुक लाइव पर हैं, वैश्विक संगोष्ठियों, वेबीनार पर है। कार्यक्रमों की इस बाढ़ में नंदन पुरी ने तो सौ सफल वेबिनार निपटा दिये हैं और मोहिनी देववंशी ने पच्चास ज़ूम वैश्विक सम्मेलन और पैंतालीस वेबीनार कर लिए हैं। 

उपन्यास मोहिनी या नन्दन के कोरोना काल के बाद के संकट, साहित्यिक संकट से जुड़ा है। ज़मीनी संगोष्ठियों के लिए मैन पॉवर और अर्थ शक्ति दोनों अनिवार्य हैं। लॉक डाउन में हुए वेबिनारों, संगोष्ठियों, फ़ेसबुक के लाइव कार्यक्रमों में स्क्रीन स्टार बने अथवा अपने को मानने वाले लोगों की तो यही कामना है कि लॉक डाउन और सोशल मीडिया का यह खेल चलता ही रहे। फ़ेसबुक, व्हाट्स ऐप पर बधाइयाँ, लाइक्स, कमेंट्स मिलते रहें। उपन्यास मैराथन दौड़ और होड़ का कथ्य लिए है। 

साहित्यकार की संवेदनहीनता का आलम यह है कि लोग रोटी के लिए तरस रहे हैं, नौकरी खो चुके हैं, आत्महत्याएँ कर रहे हैं और हमारे इन तथाकथित साहित्यकारों की ज़ूम पर कोरोना मौत विषयक चर्चाएँ चल रही हैं। वेबिनरों का यही सामयिक, सार्वकालिक, सर्वग्राही विषय बन कर रह गया है। श्वेत हिन्दी प्रेमियों को भी आमंत्रित कर क़द ऊँचा किया जा रहा है। मोहिनी हर सप्ताह दो वेबिनारों के आयोजन का प्रचार-प्रसार करती है। रिकॉर्डिंग यूट्यूब पर लगा सोशल मीडिया पर लिंक डाल देती है। भले ही न कोई इन वेबिनारों को सुनता है, न गोष्ठियों की कविताओं को। 

शोहरत और दौलत, यश और अर्थ की लिप्सा इन कुकुरमुत्ते की तरह फैले छद्म साहित्यकारों को चैन की साँस नहीं लेने दे रही। इनके पास समर्पण भाव नहीं, शातिरी है, ख़ेमे बदलने की तिकड़मबाज़ी है, झूठ, प्रपंच और धोखा है, गुटबंदी है, पर फिर भी संस्थाएँ नहीं चल रही। बड़े चालाक लोग हैं, संगोष्ठी पर भीड़ नहीं जम पाती, तो बिना किसी वक्तव्य या कविता पाठ के फ़ेसबुक पर फोटो डाल वाहवाही लूटने का मज़ा लेना चाहते हैं। बिना पढ़ाई और मेहनत के भारतीय विश्वविद्यालयों से शैक्षणिक डिग्रियाँ ख़रीदना चाहते हैं (भले ही उपसर्ग-प्रत्यय का अंतर भी न मालूम हो)। कला के कालाबाज़ार के अनेक रूप यहाँ चित्रित हैं। इस बाज़ार में साहित्यकारों द्वारा सम्मान पाने के लिए, अभिनंदन ग्रंथ लिखने अथवा लिखे-लिखाये पर हस्ताक्षर करने के लिए, अपने पर पत्रिकाओं के अंक निकलवाने या शोध ग्रंथ लिखवाने के लिए मोल-भाव किए जाते हैं, ख़रीद-फ़रोख़्त होती है, भारत कैनेडा के लिए फ़्री टिकटों के, खाने-रहने-घूमने के उपहारों का आयोजन होता है, विमोचन, समीक्षाएँ और लोकार्पण होते हैं। ई-सर्टिफ़िकेट और पुरस्कार दिये जाते हैं। बहुत बार साहित्यकार फूफा और दामाद सा अवांछित व्यवहार भी करते हैं। यह भिंडी बाज़ार है। सब बिकता है। राजनेता भी वोट ख़रीदने के लिए इस बाज़ार को सरकारी तड़का लगा रहे हैं, अपनी रोटियाँ सेक रहे हैं। कुछ कवि अपने निजी रोने-धोने की एकाध कविता हर संगोष्ठी में सुनाते हैं, कुछ कविता पढ़ने के लिये अधिक समय माँगते हैं, कुछ सालाना फ़ीस में कटौती चाहते हैं, अच्छे खाने की डिमांड करते हैं और कुछ बैठने के लिए वीआईपी सीट चाहते हैं। 

न इनके पास टीम वर्क का औदात्य है, न कोई साहित्यिक कला। हाँ नेट के विज्ञापनों की मदद से अपनी दो-तीन किताबों को सैंतालीस ई-बुक में बदलने का कौशल ज़रूर है। 

क्या भारत, क्या कैनेडा–सब ओर छद्म जाल है। भारत के यह साहित्यकार विदेश से सम्मान जुटाने और कैनेडा के साहित्यकार भारत से सम्मान जुटाने की तिकड़मी चालों में व्यस्त हैं। सब अंतर्राष्ट्रीय बने हुए हैं। इस हाथ ले, उस हाथ दे का व्यापार चल रहा है। 

उपन्यास में कुछ इतर विषय भी हैं। भारत से आलसी और आरामपरस्त लोग विदेश की धरती पर जाकर अगर सोचें कि सातवाँ आसमान छू लिया है, तो यह मात्र भ्रम है। ऐसे लोग यहाँ भी बेकार रहते हैं और वहाँ भी बेरोज़गार-ख़ानाबदोश। बच्चों को मिलने वाले चाइल्ड बेनीफ़िट और स्टेट के वेल्फ़ेयर फ़ंड से गुज़ारा करने वाले नन्दन जी की तरह। अंतर्देशीय विवाह भी हैं। जिंदल जी की पत्नी फ़्रेंच भाषी है। मोहिनी की बेटी गोरे से शादी करती है। 

यहाँ दो खल पात्रों के बीच चल रहे द्वंद्व, प्रतियोगिता, स्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष, अहम्मन्यता को चित्रित किया गया है। अखाड़े में कुश्ती के दाँव-पेंच लड़ रहे हैं दो खिलाड़ी। यह सब साहित्यिक ही नहीं पारिवारिक स्तर पर भी है। मोहिनी की अनब्याही बेटी का गर्भ ठहरना और फिर माँ को बताए बिना गोरे से शादी करने का सुन नन्दन जी का ठुमके लगाने को मन करता है:

“शरीर का हर अंग आइटम गर्ल की थिरकन का अनुभव कर रहा था। किसी का दर्द किसी के कलेजे की ठंडक बना . . . नन्दन जी की ख़ुशी का अतिरेक उनके चेहरे से झलक रहा था। यह सोचकर दिल को तसल्ली हुई कि अपने कट्टर दुश्मन और विरोधी कैंप में अब महीनों शान्ति रहेगी। बहुत उछल-कूद मचा रहे थे। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं।”1

मोहिनी की पारिवारिक, सामाजिक, साहित्यिक छवि को धक्का पहुँचाना उन्हें मन:संतोष देता है। नन्दन पुरी की बहू का घर छोड़ कर चले जाना मोहिनी के लिए अच्छी, संतुष्ट-आश्वस्त कर देने वाली ख़बर है, मन की मुराद का पूरा होना है।      

नामों में प्रतीकात्मकता नहीं, व्यंग्य है—मोहिनी, नन्दन, सुशांत, अशांत, विरही, विशेष, गुंजन, अनर्गल, सारस, मिस अनोखी आदि। 

उपन्यास परदे के पीछे की धाँधलियों को खोल रहा है। व्यंग्य भाषा उपन्यास की विशेषता है:

“सम्मान बिकते हैं, सम्मान ख़रीदे जाते हैं, सम्मान लौटाए भी जाते हैं . . . . . . सबसे अधिक नाम होता है लौटाने वालों का। . . .  लिया तो था सम्मान की रक्षा के लिए और लौटाया आत्मसम्मान की रक्षा के लिए।2

“गोरे मुखारविंद से हिन्दी सुनना कितना गर्व भरा था। गोरों के साथ हिन्दी भी गोरी होकर उनके मुख से उसृत होती थी।”3

“रंगों से भारी दुनिया में हिन्दी को गोरा रंग नसीब हो, यह हर हिन्दी भाषी के लिए गौरव की बात थी . . .गोरा अतिथि महाप्रभु की श्रेणी में होता।”4

“अगर हाथ लंबे हों तो छोटी रचना बड़ी हो जाती है। बड़ी ही नहीं, उस रचना के पंख निकाल आते हैं। फिर रचना के साथ रचनाकार भी भी हवा में उड़ने लगता है।5

व्यंग्य की धार को तेज़ करने के लिए हंसा जी मुहावरों-लोकोक्तियों का प्रचुर प्रयोग भी कर रही हैं। 

सूत्रात्मक वाक्यों की भरमार है:

  1.  घर वाले नाराज़ हों तो सीढ़ी पर चढ़ा हुआ आदमी भी नीचे गिर जाता है।6

  2. संदेहों की भीड़ में विश्वास की नींव हिल जाती है।7

  3. प्रवासियों के नाम से ही लोगों को सिक्कों की खनक सुनाई देती है। कुछ भी लिखो, लोग छापने को तैयार रहते हैं।8

  4. बेसिक चीज़ें . . . रोटी, कपड़ा और मकान होता है . . . . . . आज तो शराब और शबाब सब बेसिक में गिने जाते हैं।9

  5. ठंडे देश में गरम झटके कुछ ज़्यादा ही तकलीफ़ देते हैं।10

  6. माँ बाप की कमज़ोरी संतान होती है, जिस दिन संतान की कमज़ोरी माँ-बाप हो जाएँ उस दिन दुनिया बादल जाएगी।11

  7. कई बार असफल कार्यक्रम सफलता के द्वार खोल देते हैं।12

  8. ख़ुद को अपडेट नहीं रखोगे तो आउटडेट होने में समय नहीं लगेगा।13 

  9. कहीं न कहीं से रोशनी अपना रास्ता खोज ही लेती है।14

उपन्यास साहित्यकारों के असाहित्यिक जीवन के चित्र लिए है। सब काँच के घर में बैठे होने के बावजूद एक दूसरे को पत्थर मारने में जुटे हैं। सब आत्ममुग्ध मदारी की तरह अपने करतब दिखा रहे हैं। सब चाहते हैं कि उनके शहर की पहचान उनके नाम से हो। पद्म श्री उनकी झोली में गिरे। 

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रो. एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब। 

संदर्भ:

  1. पृष्ठ 47

  2. पृष्ठ 64

  3. पृष्ठ 81

  4. पृष्ठ 83

  5. पृष्ठ 101

  6. पृष्ठ 22

  7. पृष्ठ 23

  8. पृष्ठ 40

  9. पृष्ठ 43

  10. पृष्ठ 45

  11. पृष्ठ 53

  12. पृष्ठ 58

  13. पृष्ठ 80

  14. पृष्ठ 84

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