अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कुमारिका गृह

जब से इस शहर में कुमारिका गृह खुला था, वह यहाँ आना तो चाहती थी, किन्तु अपने को पारिवारिक दायित्वों के कारण आर्थिक आधार पर असमर्थ पाती थी। पुण्या को नौकरी करते बीस वर्ष हो गए थे। पिता की आतंकवादियों द्वारा हत्या पर उसकी नियुक्ति ’अनुकम्पा नियुक्ति‘ के अंतर्गत उसी सरकारी संस्थान में हुई थी। अब छोटे भाई पुनीत और बहन पारूल की शादी के बाद वह उन्मुक्त रहना चाहती थी। पुनीत का वैवाहिक जीवन उसकी पत्नी की ननद विरोधी प्रदूषित जीवन-शैली पर चल रहा था। यहाँ उसने अपने लिए एक क्षीण सा स्थान बनाने का यत्न तो कई बार किया, पर लगा कि सब व्यर्थ है।

प्रथम बार ऋतिका उसे लाई थी यहाँ। कुमारिका गृह का प्रत्येक कक्ष इतना व्यवस्थित सजा-सँवरा, स्वच्छ, सुरुचिपूर्ण, कलात्मक एवं आकर्षक था कि लगा कि उसने किसी अंतर्राष्ट्रीय कला भवन में प्रवेश किया है। एक बार वृद्धाश्रम देखा था, हर कमरे से आ रही दवाइयों, सड़े फलों, पसीने की गंध, धूल-मिट्टी से सना। उसका मन क्लान्त और विरक्त हो आया था। यहाँ सब अलग था। न वृद्धाश्रम की कड़वी कसैली गंध थी और न वर्किंग वुमैन होस्टल की आत्मकेंद्रित मानसिकता, न अपने घर जाने की हलचल, न डेट के लिए उन्माद।

दूर दृष्टि डाली। उधर लॉन में बैठी, टहलती प्रौढ़ कुमारिकाएँ अपनी देह यष्टि के कारण स्मार्ट युवतियाँ लग रही थी। रंग-बिरंगी वेश भूषा में सभी इतनी जीवन्त, अभिजात, वैल मैनरड थी कि पुण्या को लगा कि वह अब तक इतनी दूर क्यों रही - अपनी इस जात-बिरादरी से। कहाँ यह चिन्तनशील, हँसौड़, चुलबुली, स्वाधीन, सुखी कुमारिकाएँ और कहाँ अब तक भाई के यहाँ घिसट रही वह। जिसे नित्य और भी अकेला, निर्बल, असहाय कर दिया जाता था। जिसने पारिवारिक उपेक्षाओं और अपेक्षाओं के दुर्वासीय शाप को झेला था। युवावस्था को होम करने के बदले उसे व्यंग्य बाणों की सजा सुनाई गई थी। ऋतिका ने उसे मुक्ति दिलाई और वह हिम्मत करके यहाँ चली आई। आज तक वह इसके खर्च से घबरा रही थी। पर क्यों? सिर्फ़ अपने लिए जीने का संकल्प करते उसने सेक्युरिटी के एक लाख रुपए जमा करवाए और ज़रूरत की चीजें ऋतिका के साथ जाकर ले आई। गौर से देखा तो लगा, उसका कमरा वी. आई. पी. रूम लग रहा था।

कुमारिका गृह की निवासिनें मुख्यतः चालीस के बाद की उम्र की थी, वहाँ की निम्न आयु सीमा यही थी। उनके जीवन स्तर, खान-पान, वेशभूषा- सभी से सम्पन्नता, मानसिक प्रौढ़ता और प्रगतिशीलता झलकती थी। सभी के व्यक्तित्व में संतुलन कुछ ऐसा था जैसे बत्तीस दाँतों के बीच जीभ का रहता है। उसने देखा सभी कुमारिकाओं के हाथ में अर्थ की जादुई छड़ी और मन में जीवन को जी भर कर जीने की ललक है। उनके पास साँस लेने के लिए ढेर सारी ब्रीथिंग स्पेस है।

नीतू को सुबह-शाम पार्टियों का इन्तज़ार रहता है। वह किचन में जब-तब इसीलिए तांक-झाँक करती रहती है कि वहाँ बने चार्ट से किसी जन्म दिन पार्टी का अन्दाज़ा हो सके । पुण्या यह सब नहीं जानती थी, ऐसे ही एक शाम लौटती है तो देखा डायनिंग हाल जलते-बुझते बल्बों से जगमगा रहा है। बीच की मेज पर केक पड़ा हैं। आज माग्ररेट का जन्मदिन है। ओह ! घर में कभी किसी को उसका जन्म दिन याद नहीं आया था।

हसी के सैलाब नीतू के कमरे में फैले रहते । नित्य साँझ को वह चुटकलों के साथ लौटती। आते ही किचन में झाँक कर फूलन से कहती है-

“दस्तरखान हाजिर हो।

शहज़ादी जहानआरा आ चुकी है।“

क्रिकेट के दिनों में टी. वी. में कुछ ऐसा रम जाती कि हर चौके छक्के पर उसका आह्लाद गूँज अनुगूँज बन पूरे कुमारिका गृह को चौंका देता।

कालेज में दुर्वासा बने प्रिंसिपल ने एक दोपहर उसे बुलाया-पेशी के लिए। वह झटके से उठी। क्या कर लेगा मेरा? सरकारी नौकरी है। क्या नौकरी से निकाल देगा। बाहर बैठे चपरासी को उसने कॉफी रिफरैशमेंट के लिए कहा और अंदर जाकर कुर्सी पर डट गई। मन गालियाँ उगल रहा था। बुद्धिजीवी होकर सियासत करता है। खुद कुछ करेगा नहीं और दूसरे कुछ करें तो बकवास। ऊपर से नम्र बनी रही। चपरासी ट्रे लेकर उपस्थित हुआ। साथ ही बातचीत का विषय बदल गया। वह मुस्काती बाहर आ गई। नीतू जानती थी कि इस सरकारी कालेज को किन-किन लोगों ने पहलवानी का अखाड़ा बनाया हुआ है। तमाशा देखना उसे आता है, पर बंदर की बला छछूंदर के सिर न पड़ जाए, इसके लिए कुछ चालें चलनी ही होती हैं। मकड़जाल से अपने को बचाने के लिए क्षमता और शक्ति संजोनी उसे आती है। सुरक्षा और संरक्षा के अर्थ वह जानती है। 

वह गुमसुम विभा के मन में भी गुदगुदी और चेहरे पर मुस्कान पैदा करने के ढंग खोजती रहती है। उस दिन भरे-पूरे डाइनिंग हाल में वह विभा के साथ खाने का इंतज़ार करते-करते अचानक खड़ी हो बोल दी- ओह विभा ! कुछ तो बोलो, वरना मैं पागल हो जाऊॅंगी और बैठ गई। सभी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।

कर्मण्यता विभा को कभी उदास नहीं होने देती। हालाँकि उसके पास उदास रहने का कारण था। ममा पापा की विमान दुर्घटना में आकस्मिक मृत्यु और दायित्व सँभालने का अनैच्छिक बोझ- जिसे वर्षों उसने निभाया। अब भी वह स्वभाव से संकोचशील एवं अंतर्मुखी है। खाली समय में बंद कमरे में टी. वी. चैनल्ज बदलती रहती है या फिर किचन गार्डन की तरफ़ जा रम जाती है। उसका कमरा भी पिछली तरफ़ है, जिसका नाम साथिनों ने वैसे भी साइलेंट ज़ोन रखा हुआ है।

कुमारिका गृह में आते ही कोई वी. आई. पी. नहीं रहती। कामकाजी जीवन के सभी मुखौटे उतार निर्द्वंद्व हो जाती हैं। फूलन! इतने गौरे-चिट्टे पैर। झाँवें से घिसती हो या फेयर एण्ड लवली लगाती हो- नीतू होंठों में मुस्काती है। 

पूनम सर्जन है। बहुत संवेदनशील है। हर रोगी को अंतिम साँस तक बचाने का यत्न करने वाली। न उसका लहजा क्लिनिकल है और न स्वर। फिर भी इन्द्राणी उसे छेड़ देती है- आपरेशन थियेटर में डाक्टर सर्जन कम दर्जी ज्यादा लगता है। जब देखो सीने-पिरोने, काटने-उधेड़ने में व्यस्त।

पूनम पहले अकेली रहती थी। एक नौकरानी पानी सी दाल और बिन फूली चपातियाँ सेंक देती। न खाने का मज़ा था, न साफ-सफाई उससे हो पाती थी। जबसे पूनम यहाँ आई है, उसमें जान आ गई है। कायाकल्प हो गया है।

इन्द्राणी पिछले वर्ष अट्ठावन की हो रिटायर हो गई है। उसी पेंशन इतनी है कि कुमारिका आश्रम का खर्च निभा सकती है। वैसे जिजीविषा उसकी अभी उतनी ही प्रबल है। सुबह दस से एक तक कम्प्यूटर की कक्षाएँ अटैंड करती और उसके बाद कम्प्यूटर सेंटर बनाने की योजना बनाती रहती। फैंसी अकमोडेशन, कम्प्यूटरज़, एयर कन्डीशन्ज, पंखे, प्लास्टिक की कुर्सियाँ, काउण्टर, कम्प्यूटर टीचरज़, इंटरनेट आपरेटर, फीस, स्कूलों, संस्थाओं, कारखानों के कंट्रेक्ट्स, विज्ञापन आदि। लगता वह जीवन शुरू कर रही है। न उसे कोई मानसिक थकान है, न शारीरिक।

कुमारिका गृह की यह संरक्षक रह चुकी महिलाएँ हैं, जिन्हें किसी संरक्षण की आवश्यकता नहीं। किचन का काम करने वाली फूलन के भी मजे हैं। नित्य नए कपड़े पहनती है। आज पुण्या ने सूट दिया है, तो कल इन्द्राणी ने साड़ी, परसों पूनम ने जीन्स तो तरसों मारग्रेट ने मैक्सी। उसके लिए तो यहाँ स्वर्ग जुटा है। यहाँ आ सभी ने अपने खोए आत्मविश्वास को पा लिया है।

इन प्रौढ़ कुमारिकाओं में भक्ति की लत है ही नहीं। वे न कभी मन्दिर चर्च जाती है, न कथा-कीर्तन में। न जाने क्यों इन्होंने इश्वरीय भक्ति को मैटाफ़िजिकल आत्महत्या मान लिया हैं। हाँ ! समय निकाल कर पन्द्रह दिनों में एक चक्कर ब्यूटी पार्लर का अवश्य लगा लेती हैं। वे मानवी हैं। हव्वा की उन्होंने बहुत पहले हत्या कर दी थी।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

साहित्यिक आलेख

लघुकथा

शोध निबन्ध

कहानी

रेखाचित्र

यात्रा-संस्मरण

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं