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शहीद की माँ

 

तिरंगे में लिपट कर शव आया था। नेता जी श्रद्धांजलि देने पहुँचे थे। शवयात्रा में शामिल हुए थे। कहा था, “हम लोग इसलिए चैन से जीते हैं कि सीमा पर सूबेदार सिंह जैसे वीर पहरेदार खड़े हैं।” 

‘जय हिंद, जय जवान’ के नारों की गूँज-अनुगूँज धरती आकाश एक कर रही थी। 

तब सरदार जी भी थे। 

फ़ौजी से शादी हुई और पाँच वर्ष बाद बेटा हुआ। वह गद्‌गद्‌ हो गई। फ़ौजी बाप की एक ही आकांक्षा थी कि बेटा सूबेदार बने। उसका नाम ही सूबेदार सिंह रख दिया गया। पढ़ाई ख़त्म होते ही वह सेना में भर्ती हो गया। 

सीमा पर ड्यूटी लगी तो पूरे जोश और कर्त्तव्य बोध के साथ सरहद पर मुस्तैद रहा। पर दुश्मन के एक विस्फोट ने उसकी जान ले ली। 

कितने ही वर्ष बीत गए। धीरे-धीरे सब समाप्त होता गया। आँखें धुँधलाने लगी, घुटने कँपकँपाने लगे, आवाज़ थरथराने लगी, नाते-रिश्ते गुम होने लगे। 

आज यह परिवार रहित, धन रहित, बीमार, बूढ़ी स्त्री कहाँ जाए? कैसे गुज़र-बसर करे? आज उसके लिए न कोई सरकार है और न कोई स्वयं सेवक संस्था। 

उस जिंदर के पशुओं के बाड़े में एक जून खाने के बदले गोबर समेटने का काम मिल गया है, जिसका शराबी बेटा ज़हरीली शराब से मर गया था और मुआवजे में सरकार से मिले लाखों रुपए, छोटे की पक्की नौकरी और दूसरी सुविधाओं ने उसकी ज़िंदगी बदल दी। 

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