व्यंग्यकार धर्मपाल महेंद्र जैन
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. मधु सन्धु1 Sep 2023 (अंक: 236, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
(‘चयनित व्यंग्य रचनाएँ’ के संदर्भ में)
पुस्तक: चयनित व्यंग्य रचनाएँ
लेखक: धर्मपाल महेंद्र जैन
प्रकाशक: न्यू वर्ड पब्लिकेशन, दिल्ली 110012
संस्कारण: 2023
मूल्य: ₹225/-
जिन विसंगतियों, विद्रूपताओं से आप सोते-जागते, उठते-बैठते, हर पल दो-चार होते हैं, जो आपके मन संसार में कोहराम मचाये रखती हैं, जो मस्तिष्क को चैन नहीं लेने देतीं, उन्हीं विडम्बनाओं का चित्रण आपके सामने ऐसी कुशल बौद्धिकता से, कटाक्ष व्यंग्य से, चुटकीले अंदाज़ से, धारदार लहजे में आ जाये, तो लगता तो है—अरे यह तो मेरी, मेरे अपनों की, घर-परिवार की, मेरे देश-संसार की त्रासदी है।
कल ही तो ‘धर्मपाल महेंद्र जैन’ की पुस्तक ‘चयनित व्यंग्य रचनाएँ’ मिली। बुक-शेल्फ़ में रख भी दी थी। फिर जो उठाई तो पूरी पढ़कर ही चैन पड़ा। धर्मपाल महेंद्र जैन कवि, स्तम्भ लेखक, संपादक और व्यंग्यकार हैं। इससे पहले उनके चार व्यंग्य संकलन प्रकाशित हो चुके है—‘डॉलर का नोट’, ‘भीड़ और भेड़िये’, ‘दिमाग वालो सावधान’, ‘सर क्यों दाँत फाड़ रहा है’। उनकी जीवन यात्रा झाबुआ से शुरू होकर, बैंक की नौकरी के दौरान भारत के अनेक प्रान्तों से गुज़रने के बाद अमेरिका और फिर टोरेंटों तक आती है। पिछले तीस वर्षों से विदेश में रहते हुए भी वे हिन्दी में लिखते हैं। डॉ. दीपक पाण्डेय को अपने साक्षात्कार में कहते हैं:
“कोई भी व्यक्ति अपनी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही कर सकता है। हिन्दी मेरी मातृभाषा है और लेखन पारिवारिक विरासत।”1
‘चयनित व्यंग्य रचनाएँ’ पुस्तक में कुल 42 व्यंग्य हैं। व्यंग्य, कटाक्ष, उपहास, परिहास, वक्रोक्ति, टेढ़ी भंगिमा, व्यंजना, वाक्पटुत्व, सैटायर, विट—सब यहाँ मिल जाते हैं। धर्मपाल महेंद्र जैन आदमी नहीं, उसकी प्रवृतियों की बात करते हैं। उनके व्यंग्य समसामयिक जीवन की विसगतियों-असंगतियों, प्रशासन-कुशासन, व्यवस्था-अव्यवस्था, नीति-अनीति, न्याय-अन्याय को लिए हैं। अमृतराय के अनुसार:
“व्यंग्य पाठक के क्षोभ या क्रोध को जगाकर प्रकारान्तर से उसे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सन्नद्ध करता है।”2
‘विसंगति को देखकर उत्पन्न आक्रोश’ को नरेन्द्र कोहली ने व्यंग्य कहा है। उनके अनुसार, “कुछ अनुचित अन्यायपूर्ण अथवा ग़लत होते देखकर जो आक्रोश जगता है, वह यदि काम में परिणत हो सकता है तो अपनी असहायता में वक्र होकर जब अपनी तथा दूसरों की पीड़ा पर हँसने लगता है, तो वह विकट व्यंग्य होता है। ।”3
धर्मपाल महेंद्र जैन मानते हैं कि व्यंग्य गंभीर और दीर्धकालिक होना चाहिये। उनके प्रहार करारे और पैने हैं। उनका व्यंग्यकार विदूषक नहीं है और न ही उनका लक्ष्य हास्य है।
उनकी पैनी दृष्टि ने राजनीति, प्रशासन, समाज, संस्कृति, धर्म, साहित्य-प्रत्येक क्षेत्र की विसगतियों के माध्यम से आम आदमी की वेदना को अभिव्यक्ति दी है। ‘इंडियन पपेट शो’ में लोकतन्त्र मानों पुतली का खेल बनकर रह गया है। पुतलियों की डोर हाई कमान के पास है। उन्हीं के जनादेशों से पुतलियाँ सक्रिय होती हैं। मीडिया भी बिका हुआ है। ‘ऐ तंत्र, तू लोक का बन’ में कहते हैं:
“लोकतन्त्र बहुत छलिया शब्द है। यह तंत्र कभी लोक का हुआ ही नहीं। लोकतन्त्र हमेशा सत्ता का रहा है। —पाकिस्तान जिसे लोकतन्त्र कहता है, वहाँ की जनता उसे जोकतंत्र मानती है, वहाँ की फ़ौज उसे टट्टूतंत्र मानती है। —रूस जिसे लोकतन्त्र समझता है, दुनिया उसे जासूस तंत्र कहती है। —कुछ लोगों ने गैंग बनाकर डेमोक्रेसी को गैंगतंत्र बना दिया है| —लोकतन्त्र का लोक मर चुका है, प्रजातन्त्र में प्रजा मार दी गई है, जनतंत्र में से जन ग़ायब हो चुका है—जनता के लिए तंत्र मतलब बाबा जी का ठुल्लू—राजनेता लोकतन्त्र को जेब में लेकर घूमने लगे हैं—विधान सभाएँ मंडियों में बदल गई हैं।”4
‘बापू का आधुनिक बंदर’ में लोकतन्त्र बंदर का तमाशा हो गया है।
प्रशासन के प्रमुख घटक पुलिस तंत्र के चित्र भी उनकी रचनाओं में मिलते हैं। ‘पहले आप सुसाइड नोट लिख डालें’ में विटामिन एम. यानी मनी/ पैसा खाने वाली पुलिस आत्महत्या करने वाले का सुसाइड नोट भी तभी देख पाती है, अगर वह 2000 के नोट में लिपटा हो।
‘जंगल: सरकारी जंगले में’ उस अफ़सर तंत्र का ज़िक्र है जो काम करना चाहे तो हनुमान जी की तरह तमाम क़ानूनों का पर्वत अपनी अंगुली पर उठा कर ले जा सकते हैं और वे काम न करना चाहें तो क़ानून का धनुष कोई टस से मस नहीं कर सकता। अन्यथा फ़ाइलें एक विभाग से दूसरे विभाग में दौड़ ही लगाती रहती हैं अथवा फ़ाइलों में जंगल लगते हैं, उनमें आग लगती है, फ़ाइलों में अरबों का नुक़्सान घोषित करके राशि मिल-बाँट ली जाती है। भ्रष्ट प्रशासन के अनेक रूप इन व्यंग्य रचनाओं में हैं। सभी मंत्रालय ट्रांसफर करने और ट्रांसफर रद्द करने का ही काम करते हैं। टेढ़ी अंगुली से घी जल्दी निकलता है। बाबू को लिफ़ाफ़ा दे दो तो वह अफ़सर से फटाक से दस्तखत करा लाता है।
गंगा देश की पवित्र नदी है, आस्था की प्रतीक है। सरकार दिल्ली में गंगा मंत्रालय बनवाती है। लेकिन उद्योग मंत्रालय उद्योगपतियों को इसमें विषैले रसायन छोड़ने का परमिट दे रहा है। पर्यावरण मंत्रालय कहता है:
“तुम गंदा करो हम साफ़ करेंगे, तुम पेड़ काटो हम पौधे रोपेंगे, तुम पाप धोओ हम वोटों का पुण्य कमाएँगे और बुद्धिजीवियो तुम विरोध करो हम उपकृत करेंगे, पुरस्कृत करेंगे। उद्योगपति सरकार को दुधारू गाय समझते हैं, सरकार को चारा डालते हैं और सब दूध समेट लेते हैं। —यदि राजनीति इतनी उज्ज्वल होती तो बैंकों की बजाय नदी नाले साफ़ हो गए होते।”5 उनके व्यंग्य नावक के तीर है। दुधारी तलवार चलाने वे निष्णात हैं।
अनुष्ठान करवाने वाले पंडित भी बिज़नेस कार्ड देकर वेब साइट पर पैकेज ख़रीदने और श्रद्धानुसार पुण्य कमाने का सुझाव देते हैं। यह व्यंग्य परिहास में तब परिणित हो जाता है जब एक अनुष्ठान के साथ एक फ़्री अनुष्ठान का पैकेज घोषित होता है।
साहित्य जगत में भी वही चालाकियाँ, हेराफेरियाँ, शतरंज के खेल चल रहे हैं। ‘महानता का वायरस’ का साहित्यकार ग्रेटटाइटिस के वायरस से पीड़ित है। यानी वह अपने को महान और अपने निकट बैठे साहित्यकारों को सदी के तुच्छ साहित्यकार मानता है। ऐसे साहित्यकार चौबीस घंटे इसी मुग़ालते में रहते हैं कि उनके जैसा न कोई हुआ है, न होगा—‘न भूतो न भविष्यति’। वे एक ही भाव को लेकर हाइकु, मुक्तक, लम्बी कविता, व्यंग्य, उपन्यास-सब लिख सकते हैं। ‘साहित्य शिरोमणि चिमनी जी’ में लेखक कहता है कि अगर आप चाहते हो कि आपके साहित्य रथ के चारों पहिये डॉलर, पॉण्ड, यूरो, रुपयों की हवा से ठसाठस भरे हों, ग्यारह लाख का पुरस्कार आपको मिले, देवलोक तक आपकी स्तुति हो तो आपका अपना छापाखाना, डमी लेखक, समीक्षक, चयनकर्ता, प्रशंसक होने अनिवार्य हैं। ‘भैंस की पूंछ’ में महानता का एक ओर गुर बताते लिखते हैं:
“कलाकार की गर्दन में लोच हो, रीढ़ में लचीलापन हो, घुटनों में नम्यता हो और पवित्र चरणों पर दृष्टि हो तो मंत्रीवर के चरण तक कलाकार का भाल पहुँच ही जाता है।”6
‘पहले आप सुसाइड नोट लिखें’ में संपादकों की चालाकी और लेखकों की व्यथा पर कहते हैं, “संपादक अस्वीकृति की सूचना नहीं भेजते और स्वीकृति की सूचना देना उन्हें किसी ने सिखाया नहीं। वे लटकाए रखने की लम्बी परंपरा के उस्ताद हैं।”7
आर्थिक विसंगति यह है कि देश की निन्यानवे प्रतिशत जनता के पास काला धन नहीं है। नोट बंदी से स्पष्ट होता है कि नेता लोग ही इस पर कुंडली मार कर बैठे हैं।
नैतिक विसंगति यह है कि रेप करने के बाद नेतागण रेप पीड़िता को मरवाने के चक्कर में रहते हैं और सत्तानायक रेप के संदर्भ में कहता है, “हमारी महान संस्कृति को विपक्षियों ने बर्बाद कर दिया है। हमें विपक्ष मुक्त भारत चाहिए।”8
व्यंग्यकार की पैनी आलोचन दृष्टि आर-पार देखने का साहस और बेबाकी लिए रहती है। कहते हैं:
“गाय का गोबर सरकार दो रुपए किलो ख़रीदती है और फिर यह सौ रुपए किलो के भाव से ऑन लाइन बिकता है।”9
प्रगतिशील एवं सकारात्मक सोच, गहन चिंतन और बौद्धिकता उनके वाक्यों को सूत्रात्मक बना देती है—‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’। जैसे:
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बिना रीढ़ के लचकदार पीठ बन सके तो वह ज़्यादा शुभचिंतकों और वफ़ादारों को आमंत्रित कर सकती है।10
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आत्महत्या जीवन बीमा पॉलिसी जैसी मृग मरीचिका है।11
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सिद्धान्त बनाए नहीं जाते, प्रतिपादित किए जाते हैं।12
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व्यंग्यकार ने शाब्दिक जूतों की बजाय भौतिक जूते चलाये होते तो दुनिया अलग हो सकती थी।13
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अपनी कला को कालजयी बनाना हो तो कालीदास हो या तानसेन, दरबार में भर्ती होना पड़ता है।14
इसका अनिवार्य और अभिन्न अंग है। इसका लक्ष्य समाज और शासन में व्याप्त दुर्गुणों-दुराचारों, मिथ्याचारों, भ्रष्टाचारों पर तीक्ष्ण प्रहार करते हुए सुधार लाना है। प्रभाकर माचवे के अनुसार, “व्यंग्य कोई पोज़ या अनाज या लटका या बौद्धिक व्यायाम नहीं, पर एक आवश्यक अस्त्र है। सफ़ाई करने के लिए किसी को तो हाथ गन्दे करने ही होगें, किसी-न-किसी की तो बुराई अपने सर लेनी ही होंगी।”15 धर्मपाल महेंद्र जैन का स्वर निर्भीक है और शब्दों में सच्चाई है। उनके व्यंग्य सामान्य जीवन से जुड़े हैं, आम आदमी के दर्द की आवाज़ हैं। अपने देश और देशवासियों के प्रति लगाव-अनुराग के प्रतीक हैं। उनकी सशक्त और बेख़ौफ़ लेखनी विसंगतियों, विद्रूपताओं से पर्दा उठाने का अद्वितीय साहस लिए है।
डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रो. एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब।
संदर्भ:
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वही
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धर्मपाल महेंद्र जैन, चयनित व्यंग्य रचनाएँ, न्यू वर्ड पब्लिकेशन, दिल्ली-12, 2023, पृष्ठ 23,24
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वही, पृष्ठ 94, 96
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वही, पृष्ठ 122
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वही, पृष्ठ 14
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वही, पृष्ठ 27
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वही, पृष्ठ 15
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वही, पृष्ठ 5
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वही, पृष्ठ 14
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वही, पृष्ठ 21
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वही, पृष्ठ 120
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वही, पृष्ठ 128
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