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ख़ैबर दर्रा

समीक्षित पुस्तक: ख़ैबर दर्रा
लेखक: पंकज सुबीर
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज़
प्रकाशन वर्ष: 2025
पृष्ठ संख्या: 176
मूल्य: ₹325.00
ISBN: 978-8198009753
एमाज़ॉन पर उपलब्ध: ख़ैबर दर्रा

 

‘ख़ैबर दर्रा’ कथाकार, ग़ज़लकार, व्यंग्यकार और संपादक पंकज सुबीर का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह है। इससे पहले उनके ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’, ‘महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ’, ‘कसाब डॉट गाँधी एट यरवदा डॉट इन’, ‘चौपड़े की चुड़ैल’, ‘होली’, ‘प्रेम’, रिश्ते’, ‘जोया देसाई कॉटेज’, ‘हमेशा देर कर देता हुईं मैं’ कहानी संग्रह आ चुके हैं। ‘ये वो सहर तो नहीं’, ‘अकाल में उत्सव’, ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ और ‘रूदादे सफर’ उनके उपन्यास हैं। ‘बुद्धिजीवी सम्मेलन’ उनका व्यंग्य संग्रह है। ‘अभी तुम इश्क़ में हो’ ग़ज़ल संग्रह है। 

‘ख़ैबर दर्रा’ हर क़स्बे हर शहर में होना चाहिए, में उनकी नौ कहानियाँ संकलित हैं: ‘एक थे मटरू मियाँ एक थी रज्जो’, ‘हरे तीन की छत’, ‘ख़ैबर दर्रा’, ‘वीरबहूटियाँ चली गई’, ‘देह धरे का दंड’, ‘निर्लिंग’, ‘आसमाँ कैसे कैसे’, ‘कबीर माया पापणी’, ‘इजाजत @घोड़ाडोंगरी’। 

प्रथम कहानी ‘एक थे मटरू मियाँ एक थी रज्जो’ ‘वनमाली’ पत्रिका के सितंबर अक्तूबर संयुक्तांक 2024 में प्रकाशित हुई। यह 25-26 पृष्ठों की लंबी कहानी देश के वर्तमान स्नेरियों का पटाक्षेप करती है। कहानी में कुल चार पात्र हैं। व्यंग्य की पैनी धार कहानी में अनेक स्तरों पर प्रवाहित हो रही है। प्रमुख पात्र दुर्गादास त्रिपाठी के चरित्र में पत्रकार/नेता के गुणों का पूरा एजेंडा खुला पड़ा है। वह जो तोड़-फोड़, मार-पीट, झगड़े-टंटे यानी नकारात्मक और ध्वंसात्मक कामों में सबसे आगे रह चुका हो, हत्याओं का सहयोगी या समर्थक हो, जेल यात्रा कर चुका हो। राजनेता वही है, जो पार्टी के हार जाने पर दल बदल ले, सत्तारूढ़ पार्टी में चला आए। अपने ऊँचे संपर्कों का झूठ बोलने में निष्णात हो। अपनी प्रशंसा के लिए भक्त मंडली पाले हो। नेता वही, जो शतरंज-सी चालें चलनी जानता हो। नायक मटरू देश का आम आदमी-आधा अधूरा-पढ़ाई के नाम पर आठवीं तक, पेशे के नाम पर अख़बार के दफ़्तर के मामूली काम, पार्टी वर्कर, आक़ा दुर्गादास त्रिपाठी का वफ़ादार। दामोदर इस पपेट शो का अदना-सा खिलाड़ी है। रजनी महत्वाकांक्षी, अवसरवादी, चुस्त युवती है। हर संपर्क का फ़ायदा उठाना उसे आता है। वह जानती है कि समय क़लम वाले पत्रकार का नहीं, कैमरे वाले पत्रकारों का है। अपने प्रशिक्षण और संपर्कों का फ़ायदा उठा वह राजधानी पहुँच जाती है। त्रासद और कारुणिक दृश्य यह है कि जर्जर पार्टी कार्यालय के नीचे आकर मटरू की मृत्यु हो जाती है और रजनी-मटरू की पत्रकार बेटी कैमरा मैन के साथ इस ख़बर का प्रसारण करती है, बिना यह जाने कि यह उसका बाप है। देश की प्रगति पर व्यंग्य यह भी है कि बस्तियों के लोग नहीं जानते कि स्कूल क्या चीज़ होती है, वे कभी स्कूल गए ही नहीं और छोटी बस्तियों में बाल श्रम क़ानून भी लागू नहीं होता। होश में आते ही बच्चे श्रमिक बन जाते हैं। 

‘हरे टीन की छत’ मीरा और अर्जुन के किशोर प्रेम की, रागबोध की, प्राकृतिक छटा और सान्निध्य की कहानी है। काव्य पंक्तियाँ और सूत्र वाक्य प्राण तत्त्व बन कर आए हैं। जैसे:

“एक गहरी सी धुँध में पूरी पंचमढ़ी समाई हुई है। दूर सतपुड़ा की चोटियों पर कुछ बादल लुढ़क-पुढ़क होने के बाद साँस लेने के लिए रुके हुए हैं। जैसे कोई रूई का गोला पहाड़ से लुढकते हुए पहाड़ पर लगे दरख़्त में उलझ कर रुक गया हो।” पृष्ठ 35

“हरापन भी यादों की तरह ही होता है, फ़ुरसत के पलों की बरसात का स्पर्श पाते ही एकदम खिल उठता है।” पृष्ठ 38

“किसी की स्मृतियों को हमेशा सुंदर बनाए रखना चाहते हैं तो उसके पास लौटिए मत, लौटकर आने से स्मृतियों में बनी सुंदरता नष्ट हो जाती है।” 

‘ख़ैबर दर्रा’ के कथ्य ने, कथागत मोड़ों ने, तभी एक सारा आकाश रच दिया था, जब पहली बार मैंने इसे ‘हंस’ के अक्तूबर 2024 अंक में पढ़ा था। दर्रे के दोनों ओर अलग-अलग संप्रदाय के लोग रहते हैं और एक दिन सांप्रदायिक आग भड़क जाती है, अनियंत्रित हो जाती है। कहानी मज़हब और इंसानियत के दुश्मनों की, सांप्रदायिकता और दंगों की, नेतागिरी और गुंडागर्दी की, अस्तित्व और संधर्ष की ही नहीं, अपितु मूल्यवत्ता और हृदय परिवर्तन की, संवेदनशीलता और मानवीयता की, धर्म और नैतिकता की है। अपाहिज पिता और कर्तव्यनिष्ठ बेटी की सदाशयता कुटिल युवक की दुर्भावनाओं को सद्भावनाओं में, दुश्मनी को आत्मीयता में, नकारात्मता को साकारात्मकता में परिवर्तित कर देती है और दिमाग़ में छाए कुविचार, अश्लील भाव कुछ ऐसे धुलते हैं कि वह उनका वेलविशर बन जाता है। 

‘वीरबहूटियाँ चली गई’ भी पंकज सुबीर की लंबी कहानी है। यह प्रथमतः अक्तूबर 2024 में ‘जानकीपुल डॉट कॉम’ में प्रकाशित हुई थी। कहानी पाठक को तुलसी की रामायण और जायसी के पद्मावत में वर्णित वीरबहूटियों की यादों को ताज़ा कर जाती है। कहानी आज की वस्तुवादी, बुद्धिवादी एप्रोच को चुनौती देती पाठक को वन्य प्रकृति के नैसर्गिक लोक की यात्रा पर ले जाती है। यह मनुष्य और प्रकृति के अंत: सम्बन्धों की कहानी है। बालमन के अबोध प्रेम की कहानी है। लोक विश्वास और प्रकृति प्रदत्त स्वास्थ्य सूत्रों की कहानी है। वन सौंदर्य की भिन्न छवियों की कहानी है। रूप, रस, गंध की कहानी है। बाल मन के दो अबोध/ मासूम झूठों की कहानी है। पर्यावरण से दूरी बना रहे आज के मनुष्य की त्रासदी की कहानी है। कहानी की अनाम बालिका बीमार होने के कारण पर्यावरण की गोद में आई है। इमली और नींबू के पेड़, रंगीन क्रीपर की बेल, बोगनबेलिया, गुलमोहर, नींबू का पेड़, पीला कनेर, मेहँदी की झाड़ियाँ, मनी प्लांट, खजूर के पत्ते, झूले, फ़ाख़्ता पक्षी, झींगुर, गिरगिट, पगडंडियाँ, सियारों की आवाज़ें-देखती महसूसती वह नाव के आकार की कुर्सी पर कुछ देर बैठी रहती है। यहाँ पगडंडी से नीति एक बालक निकलता है, वह अक्सर उसके लिए बेकरी से कुछ लाता है और बताता है कि चिरमी के बीज, मख़मल जैसी वीरबहूटियाँ शारीरिक मानसिक सारी बीमारियाँ सोख लेती हैं। अगले परिच्छेद में वे बरसों बाद मिलते हैं, लेकिन अब यहाँ न इमली नींबू के पेड़ हैं, न रंगीन क्रीपर की बेल, न बोगनबेलिया, न गुलमोहर, पीला कनेर, मेहँदी की झाड़ियाँ, खजूर के पत्ते, फ़ाख़्ता पक्षी, झींगुर, गिरगिट, पगडंडियाँ, सियार। अब वन प्रदेश दोमंजिला घरों, लोहे, पत्थर, ईंटों में बदल चुका है। अब शारीरिक मानसिक सारी बीमारियों को सोखने वाले चिरमी के बीज, मख़मल जैसी वीरबहूटियाँ नहीं हैं। कुछ सूत्रात्मक पंक्तियाँ भी मिलती हैं:

“माँ अपने बच्चों को जल्दी जल्दी बड़ा करना चाहती है, मगर दादियाँ-नानियाँ बच्चों को ज़िन्दगी भर बच्चा बनाकर रखना चाहती हैं।” पृष्ठ 85

“ज़मीन और नदी एक सी होती हैं, सब कुछ अपने अंदर सोख लेती हैं।” पृष्ठ 96 

‘आसमाँ कैसे कैसे’ में उस समय का वर्णन है, जब लोग ज़ुबान के पक्के होते थे। राजेश को अपने मित्र दिलीप की दुकान ख़रीदनी है, बेटा विनय एग्रीमंट बनवा कर लाता है और राजेश उस अतीत में खो जाता है, जब आदमी भले ही मर जाये, पर उसकी मृत्यु के बाद भी परिवार सब तरह के लालचों के प्रति अनासक्त होकर अपनी ज़ुबान पर अडिग रहता था। 

‘कबीर माया पापिणी’ कहानी कहती है कि पैसा सर्वोपरि है—मज़दूर के लिए भी और ऑफ़िसर के लिए भी। एक तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करते पंकज सुबीर लिखते हैं कि फ़ैक्टरी कर्मचारी की काम के दौरान दुर्घटना मृत्यु हो जाती है और माँ-बाप दाह संस्कार करने की बजाय सरकार से, फ़ैक्टरी मालिक से, बीमा कंपनी से मुआवज़ा लेने के लिए धरना दिये बैठे हैं। दूसरी ओर ज़िला कलेक्टर अरुण सिंह की माँ मृत्यु शैय्या पर है और वे आबकारी और शराब के ठेके से मिलने वाली एक करोड़ रिश्वत राशि के चक्कर में संवेदनाशून्य हो चुके हैं। माँ की मृत्यु हो जाति है, पर उनकी आँखों से एक आँसू तक नहीं गिरता, लेकिन जाना पड़ेगा और एक करोड़ का नुक़्सान हो जाएगा, सोचकर वे फूट फूट कर रो देते हैं। 

‘देह धरे का दंड’ होमोसेक्सुयालिटी की सोडोम वृति पर है। यह दो युवकों की कहानी नहीं, पूरे समाज में चल रहे दुराचारों का लेखा-जोखा है। स्कूल के अधिकांश अध्यापक, समाज के सम्मानित धर्मगुरु—सब इन युवकों के साथ दुराचार करते हैं। इन्हें तो पता ही नहीं था कि होमोसेक्सुएलिटी होती क्या है! यहाँ जलकर आत्महत्या करने का कारण समाज है। क़ानून ने भले ही होमो युवकों को साथ रहने की इजाज़त दे दी हो, समाज को यह कदाचित स्वीकार नहीं। कहानी सरकारी अस्पतालों की जर्जर अवस्था के बहुमुखी चित्र भी लिए है। ‘निर्लिंग’ में भी थर्डजेंडर की उन वेदनाओं, यातनाओं और शारीरिक शोषण का धारावाहिक सिलसिला है, जो अंतत: आत्महत्या के लिए विवश करते हैं। ऐसे तुच्छ और क्षुद्र, महात्त्वहीन, कीड़े-मकोड़ों जैसे जीवन से तो मर जाना ही बेहतर है। समाज शारीरिक अंगों की बाक़ी कमियों को तो स्वीकार लेता है, लेकिन जननांग की कमी घृणा का, शोषण का कारण है। यह आत्महत्या नहीं, समाज द्वारा की गई हत्या ही है। 

अंतिम कहानी ‘इजाजत@ घोड़ाडोंगरी’ में धरा, ध्रुव और रवि के माध्यम से स्त्री पुरुष सम्बन्धों का, देह और प्रेम का दांपत्य के धरातल पर लेखा-जोखा मिलता है। ध्रुव उच्च जाति का सुंदर पुरुष हैं, लेकिन अपने सौंदर्य-सजग व्यक्तित्व के कारण, चेतन-अचेतन में समाये अतिरिक्त अभिमान के कारण वह धरा के जीवन का वह भाग नहीं बन पाता, जो एक आदिवासी रवि बन जाता है। लेखक ने धरा की तुलना करते हुए गुलज़ार की ‘इजाजत’ फ़िल्म की बात की है, जिसमें रेखा पति नसीरूद्दीन शाह के पैर छूने के बाद शशि कपूर के साथ चली जाती है। ऐसा ही धरा ने किया, क्योंकि उसे ध्रुव तारे की नहीं, आसमान पर चमकते रवि की चाह है, उस रवि की जिसके पास प्रकाश, ऊर्जा और ऊष्मा–सब एक साथ हैं। 

इन कहानियों में अवसरवादी राजनेता भी हैं, मृत मानवीय संवेदना वाले अफ़सर-मज़दूर भी तथा ईमानदार विश्वसनीय सच्चे और सुच्चे मनुष्य भी। होमो का बहुमुखी शोषण भी है और हृदयविदारक चीत्कार भी। किशोर प्रेम भी, दाम्पत्य जीवन के मानदंड और गलियारे भी। पाठकों को बाँधने वाली अद्भुत क़िस्सागोई भी और चिंतन सूत्र भी।

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, 
गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब। 

 

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