नक्काशीदार केबिनेट
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. मधु सन्धु1 Feb 2020 (अंक: 149, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
समीक्ष्य पुस्तक : नक्काशीदार केबिनेट
लेखक : सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक : शिवना, सीहोर, म.प्र.
संस्करण : 2016
पृष्ठ : 120
मूल्य : 150
सुधा ओम ढींगरा भले ही अमेरिका में रह रही हैं, पर उनके जीवन और मन का एक पक्ष पूर्णत: देशज है, उनकी अंतरात्मा पंजाब की धरती के सुख-दुख, सभ्यता-संस्कृति से जुड़ी है। यहाँ-वहाँ, अमेरिका और पंजाब के दोनों रंग उपन्यास में घुल-मिल गए हैं। अमेरिका के सम्पदा और सार्थक तथा भारत की सोनल उसका परिवार और मित्र– नक्काशीदार केबिनेट में दोनों की कथाएँ परस्पर संगुंफित हैं।
उपन्यास का आरम्भ वर्षों पूर्व सितम्बर के महीने में इस तटीय प्रदेश में आई प्राकृतिक विपदा-बर्फ़ीले अंधड़, बारिश के चक्रवात और बवंडर, सौ मील रफ़्तार की प्रभंजन की गंभीर स्मृतियों से होता है। तब ‘हरीकेन’ के साथ-साथ ‘टारनेडो’ ने पूरी शक्ति के साथ इस प्रदेश पर आक्रमण किया था। फोन कट गए थी, बिजली चली गई थी, पानी बंद हो गया था। स्कूल, कॉलेज, ऑफ़िस बंद कर दिये गए थे। चक्रवात की सरकारी घोषणाएँ हो रही थी और लोग भी ज़रूरत का हर सामान घरों में समेट रहे थे। शाम को ही रात जैसा अँधेरा हो गया था। संत्रास और मृत्युभय के घेरे थे। समाचारों के अनुसार 49 लोगों की मृत्यु हुई थी, सैंकड़ों घायल हुये थे, तक़रीबन 12 मिलियन डॉलर का नुक़सान हुआ था। कई घरों की छतें और बाहर बने लकड़ी के डेस्क उड़ गए थे। स्थिति का फ़ायदा उठाते चोर-उचक्के भी सक्रिय हो गए थे। कुछ दिन पहले ही सेवानिवृत हुई सम्पदा घर में ही थी, क्योंकि बच्चे पुरू और पारुल बड़े होकर अपनी मंज़िलें तलाशने अलग ठिकानों पर पहुँच चुके थे।
आपदा प्रबन्धन के तौर पर टीवी, रेडियो से सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए घोषणाएँ हो रही थी। वैसे ऐसी आपदाओं का सामना करने के लिए इस क्षेत्र के घरों में एक विशेष कमरा भी रहता था। सरकारी सहायता के रूप में हैलीकोप्टर पहुँच पीड़ितों को राहत दे रहे थे । पुलिस चोरों पर नियंत्रण कर रही थी।
तूफ़ान के कारण लाइब्रेरी की खिड़की तोड़ एक वृक्ष सम्पदा के घर के अंदर भी घुस आया था और बौछारों से लाइब्रेरी में रखी किताबों की एक अलमारी गिर गई थी। इसी लाइब्रेरी में रोज़ वुड से बनी, मध्ययुग की कलाकृति सी नक्काशीदार कैबिनेट थी। कैबिनेट की दुर्गति और इसमें पड़ी डायरी को देख सम्पदा को कैबिनेट और डायरी देने वाली पंजाबी लड़की सोनल याद आ जाती है। घर और जीवन में समाया शून्यताबोध और अकेलापन उसे अतीत की एक यात्रा पर ले जाता है, जब समय से पहले सेवा निवृति ले उसने घर और समाज से प्रताड़ित एशियन महिलाओं के सहातार्थ ‘साथ’ संस्था बनाई थी ।
प्राकृतिक आपदा की भयावहता और आपदा प्रबंधन के स्थानीय प्रयासों का वर्णन करने के बाद डॉ. सुधा ओम ढींगरा एक दूसरी कथा की ओर मुड़ती है।
नैरेटर सम्पदा डॉक्टर और एक सामाजिक कार्यकर्ता है। एन.जी.ओ. में उसकी मुलाक़ात सोनल से होती है। सोनल जालंधर के एक गाँव के अतिसंपन्न ज़मींदार परिवार की बेटी है। पूर्वज महाराजा रणजीत सिंह के तोशखाने में काम करते थे। महाराजा के ख़ज़ाने से चुराई हुई और अपनी कमाई हुई दौलत के कुछ अंश से उन्होंने नया गाँव बसाया था। उसके पिता ने सेना से रिटायरमेंट ली हुई है, जबकि चाचा मंगल में बिगड़ैल अमीरों वाले सब ऐब हैं। वह शराबी, जुआरी, क़ातिल, नशेड़ी, निठल्ला-यानी हर बुरे काम में संलग्न था। अपनी बुराइयों में अवरोध बनने वाली भतीजी मीनल से वह अपने साले के बेटों से दुष्कर्म करवा कर उसकी हत्या करवाता है। पिता और दादा की हत्या के बाद पहले चाचा मंगल का ससुराल, फिर माँ के मायके और फिर बहुरूपिया बलदेव उस ख़ज़ाने को समेटने के लिए इस परिवार पर, मीनल-सोनल पर ज़ुल्म करते हैं, जिसे इन्होंने वर्षों पहले सरकारी ख़ज़ाने में जमा करवा दिया था। अर्थात भारतीय गाँवों के बड़े ज़मींदारों का जीवन भी बाहर भले ही बहुत आकर्षक लगे, पर अंदर से खानदानी झगड़ों, शराब, नशे, धोखाधड़ी ने उसे खोखला कर रखा है।
नक़ली शादियाँ उपन्यास की अगली समस्या है। सोनल को ननिहाल द्वारा शादी के नाम पर चलने वाले एन.आर.आई. दूल्हों के बिजनेस का शिकार बनाया जाता है। पूरा गैंग यह खेल खेलता है। मानव तस्करी इसी का एक पक्ष है। बलदेव इसी धंधे में है। बलदेव का असली नाम सुलेमान है। वह शादी के नाम पर युवतियों को विदेश लाता है और उन्हें वेश्यावृति में धकेल अगली शादी में जुट जाता है। नाना और मामा के षडयंत्रों और दुराभिसंधियों का शिकार हो सोनल शादी के जाल में फंस अमेरिका पहुँचती है और सम्पदा से उसकी भेंट होती है।
भ्रष्ट तंत्र सुधा जी के प्रतिपाद्य में प्रमुख है। क्या पुलिस कर्मी, क्या पुलिस अधिकारी सब मंगल चाचा के यहाँ बिके हुये हैं। उनके अड्डे पर आकर शराब पीते हैं, नशा करते है, नाचते गाते हैं। इन्हें तो कोई भी ख़रीद सकता है। दुष्कर्म और हत्या की शिकार मीनल की लाश की तब तक सुध नहीं ली जाती, जब तक सारा गाँव धरना नहीं देता।
यह आतंकवाद का वह समय है, जब खालिस्तानियों की हिंसा का विरोध करने वालों को हिंसा का शिकार होना पड़ता था। पाश जैसे कवि, साहित्यकार, संपादक, बुद्धिजीवी की उग्रवादियों द्वारा हत्या इसलिए की जाती है कि वह हिंसा, धार्मिक कट्टरता का विरोधी था। अमेरिका से एंटी-47 पत्रिका के ज़रिये उसने खालिस्तान का खुला विरोध किया था। पम्मी की हत्या इसलिए होती है कि उसके लेखों में उनका समर्थन नहीं होता था। सोनल के पिता और दादा भी उनकी खूंखारता का शिकार होते हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार और तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का भी उपन्यास में वर्णन है।
नक्काशीदार कैबिनेट प्रेमकथा नहीं है, लेकिन युवा हृदय के इस रागबोध को, जीवन और जगत के इस सत्य को नकारा भी नहीं जा सकता। उपन्यास में दो प्रेमी युगल मिलते हैं- मीनल और पम्मी तथा सोनल और सुक्खी। मीनल और पम्मी की पूर्वार्द्ध में ही हत्या हो जाती है- मीनल की दुष्ट चाची के परिवार द्वारा और पम्मी की उग्रवादियों द्वारा, जबकि सोनल और सुक्खी विकराल और विपरीत स्थितियों का सामना करते गन्तव्य तक पहुँचते हैं। सुक्खी प्रिया सोनल की सुरक्षा के लिए पुलिस में एस.पी. बनता है और उसकी ज़रूरत के अनुसार नौकरी छोड़ विदेश पहुँच जाता है।
पत्रकारिता को लोकतन्त्र का प्रमुख स्तम्भ कहा गया है। उपन्यास के पूर्वार्द्ध में प्रमुख रोल निभाने वाला पम्मी पत्रकार है। मीनल की हत्या पर जब न्यायतंत्र नींद से न जगने का हठ लिए था, पम्मी और मीडिया ही उनकी तंद्रा भंग करते हैं।
ग्राम्य जीवन का रहन-सहन और विदेश का रहन-सहन दोनों की यहाँ चर्चा है।
अपनों से बिछुड़ने, देश, माँ-बाप से बिछुड़ने की पीड़ा और पल-पल सालने वाला अकेलापन विशेषत: चित्रित है। प्रवासी जीवन का अकेलापन घर-परिवार, नौकरी-समाजसेवा में व्यस्त सम्पदा भी महसूस कर रही है और अपनी पढ़ाई तथा षडयंत्रकारी बलदेव को पुलिस के हवाले करने का लक्ष्य लेकर जीने वाली सोनल भी। उपन्यास के अंतिम यानी नवम परिच्छेद में केबिनेट की दरार से सम्पदा को वर्षों पुराना अपना एक अंतर्देशीय पत्र मिलता है, जिसे माँ को लिखा तो गया था, पर कभी पोस्ट नहीं किया गया। पराये देश का सन्नाटा उससे झेला नहीं जाता। जहाँ न मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों की पावन ध्वनियाँ है, न अड़ोसी-पड़ोसी की आत्मीयता, (जेन जैसी ड्रग एडिक्ट पड़ोसिन) न बच्चों की चहल-पहल।
पंजाब के वातावरण में दोहरा संत्रास छाया हुआ है। एक संत्रास वह है जो सोनल को मीनल की हत्या ने दिया, चाचा-चाची और उनके सगों-साथियों ने, नाना-मामा ने दिया-जिसके कारण वह वर्षों ढंग से सो नहीं पाती और दूसरा संत्रास उग्रवाद, आतंकवाद, खालिस्तान की देन है- जिसने भाई सरीखे पम्मी की, पिता और दादे के प्राण लिए।
स्त्री जीवन का संघर्ष जितना विकट है, सशक्तिकरण की चाह उतनी ही प्रबल है। यह संघर्ष मीनल की बलि लेता है जबकि सोनल अपने साहस और धैर्य से बलदेव का भंडाफोड़ कर, न जाने कितनी युवतियों का मानव तस्करी से उद्धार करती है। पराये देश में नितांत अकेली होने पर भी वह हिम्मत नहीं हारती, वह न बलदेव के चक्रव्यूह में धँसती है, न भारत वापिस आती है और न सुक्खी से शादी कर आराम से जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेती है। वह एक ओर उच्चतम शिक्षा लेती है और दूसरी ओर बलदेव को हिरासत में पहुँचा, उसके गैंग का पर्दाफ़ाश कर न जाने कितनी युवतियों की इस मानव तस्करी से रक्षा करती है। पेरिस में नौकरी करते हुये भी वह भारतीय युवतियों के शोषण के विरुद्ध अपना अभियान ज़िंदा रखती है।
सम्पदा समय से पहले रिटायर्डमेंट ले एशियन स्त्रियों के लिए एन.जी.ओ. खोलती है। यह लक्ष्य मन-आत्मा से जुड़ा है, इसीलिए वह वकील की मदद ले सोनल को अपने घर में आश्रय देती है। बलदेव के मायाजाल से युवतियों को बचाने में उसके साथ है। सोनम की माँ नितांत विपरीत स्थितियों में बेटी का साथ देती हैं और स्थितियाँ सुधार जाने पर भी आराम से नहीं बैठती, हवेली में बच्चों का स्कूल खोल गाँव और देश की उन्नति में अपनी हिस्सेदारी निभाती है। डनीस पराये देश की एक अपरिचित युवती को न मात्र शरण देती और रास्ता दिखाती है, अपितु एक सजग जासूस की तरह उस सुलेमान/ बलदेव के घर के चक्कर भी लगाती रहती है।
मनुष्य विश्व के किसी भी हिस्से से हो, मानव मूल्यों ही जीवन को जीने लायक़ बनाते हैं। कहीं थोड़ा-बहुर अंतर भले ही देखने को मिल जाये, जैसे विदेश में बच्चे हों या बूढ़े- उनमें आत्मनिर्भरता की भावना ज़्यादा रहती है। डनीस और रॉबर्ट अस्सी की उम्र में भी बच्चों पर बोझ नहीं बनना चाहते और सम्पदा बच्चों के बिना बहुत अकेलापन महसूस करती है। “अमेरिकी पैरेंट्स भारतीयों की तरह बच्चों को बुढ़ापे का सहारा नहीं समझते, अपनी ज़िंदगी को भरपूर जीते हैं और बच्चों को भी उनकी इच्छानुसार जीने का समय और अवसर देते हैं। शादी, मृत्यु, थैंक्स गिविंग और क्रिसमस पर सारा परिवार इकट्ठा होता है।“ (पृष्ठ 13) भारतीय मूल के लोग घरों में खाने-पीने का और दूसरा सामान पर्याप्त मात्रा में संग्रहीत करके रखते हैं, जबकि अमेरिकनों में यह वृति बहुत कम है। अमेरिका में सब का नाम लेते हैं, जबकि भारत में ऐसा नहीं है।
उपन्यास में नौ परिच्छेद हैं। शीर्षक प्रतीकात्मक है। अमेरिकी जीवन भारतीयों के लोगों के लिए उस नक्काशीदार कैबिनेट की तरह है, जो अपनी सारी ख़ूबसूरती के बावजूद उस देश के हेरीकेन सा हो सकता है।
भाषा में पंजाबी और अँग्रेज़ी का पुट है। यहाँ पाश की काव्यात्मक पंक्तियाँ भी हैं और बौद्धिक चिंतन भी- “जीवन का युद्ध हो या देशों का युद्ध, राजनीति की शतरंज हो या धर्म का मैदान, दो ही प्रवृतियाँ आमने-सामने होती हैं, कौरव-पांडव, देवता-असुर। विदुर प्रवृति तो इन दो पाटों की चक्की में पीस दी जाती है। भूमंडलीकरण से पूर्व भी पूरे विश्व में मानवी जातियाँ, प्रजातियाँ दो ही थी-अच्छी या बुरी।“ (पृष्ठ-76) यह चिंतन सुधा जी के गद्य को गरिमा और गहराई देता है, धार और आकर्षण देता है, पाठक को बाँधने में जादुई करिश्मा देता है, ओत्सुक्य को पोषित करता है।
सूत्रात्मकता उनके गद्य में प्राण तत्व की तरह समाई है-
- भविष्य की चिंताओं में मनुष्य वर्तमान को जीना भूल जाता है और स्वयं का जीवन दूभर कर लेता है। ...जिस दिन मानव वर्तमान में जीना सीख लेगा, भूत सी परेशानियों और चिंताओं से मुक्त हो जाएगा। (पृष्ठ-9)
- मौसम के परिवर्तन का पक्षियों को सबसे पहले पता चल जाता है। (पृष्ठ-10)
- दूसरे देश में स्थापित होने, स्वयं को प्रूव करने के लिए स्थानीय लोगों से अधिक परिश्रम करना पड़ता है। (पृष्ठ-12,13)
- भावनाओं और संवेगों का पासवर्ड और नंबर नहीं होता । (पृष्ठ 15)
- अगर सोच नकारात्मक हो तो बढ़िया अनुभव भी खुशी नहीं दे पाते। (पृष्ठ 24)
- क़ानून अंधा नहीं, क़ानून गुनाहगार है, जो अपराधियों का साथ देता है। (पृष्ठ 36)
- इन्सान अगर पुस्तकों को साथी बना ले तो कभी अकेला नहीं होता। (पृष्ठ 48)
- जिस देश में क़ानून कमज़ोर होता है, वह देश तरक्क़ी नहीं कर सकता। (पृष्ठ 98)
उपन्यास वर्तमान से अतीत और फिर अतीत से वर्तमान की ओर आता है। इसके शिल्प को पूर्वदीप्ति तो नहीं, हाँ चेतन प्रवाह या स्मृत्याभास कह सकते हैं, जो डायरी के निकट पड़ता है। अंत सुखद है। मूल्यों की विजय का संदेश लिए है। चक्रवात निकल जाता है और प्रदेश में पर्याप्त सरकारी ग़ैर सरकारी सहायता पहुँच जाती है। नायिका सम्पदा अकेलेपन की वेदना पर नियंत्रण पाती समझ लेती है कि प्रवास में मित्र ही अपना सब-कुछ, शुभचिंतक, रिश्तेदार होते हैं। सोनल अपने मिशन में सफल हो बलदेव को पकड़वा देती है। जीवन को जीने योग्य बनाने के लिए, बुराई के नाश के लिए सम्पदा-सार्थक, रॉबर्ट-डनीस, जस्सी जैसे अभी दुनिया में बहुत से अच्छे लोग भी हैं। पंजाब आतंकवाद-खालिस्तान मुक्त हो जाता है। सोनल पी.एच.डी. करके पेरिस के विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगती है।
डॉ. मधु संधु
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब।
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