शुभचिन्तक
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. मधु सन्धु23 Dec 2010
वह दुबले छरहरे बदन की गंदमी रंग की गम्भीर, सभ्य, सुसंस्कृत सामान्य सी लड़की थी। दो बच्चे हाई स्कूल में पढ़ते थे, पर चेहरा या शरीर उसके औरत होने का समर्थन नहीं भरते थे।
अभी ऑफ़िस पहुँची ही थी कि फोन की घंटी टनटना उठी।
"हैलो ! हू इज़ ऑन द लाइन।" उसने दफ़्तरी मकेनिकल स्वर में पूछा
"मानसी ! नितिन हेयर, सुबह स्कूटर में हवा कम लग रही थी, सोचा पूछ लूँ, ठीक से पहुँच गई हो," स्वर में मिश्री भी थी और आत्मीयता भी। उसने हाँ हूँ करके फोन पटक दिया।
* * *
घड़ी देखी। चार पचपन हुए थे। वह घर लौटने की तैयारी में थी कि ट्री ट्री होने लगी।
“हैलो," वह जल्दी में थी।
“मानसी, मैं बोल रहा हूँ अरविन्द। कल बच्चों का पेयरेंट- टीचर मीट है। तुम चाहो तो रहने देना। मैंने अपने अप्पू के लिए तो जाना ही है। तुम्हारे बेटे का भी देख लूँगा।“
उसने पटाक से फोन फेंक दिया।
* * *
जब तक वह ज़िंदा था, शराब की गंध से घर गँधाता रहता। वह खीजती, कलपती, कुढ़ती रहती। काश न होता! किसी से यह तो कह पाती- ’नहीं है। विधवा हूँ।’ कोई पूछे क्या करता है, तो इस बेकार, निखट्ठू के लिए झूठ गढ़ना पड़ता। त्रासदी यह कि झूठ अगली बार तक याद भी नहीं रहता था। तब शर्मिंदा होने के सिवाय कोई चारा ही न बचता।
तब ऐसे फोन कभी नहीं आए थे- उसके मरते ही इतने शुभचिन्तक? सभी मेरे ख़सम बने फिरते हैं - वह उफनाई हुई थी।
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