जड़ पकड़ते हुए
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा डॉ. मधु सन्धु15 Mar 2022 (अंक: 201, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
पुस्तक: जड़ पकड़ते हुए
लेखक: राकेश प्रेम
प्रकाशक: बिम्ब प्रतिबिंब, फगवाड़ा
समय: 2021
मूल्य:160 रुपये
1995 में राकेश प्रेम का कविता संकलन ‘जंगल और जुगनू’ और 2021 में ’सूरजमुखी सा खिलता है जो’ प्रकाशित हुए। इसी वर्ष उनका अगला कविता संग्रह ‘जड़ पकड़ते हुए’ प्रकाशित हुआ। इससे पहले किशोरावस्था में इस प्रातिभ कवि के दो संकलन अपने कविबंधू दिलजीत दिव्यांशु के साथ 1972 में ‘पुष्पांजलि’ और 1977 में ‘रंगों की पहचान में’ प्रकाशित हो चुके थे। पुस्तक के ‘संवाद’ में कवि ने इन कविताओं को आत्मसंवाद की स्थिति से जुड़े शब्द चित्र कहा है। जिसका एक छोर मानसिकता से तथा दूसरा सामाजिकता से जुड़ा है। कवि मानता है, “सामाजिकता और अपनत्व का भावबोध जीवन को दृष्टि देते हैं। इन्हीं के मध्य में अस्तित्वमय होकर हम जीवंत और संवेदनशील हो पाते हैं।“1
कवि मानता है कि जीवन अनवरत यात्रा है—चैरेवेति, एक युद्ध है और अस्तित्व सम्पन्न योद्धा को ठोस ज़मीन पर पैर जमाकर, जय- पराजय के प्रति अनासक्त होकर लड़ना है:
अपने
होने को
महसूस करना
अस्तित्व को जीना
लड़ाई के लिए तैयार होने का
पहला कदम है।2
जीवन वर्चस्व की लड़ाई है। अहं की लड़ाई है। हर व्यक्ति के अपने-अपने सच होते हैं और जीवन में व्यवस्था लाते-लाते वह अव्यवस्थित हो जाता है। सब की सुनना और चुप रहना—यानी मौन भी जीवन की उपलब्धि बन जाता है। भोगे हुये क्षणों को फिर से जीना चाहता है, लेकिन समय रेत की तरह हाथों से फिसलता जाता है। मुखौटों का, दोहरे व्यक्तित्व का, मन दर्पण को झुठलाने का कवि विरोध करता है। जीवन उत्सव है, रंगों का समीकरण है।
राकेश प्रेम मूल्यों के अवमूल्यन की भी बात करते हैं। मूल्यवत्ता कहती है कि गंधहीन पुष्प का न माला के लिए वरण किया जाता है और न देवता के चरणों के लिए। खोटा सिक्का भी अपनी उपयोगिता खो बैठता है। लेकिन विडम्बना यह है कि आज बाजारवाद के इस युग में खरा सिक्का भी नहीं चल पाता:
बाजारवाद के युग में
खरा सिक्का भी चल पाता है कहाँ !
अवमूल्यन का युग है
मूल्य टिक पाता है कहाँ!3
हमारी दुधमुहीं, कोमल, निर्मल, गंगाजल सी पवित्र संवेदनाएँ अचेतन में ही रह जाती हैं।
संकल्प विकल्प में डूबता–उतराता व्यक्ति ज़रूरी नहीं कि अपने अभीष्ट का ही चयन कर पाये।
मन की मरुभूमि का जीवन राग देहराग ही हो, यह एक मात्र विकल्प नहीं है:
देहराग
जीवनराग नहीं हो सकता
भले ही
रागमय जीवन किन्तु
रसधार बहाता है।4
फिर भी कवि का चिंतन, दर्शन, जीवट मानता है कि मात्र साकारात्मता ही जीवन में उड़ान भरती है। मोह के धागे, भावनाओं के महीन रेशे, सम्बन्धों की डोर ही निराशा में आशा, गिरने से उठने, फिसलने पर संभलने की शक्ति देती है। उड़ानों का साहस देती है।
सपने जीवन की अनिवार्यता हैं। सपने मनुष्य को जीवंत संसार रचने की, मुस्काने हँसने की सामर्थ्य देते हैं। लेकिन कवि को स्पष्ट है कि जीवन के कैनवस पर चटक और सुरमई रंग, सुख और दुख साथ-साथ होते हैं। सपने, रंग, महक, सच, आवाज़, उमंग, उलझन, स्मृतियाँ, शब्द, ध्वनि, सत्य-पथ, मंथन जैसी कवितायें मनःजगत के रेशे खोलती जाती हैं। जीवन रंगों का उत्सव है, जबकि रंगों का समीकरण मनुष्य को स्वयं बनाने हैं।
पौराणिक, ऐतिहासिक प्रसंग यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। अश्वमेध यज्ञ, शकुनि मामा का चौपड़, यक्ष प्रश्न, सागर मंथन, तुलसीदास और रत्नावली का साँप रस्सी का प्रसंग, अभिमन्यु और चक्रव्यूह, एकलव्य और अंगूठे की गुरु दक्षिणा, सिद्धार्थ का गौतम बुद्ध बनाना। अगर अश्वमेध यज्ञ कर विश्वविजेता बना जा सकता है तो शकुनि मामा के दाँव और धूर्त चालें भी रास्ता रोके खड़ी रहती हैं। राकेश प्रेम पौराणिक गाथाओं पर प्रश्न चिन्ह भी लगाते हैं:
जलाशय के किनारे आए
पांडुपुत्रों से
प्रश्न करने का अधिकार
यक्ष का था या नहीं
या फिर—
अनाधिकार चेष्टा थी।5
जिस देश में जलदान की परंपरा रही हो, वहाँ पर जलाशय के किनारे आए पांडु पुत्रों से यक्ष के प्रश्न क्यों? सागर मंथन कविता में कहते हैं:
हर युग में होता है सागर मंथन
स्वार्थ के राक्षस
और जनकल्याण के देवता
होते हैं प्रतिद्वंद्वी।6
‘अश्वत्थामा हतो नरो व कुंजरों’ को कवि सत्य या असत्य न मान उस कूटनीति का हिस्सा मानता है, जो मानवता की रक्षा का अपरिहार्य लक्ष्य लिए थी।
राजनीति की विडम्बना, उसमें समाये स्वार्थ पर भी कवि चिंतित है:
स्वार्थ की शूद्र राजनीति का
होते ही विस्फोट—
बड़े हो जाते हैं दल
छोटा हो जाता है देश।7
माँ की ममता और सृजन, संस्कार और विचार—सब के प्रति कवि नत मस्तक है। ‘सृजन’ कविता में कवि कहता है:
माँ की ममता के आँचल में है
जीवन
प्रतिबिंब सृजन का।
मन का विश्वास है कि अपने सपनों को हवा न लगने दो। माँ कहती है कि अगर नज़र लग गई तो स्वप्न अधूरे ही रह जायेंगे।
प्रकृति के भिन्न अंग, रूप कवि को सम्मोहित करते हैं। बीज, पेड़, धूप, उजली धूप, बादल, चाँदनी, मौसम, इन्द्र धनुष शीर्षक की कवितायें भी यहाँ हैं। महक कविता में कवि लिखता है:
कोंपल
एक फूटती है
सूखी ज़मीन से
हरहरा उठती है धरती—
गूँजती है सरगम
जीवन-संगीत8
प्रकृति यहाँ उत्प्रेरक भी है और आदर्श भी। राकेश प्रेम के यहाँ प्रकृति का हर अंश हमें उमंग, विकास, सुगंध का संदेश देता है। जीवन सहज नहीं, संग्राम है। जैसे एक बीज धूप-पानी-आँधी के बावजूद आदमक़द पेड़ बन ही जाता है और चुन्नौतियों को भी चुन्नौती देने लगता है, वही स्थिति मनुष्य की भी है:
चुन्नौती सा अस्तित्व उसका
कीलने लगता है चुन्नौतियों को
बीज अब
पेड़ बन गया है
विद्रोही पंक्ति का
एक और सैनिक!9
गीत, लय, छंद, रागात्मकता कवि का अभीष्ट नहीं है। अनेक स्थलों पर उनकी काव्य पंक्तियाँ सूत्रात्मक हो गई हैं:
पेड़ का . . . जड़ पकड़ना . . . एक संभावना है . . . दिशा व्यापी . . . विकास की।10
यहाँ प्रत्येक पंक्ति में एक विचार है, चिंतन है:
’मौसम मन का ही होता है, रंगों का नहीं होता कोई मौसम।‘11
‘उत्तर हमें ही होना है अपने प्रश्नों का।’12
‘होता है कठिन, अपने ही प्रश्नों से घिरना
होना पराजित, अपने ही हाथों।‘13
कवि कहीं वीणावादिनी से वर माँगता है, कहीं भीड़ में अकेलेपन की बात करता है, आस्था–अनास्था, संकल्प–विकल्प की गहराई तक जाता है, अस्तित्व पर चिंतन करता है, नियति के अभिलेख पर सोचता है।
‘जड़ पकड़ते हुये’ आत्मसंवाद की स्थिति से जुड़े शब्द चित्रों का ताना–बाना है। इसमें व्यक्ति, समाज, देश, राजनीति है। ऐतिहासिक-पौराणिक संदर्भ और उनकी नवीन व्याख्या है। प्रकृति की उदातता है और सूत्रात्मकता है। लेकिन कवि मनुष्य का जीवंत और संवेदनशील अस्तित्व प्रमुख है।
संदर्भ:
-
राकेश प्रेम, जड़ को पकड़ते हुये, बिम्ब प्रतिबिम्ब प्रकाशन, फगवाड़ा, पंजाब, 2021, पृष्ठ 11
-
वही, पृष्ठ 17
-
वही, पृष्ठ 90
-
वही, पृष्ठ 54
-
वही, पृष्ठ 27
-
वही, पृष्ठ 107
-
वही, पृष्ठ 93
-
वही, पृष्ठ 35
-
वही, पृष्ठ 19
-
वही, पृष्ठ 20
-
वही, पृष्ठ 37
-
वही, पृष्ठ 110
-
वही, पृष्ठ 163
डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,हिन्दी विभाग
गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब।
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