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देह-दान और पिता-पुत्री के आत्मीय सम्बन्धों का रूदादे सफ़र

समीक्षित पुस्तक: ‘रूदादे-सफ़र’ उपन्यास
लेखक: पंकज सुबीर
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, बस स्टैंड, सीहोर, मप्र 466001
दूरभाष: 07562405545,
ईमेल: shivna.prakashan@gmail.com
प्रकाशन वर्ष: 2023
मूल्य: ₹300/-
पृष्ठ: 232

‘रूदादे सफ़र’ पंकज सुबीर का चौथा उपन्यास है। 232 पृष्ठों के इस उपन्यास के 19 परिच्छेद हैं। इससे पहले उनके ‘ये वो सहर तो नहीं’, ‘अकाल में उत्सव’, ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ पाठकों तक पहुँच चुके हैं। उपन्यासकार के साथ-साथ वे कहानीकार, ग़ज़लकार, व्यंग्यकार और संपादक भी हैं। 

‘रूदादे सफ़र’ के आवरण पृष्ठ का चित्र बताता है कि यह एक पिता और पुत्री के जीवन सफ़र का लेखा-जोखा है। पुत्री, जो पिता के मज़बूत कंधों पर बैठी है—सुरक्षित और आश्वस्त, निश्चिंत, तुष्ट और मस्त। 45 वर्षीय डॉ. अर्चना सिंह नायिका हैं—एक स्त्री, उच्च शिक्षित, भूपाल के गाँधी मेडिकल कॉलेज के एनॉटमी विभाग की विभागाध्यक्ष, वर्तमान की ठोस ज़मीन के बावजूद बार-बार अतीत की यात्रा पर निकलने वाली प्रौढ़ा। उपन्यास पिता-पुत्री संवाद-सा है। जबकि पिता ने उसका साथ केवल तीस वर्ष की उम्र तक ही दिया। 

‘रूदादे सफ़र’ एक यात्रा है—बेटी के नेह में डूबे एक पिता की, पिता के वात्सल्य में तिरोहित एक बेटी की। दशकों लंबी यात्रा। बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध से इक्कीसवीं शती के पूर्वार्द्ध को छूती यात्रा। लैंड लाइन से मोबाइल, दूरदर्शन से कंप्यूटर, सोशल मीडिया तक की यात्रा, पुराने चेतक स्कूटर से कार तक की यात्रा। पिता-पुत्री दोनों डॉ. हैं—पिता ई.ऐन.टी. में और बेटी शरीर विज्ञान में। 

उपन्यास में मानों यह दो कथाएँ समानान्तर चल रही हैं। भूपाल के गाँधी मेडिकल कॉलेज के एनॉटमी विभाग (शरीर रचना विज्ञान), दधीचि पथ-कक्ष के विवरण हैं। एम्बामिंग रूम और मोर्चूरी रूम हैं। विभागाध्यक्ष डॉ. अर्चना सिंह, असिस्टेंट प्रो. डॉ. रेहाना अली खान, विशाखा दवे, डॉ. रोहित परमार, एसोसिएट प्रो. डॉ. सुषमा प्रधान, डॉ. आकाश दुबे, डॉ. नेहा सिंह, डॉ. विकास भालेराव, और डिमांस्ट्रेटर मोहन, रमेश, एनॉटमी विभाग में हैं। समस्या और संदेश देह-दान का है। यही जीवन में किया जाने वाला सबसे बड़ा दान है। 

मेडिकल कॉलेज में पहुँचते ही होने वाले डॉक्टरों का शरीर विज्ञान विभाग से पाला पड़ता है। यहाँ डाइसेक्शन रूम हैं, कडैवर (मृत शरीर) हैं। फार्मेलीन की तेज गंध है। विद्यार्थी पहले दिन कडैवरिक शपथ लेते हैं—“माइ हार्ट फिल्स विथ ग्रैटिच्यूड, एज आई रियलाइज़ यूअर काइंड एंड करेजियस एक्ट ऑफ़ डोनेटिंग यूअर बॉडी फ़ॉर द परपज़ ऑफ़ और लर्निंग।”1

चार-पाँच दिन उसे छू कर अपने को मज़बूत करते हैं। उन्हें बताया जाता है कि कडैवर ही उनका पहला टीचर है। कडैवर देख चक्कर खाकर गिर रही, बेहोश हो रही लड़कियाँ हैं। कल के डॉ. पहली बार सर्जिकल ब्लेड/ स्केलपल चलाना सीखते हैं। लाशों के बीच घूमना, उनसे खेलना कोई सहज स्थिति नहीं है। डॉ. रेहाना कहती है:

“कभी कभी मुझे भी ऐसा सपना आता है कि मैं डाइसेक्शन रूम के कडैवर्स के बीच अकेली खड़ी हुईं। कोई नहीं है पूरे डिपार्टमेंट में। मैं बहुत ज़ोर से चीखती हुईं और गिर पड़ती हूँ।”2

कई बार ऐसे कडैवर भी मिल जाते हैं, जिनकी मिरर-इमेज पोज़िशन होती है—यानी हार्ट राइट में और बाक़ी अंग भी विपरीत पोज़िशन में। 

सारा समय शवों और इंसानी शरीर के अंगों के बीच विचरणे वाली यह विभाध्यक्ष नायिका बौद्धिक होते हुए भी बहुत संवेदनशील है। प्रथम वर्ष की कडैवर को देख बेहोश होने वाली शिवांगी की मनःस्थिति को समझती है। पिता की मृत्यु पर मंत्री की पत्नी के गले लिपट ज़ार-ज़ार रोने लगती है। पिता के कडैवर को देखने आई प्रवीण गर्ग की बहन राधा के लिए भावुक हो जाती है। 

‘रूदादे सफ़र’ दस्तावेज़ है एक गाइड का, जो दर्शक रूपी सैलानियों को भूपाल के हर कोने-कतरे से, अंदर-बाहर से, अतीत-वर्तमान से, पुराने-नए शहर से परिचित करवा रहा है। महानगर भूपाल झीलों पहाड़ियों और जंगलों का शहर है। नवाबों का शहर है। ईदगाह हिल्स, कोहेफिज़ा, हमीदिया अस्पताल, जयप्रकाश चिकित्सालय, परी बाज़ार रोड, स्टेट बैंक चौराहा, रॉयल मार्केट, रवीन्द्र भवन, हिन्दी भवन, कमला पार्क, बूढ़ा तालाब, मोती मस्जिद, सतराहों वाला पीर गेट चौराहा, रेत घाट, पोलिटेक्निक चौराहा, लिंक रोड, न्यू मार्केट, वाणगंगा, हमीदिया रोड आदि। 

भवानी चौंक, कर्फ़्यू वाली देवी के मंदिर का उल्लेख करते स्थानों के नामकरण का इतिहास भी दिया गया है। जैसे चंद्रधर गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ ने अमृतसर शहर को अमर कर दिया, वैसे ही यह उपन्यास भूपाल को अतिरिक्त गरिमा दे रहा है। 

‘रूदादे सफ़र’ प्रेम कथा नहीं है, लेकिन जीवन के इस अति अनिवार्य पक्ष को एक सजग, सफल उपन्यासकार भला कैसे छोड़ सकता है। प्रेम की एक उम्र होती है। मेडिकल कॉलेज के छात्र जीवन में अर्चना को शेखर से प्रेम तो हुआ था, लेकिन विचार वैमनस्य के कारण यह प्रेम विवाह में परिणित नहीं हो सका, शेखर अमेरिका चला गया और उम्र चढ़ती गई। पता ही नहीं चला कि प्रेम करने की उम्र, जीवन का बसंत कब बीत गया। रेहाना अविवाहित कलेक्टर प्रवीण गर्ग और डॉ. अर्चना की बातें कर मन के तार तो झंकृत करती है, लेकिन उपन्यास इस अध्याय को बंद कर पुनः देहदान और पिता-पुत्री के शाश्वत रागबोध पर आ जाता है। 

‘रूदादे सफ़र’ एक भावुक संगीतज्ञ के गीतों का संग्रहण है। गीतकारों, ग़ज़लकारों, संगीतकारों, चित्रपटों के जीवन में वर्चस्व का, अनिवार्यता का प्रमाणपत्र है। बेटी के अंदर पिता का स्वर गूँजता रहता है:

“आ चल के तुझे, मैं लेता चलूँ, इक ऐसे गगन के तले
जहाँ ग़म भी न हों, आँसू भी न हों, बस प्यार ही प्यार पले।”3 

जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, गुलज़ार, आशा भोंसले, लता मंगेशकर, निदा फाजली, कब्बन मिर्ज़ा की ग़ज़लें पिता-पुत्री के अंदर गहरे उतरी हुई हैं। मूलतः उपन्यास के शीर्षक (रूदादे सफ़र) से भी ग़ज़ल सा रागबोध ही प्रतिध्वनित होती है। 

‘रूदादे सफ़र’ एक नौकरी पेशा स्त्री का जीवन चित्र है। जिसे कई बार नेहा की तरह बिना नाश्ता किए ही ड्यूटी पर आना पड़ता है अथवा शवों के बीच घूमते-घूमते अर्चना की तरह अपने बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता। 

यह नारीवादी रचना नहीं है। लेकिन उपन्यासकार पुरुषसत्ता की बात करता है, जहाँ सिर्फ़ स्त्री को ही अपने को पुरुष के अनुरूप ढालना होता है। पति-पत्नी सम्बन्ध बस इसी तार से जुड़े रहते हैं। पंकज सुबीर कहते है—“पुरुषों से भरे इस जंगल में हर स्त्री अकेली होती है। केवल एक पिता ही होता है, जो इस भयानक जंगल में उसे रोशनी की तरह दिखाई देता है।”4
उपन्यास ऐसे क्रूर और चतुर पुरुष का भी वर्णन करता है, जो पत्नी/स्त्री/ प्रेमिका की हत्या कर उसके मृत शरीर को देह दान के नाम पर एनॉटमी विभाग में ठिकाने लगाना चाहता है। 

रूदादे सफ़र’ भ्रष्टाचार की परतें खोलता है। पिता-पुत्री को पैसों का कोई लालच नहीं, जबकि आज वह समय है, जब ज़रूरत न होने पर भी डॉ. अपनी कमीशन के लालच में पैथोलोज़ी लैब्स की जाँचों, एक्स-रे की रिपोर्ट के बिना बीमारी का डाइग्नोज़ ही नहीं करते। डॉ. दलाल बन गए हैं। यह पेशा डाकुओं की तरह होता जा रहा है। नर्सिंग होम की संस्कृति अस्पतालों को कसाईखाने में बदल रही है। 

आज वह समय है, जब अधपढ़े राजनेताओं का अहंकार, प्रभुत्व, अनुचित तेवर झेलना लोकतन्त्र की नियति है। भूपाल के गाँधी मेडिकल कॉलेज के एनॉटामी विभाग की अध्यक्ष डॉ. अर्चना को मेडिकल के क ख ग से भी अनभिज्ञ चिकित्सा शिक्षा मंत्री के ससुर की मृत्यु पर मृत शरीर की उनके बँगले पर ही एम्बामिंग करने के लिए कहा जाता है—जो कठिन ही नहीं असंभव भी है। लेकिन—

“प्रदेश का चिकित्सा शिक्षा मंत्री है वह, उसके ससुर की बॉडी को ही अगर कॉलेज लेकर जाना पड़े, तो किस बात का मंत्री हुआ वह।”5

सरकारी ऑफ़िसर—डॉ. हो या कमिश्नर-मंत्रियों के सामने तुच्छ, असहाय और बौने हैं। 

‘रूदादे सफ़र’ मानव-मन के रहस्यों में गहरे झाँकने, विषम मनःस्थितियों की तह तक पहुँचने का प्रयास है। नायिका की माँ पुष्पा भार्गव क्यों इतनी बेचैन, इतनी असुरक्षित है, क्योंकि अपने बचपन, अपनी किशोरावस्था में उसे आर्थिक स्तर पर बहुत कुछ देखना-झेलना पड़ा था। 

‘रूदादे सफ़र’ जाति–धर्म से ऊपर उस बौद्धिक लोक की कृति है, जहाँ अर्चना सिंह रेहाना खान की अप्पी है। जहाँ अफगानी ख़ून और हिन्दू ख़ून का भेद न होकर मानवीयता, बधुत्व, स्नेह ही मुख्य सच्चाई है। अम्मी की दम-बिरयानी, शीर-ख़ुरमा, जाफरानी पुलाव, फ़िरनी और दूसरे पकवान अर्चना को ख़ूब मज़ेदार लगते हैं। क्योंकि किसी धर्म के लोग अच्छे या बुरे नहीं होते। अच्छा या बुरा इंसान होता है। 

यह हिंदुस्तान का, हिन्दुस्तानी का, इक्कीसवीं शती का उपन्यास है। यहाँ उर्दू अंग्रेज़ी शब्दों से कोई परहेज़ नहीं किया गया। उपन्यास का ताना-बाना रागात्मकता, संगीत और शरीर विज्ञान के जिस धागे से बुना गया है, उसमें उर्दू-अंग्रेज़ी से परहेज़ हो ही नहीं सकता था। लता के लिए लतर, टेम्पो के लिए भटसुअर, टूटी फ्रूटी के लिए ‘हेमा मालिनी का दिल’ जैसे शब्द भाषा को भूपाली स्पर्श देते हैं। 

‘रूदादे सफ़र’ की भाषा सूत्र संग्रह है:

  1. केवल पढ्ने का नाम ज़िन्दगी नहीं है—इसके इलावा भी ज़िन्दगी है।6
  2. कला समय बर्बाद करने के लिए नहीं होती, समय को बेहतर बनाने के लिए होती है।7
  3. हम वही बनते हैं, जो हमें ज़िन्दगी शुरू के बीस-पच्चीस वर्षों में बनाती है। हमारा स्वभाव, हमारी आदतें, हमारी पसंद-नापसंद-सब कुछ हमारे जीवन के शुरू के पच्चीस सालों में तय हो जाता है।8
  4. पिता, समूची पृथ्वी पर वह एकमात्र पुरुष जिसपर कोई स्त्री आँख बंद कर विश्वास कर सकती है।9
  5. हर काम दूसरों के लिए नहीं किया जाता, कुछ काम अपने सुख के लिए भी किए जाते हैं।10
  6. हमें जीवन में वही मिलता है जो हम डिजर्व करते हैं, वह नहीं जो हम डिज़ायर करते हैं—हमारे दुख का असली कारण ही हमारी डिज़ायर्स हैं, अधूरी रह गई डिज़ायर्स।11
  7. नहीं पूछे गए प्रश्न हमारे अंदर जमा होते जाते हैं, हमें उम्र भर अंदर ही अंदर खरोंचते रहते हैं।12
  8. अकेलापन एक भौतिक नहीं, मानसिक अवस्था है। शरीर कभी अकेला नहीं होता, अकेला तो मन होता है।13
  9. ज़िन्दगी मछली की तरह होती है, ज़्यादा ज़ोर से पकड़ने में हाथों से फिसलने लगती है।14
  10. कैरियर और ज़िन्दगी में से किसी एक को चुनना हो तो ज़िन्दगी को ही चुनना।15
  11. बेटियों की आत्मा में एक और गर्भनाल होती है, उस गर्भनाल से बेटियाँ अपने पिता से भी जुड़ी होती हैं, माँ से भी जुड़ी होती हैं और अपने घर से भी जुड़ी होती हैं। यह गर्भनाल जीवन भर उनके साथ जुड़ी रहती है, मर कर ही कटती है।16

‘रूदादे सफ़र’ प्रकृति की ताज़गी में विहार करते पात्रों की यात्रा है। बोगनबेलिया, तुलसी, गुलाब, गेंदा, कैक्टस हर घर, पार्क में खिले हुए हैं। 

‘रूदादे सफ़र’ दो अछूते विषयों को पाठक के समक्ष लाता है कि देहदान देह की आवश्यकता है। देह को समझने के लिए, उसे स्वास्थ्य लाभ देने के लिए डॉ. को देह से ही देह का अध्ययन करना होगा। हिन्दी में भले ही ‘भया कबीर उदास’ या ‘नदी’ जैसे उपन्यासों में कैंसर जैसे रोग का वर्णन मिल जाये, लेकिन मेडिकल साइन्स के एनाटॉमी विषय और देहदान के महत्त्व और आवश्यकता पर लिखा गया यह संभवत: पहला उपन्यास है। दूसरी बात उपन्यास इस अवधारणा को खंडित करता है कि केवल बेटियाँ ही माँ के क़रीब होती हैं। यहाँ पिता-पुत्री के रूहानी रिश्ते कहते हैं कि बिटियों की एक आत्मिक गर्भनाल पिता से भी जुड़ी होती है। 

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब। 

संदर्भ:

  1.  पंकज सुबीर, रूदादे सफ़र, शिवना, सीहोर, 2023, पृष्ठ 12

  2.  वही, पृष्ठ 86

  3.  वही, पृष्ठ 52 

  4.  वही, पृष्ठ 42

  5.  वही, पृष्ठ 33

  6. वही, पृष्ठ 19

  7.  वही, पृष्ठ 20

  8.  वही, पृष्ठ 23

  9.  वही, पृष्ठ 53 

  10.  वही, पृष्ठ 53 

  11.  वही, पृष्ठ 57

  12.  वही, पृष्ठ 60

  13. वही, पृष्ठ 79

  14. वही, पृष्ठ 101 

  15. वही, पृष्ठ 110 

  16. वही, पृष्ठ 195

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