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अनन्त महाभारत

हममें से कई कर्ण और भीष्म थे
द्रोण और गुरु कृपाचार्य थे
किन्तु हवाओं के बहाव ने
हमें ला कर दुर्योधन के साथ खड़ा कर दिया।

 

अब हम सब गुणों के होते,
ना दान कर सकेगें,
ना शपथ नई खा सकेंगे,
वाणों के निशाने भी गलत होते जाएँगे,
ना चाह के भी हम अन्धे व बहरे कहलाएँगे ।।

 

ध्यान से सोचो तो था बहुत कुछ हम में,
किन्तु हाय रे ये क्षणों का बहाव
हमें बनाया है मानव से दानव,
हम कहाँ थे, कहाँ तक गिरते जाएँगे।

 

जब जब हमने केवल स्वार्थ क्षणों को-
अपने पास आने, ठहरने दिया है,
तब तब वो हमे छल कर चला गया है,
हमे ऐसे शिविर में छोड़ कर,
जहाँ से इच्छा होने पर भी, 
हम उसे ना छोड़ पायेंगे ।

 

घर घर में तो यही हो रहा है,
हर मन में तो यही हो रहा है,
कौन कहता है महाभारत हो चुका है,
दिन-रात ये यहाँ, अभी तक तो हो रहा है।

 

मैं तो चुपके से चली आई हूँ माधौ,
सब गुणों-विशेषताओं को छोड़ कर,
शपथ तो मैने ले ली है, 
तुम्हारी शरणागति की,
कोई और शपथ कहाँ काम आई है,
इस मानाभिमान सागर को पार कर आई हूँ,
तुमने तो देख ही लिया है,
मैं कहाँ से कहाँ आई हूँ।।

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