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रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

नन्हा बचपन 33

 

रागिनी के पालघाट से लौटते समय राजीव एक दिन की छुट्टी लेकर चेन्नई तक छोड़ने का विचार कर साथ निकला था। बेटी अब पिता से जुड़ ही चुकी थी। पता नहीं क्यों? राजीव का मन, बच्ची की चंचलता और रागिनी के आत्मविश्वास के प्रति आश्वस्त नहीं हो पा रहा था। 

पर राजीव का समयाभाव और यथासम्भव व्यवस्था के साथ यात्रा के लिए दृढ़-निश्चय कर रागिनी निकल चुकी थी। वहाँ के लोगों द्वारा दिए गए कपड़े, फूलों के गजरे वाले शृंगार, टीका-कुमकुम लगाए, नन्ही चूड़ियों में तो करुणा अपने लम्बे बालों के साथ दक्षिण भारतीय बच्ची ही लग रही थी। जो वहाँ के लोगों का प्यार और सम्मान भावना लिए हुए बहुत कुछ सीखने-समझने लगी थी। 

कोयंबटूर में एक परिचित सहकर्मी मिला जो यात्रा में आख़िरी पड़ाव तक का साथी है। साथ वाली सीट पर, उसके साथ जुड़ने से कुछ हद तक राजीव की चिन्ता कम हुई। बातें करते बहुत कुछ समझते-समझाते चेन्नई में जैसे ही राजीव उतरा, करुणा ने भयंकर तूफ़ान मचा दिया, “पा . . . जल्दी आओ! . . . मत जाओ! . . . माँ . . . पापा को बुलाओ ना! . . . पापा . . . ट्रेन खुल जाएगी . . . मुझे पापा पास जाना है। अरे वो गंदे अंकल मेरे पापा को ले कर चले गए।”

रास्ते में राजीव के ममेरे भाई मिलने आए थे। जो चेन्नई के क़रीब इधर ही पदस्थापित थे। जिनके साथ चेन्नई में उतरने पर, करुणा गंदे अंकल संबोधित कर रही थी। करुणा का अपने पिता के साथ आत्मीय जुड़ाव देखकर उसका मन बहलाने के लिए, “लाइए भाभी इसका ध्यान भटका कर इधर-उधर घुमा कर लाता हूँ।”

रोती करुणा को घुमाने के लिए गोद में उठा चल दिया। स्टेशन की भीड़-भाड़ और चकाचौंध रौशनी देखकर सम्भवतः वह कुछ शान्त हुई या नहीं, पता नहीं? पर इधर ट्रेन में रागिनी, बेटी के लिए चिंतित और परेशान थी। वो आदमी मेरी बेटी को लेकर पता नहीं कहाँ गया? मैं तो जानती भी नहीं उसे। कहीं ट्रेन खुल न जाए? चेन्नई में बीस से तीस मिनट देर तक ट्रेन के रुकने की जानकारी रागिनी को नहीं थी। उस समय मोबाइल और रेलवे की जानकारी की उपलब्धता इतने बड़े पैमाने पर नहीं थी कहना ग़लत होगा। ‘ट्रेन ऐट अ ग्लांस’ पुस्तिका राजीव के पास थी पर रागिनी पहली बार की लम्बी यात्रा में इस सुविधा से अपरिचित थी। 

ट्रेन खुलने के ठीक पहले करुणा को गोद में लिए वह व्यक्ति लौटे और लाकर गोद में सौंप कर निश्चिंत किया, “लीजिए अपनी बेटी!” तब जाकर जान में जान आई उसकी। वैसे भी करुणा परिचित-अपरिचित किसी के पास भी बहुत सहज-शान्त रह लेती थी। इसमें नया कुछ भी नहीं था। 

वापस आकर पुनः सैंकड़ों सवाल करुणा के प्रारंभ हो गए, “माँ, मैं पापा पास जाऊँगी। चलो ना।” बस अपने पिता के पास जाने की ज़िद के साथ सुलाने का लाख प्रयत्न करने पर भी करुणा सोने का नाम नहीं ले रही थी। बहुत-बहुत प्रयत्न करने पर वह आधी रात के बाद सोई। तब जाकर रागिनी को राहत मिली। 

अगले दिन जब सो कर उठी तो इधर-उधर के दृश्य-परिदृश्य में उसे उलझाए रखा गया। तभी कहीं से सड़ांध बदबू आई तो करुणा नाक सिंकोड़ती बोली, “माँ बदबू आ रही, माँ बदबू आ रही।” कहकर उल्टी जैसा हाव-भाव करने लगी। जिसे देख-समझ कर राजीव के सहकर्मी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, “इतनी छोटी बच्ची को क्या-क्या सीखा दी हैं? अभी दो साल की भी नहीं है इसे ख़ुश्बू और बदबू की परिभाषा से क्या?” और फिर उसे गोद में लेकर दूसरी तरफ़ ले गया ताकि उसका ध्यान परिवर्तित हो सके। राजीव उन व्यक्ति के मोबाइल पर दिन में एक-दो बार कॉल करके हाल-चाल पूछ रहा था। 

बहुत मुश्किलों से उसे कौआ-बिल्ली करती हुई कहानियाँ गढ़ती खिलाती-पिलाती हुई आ रही थी। दक्षिण भारत में ठंड तो पड़ती नहीं। आंध्र प्रदेश पार कर के ट्रेन के उड़ीसा पहुँचते ही असर दिखने लगा। फरवरी के मध्य का समय था ये, जैसे ही उत्तर भारत के ठंडक का अहसास हुआ माँ-बेटी की हालत ख़राब होने लगी। वो तो अच्छा हुआ कि कंबल पास में था। काँपती हुई रागिनी झट से निकाल कर ओढ़ लिया। ठंड के कारण करुणा की छटपटाहट भी बढ़ गई थी जो कंबल में आते ही गर्माहट से शान्त हो गई। अगले दिन वह देर तक सोती रही। 

निकटवर्ती स्टेशन पर उतरने के बाद पैसेंजर से घर आना था। राजीव के उन मित्र ने पूछा, “आप अकेली इतने सामान और छोटी बच्ची के साथ कैसे जाइएगा?” 

आश्वस्त करती हुई रागिनी ने कहा, “मेरी बहन आएगी हमें लेने।”

स्टेशन पर हाथ हिलाकर इशारा करते हुए एक टॉम ब्वॉय को खड़ा देखकर आश्चर्यचकित उन्होंने पूछा, “आपने कहा था कि बहन आ रही है। यहाँ तो भाई जी खड़े हैं।”

“जी वही है मेरी बहन!” 

हँसते हुए, “माफ कीजिएगा! मैं तो पहचान ही नहीं पाया। ये तो बिलकुल लड़कों जैसी देखने और पहनावे में हैं।”

“जी बचपन से ऐसी ही उसकी रहन-सहन की आज़ादी है,” रागिनी ने स्पष्ट किया। 

घर लौट कर आने के बाद रागिनी ने अनुभव किया कि देढ़-दो महीने से ज़्यादा का समय उसके मासिक चक्र का बीतता जा रहा था। “हो सकता है ख़ून की कमी के कारण ही देर हो रही हो।” ख़ुद को सांत्वना देने के लिए वह सोचती रही। 

वैसे भी आने के आख़िरी दिनों में राजीव की व्यस्तता अधिक रहने से ऐसे किसी भी तीव्र सम्भावना के लिए रागिनी बिलकुल ही तैयार नहीं थी। किसी भी नए जीवन की उम्मीद के परे जैसी बात थी। 

अन्ततः राजीव के समक्ष यह विषय प्रस्तुत करने पर स्थिति-परिस्थितियों के प्रति असहज-असंतुलित होकर राजीव फट पड़ा। तीन-चार महीने की देवरानी भी पहली बार गर्भवती थी। रागिनी की संवेदनशीलता भी विचित्र बढ़ती जा रही थी। करुणा के समय से भी ज़्यादा जटिल रूप में। 

“माँ का पहला रूप याद है ना तुम्हें! मैं अभी इतनी जल्दी दूसरे बच्चे के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं हूँ। किसी भी क़ीमत पर अभी मुझे ये बच्चा नहीं चाहिए। आज और अभी जाकर डॉक्टर से मिलो। सुन रही हो ना तुम!” राजीव ने कठोर स्वर में अपना फ़ैसला सुना दिया। 

“राजीव सुनो तो सही। इसे रहने दो। पर इसके बाद मैं परिवार नियोजन का ऑपरेशन करा लूँगी,” रागिनी ने अपना विचार स्पष्ट किया। 

कठोर प्रतिबद्धता युक्त जाने कौन सी सनक थी? राजीव एक भी शब्द! एक भी शब्द! इसके प्रति कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। 

“अपने दो बच्चों में कम से कम पाँच से सात साल का अंतराल रखना है। बच्चे की ज़िम्मेदारियाँ किसे लेनी है? ना तुम्हारे पिता को, ना मेरे पिता को? जो भी होगा मेरे सिर पर है ना? मुझे नहीं चाहिए . . . गई थी डॉक्टर को दिखाने? . . . क्यों नहीं गई? आख़िरकार तुम गई क्यों नहीं?” 

इसके अतिरिक्त और कोई बात, कोई विषय थे ही नहीं उसके पास . . . एक तरफ़ गर्भावस्था की शारीरिक समस्याएंँ और ऊपर से राजीव का अतीव मानसिक दबाव! . . .  हद मुसीबत लगने लगी थी। 

एक तरफ़ राजीव और रागिनी की माँ, रागिनी और दूसरी तरफ़ अकेले राजीव की ज़िद! 

अन्ततः दोनों माँ के मना करने के बावजूद भी राजीव के दबाव का पलड़ा, पति और पिता रूप में ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो रहा था। क्योंकि ये उसके और बच्चे के पूरे जीवन का सवाल था। 

पहले बच्चे के समय सासु माँ के ताने, उलाहने ना मिलते तो सास के भरोसे रह कर अपने बच्चे को जन्म देकर पति को ठेंगा दिखा भी देती। पर . . . अब ऐसी स्थिति में? लाख कुछ भी कहें पर उनका कोई भरोसा नहीं कब साथ देंगी या छोड़ देंगी? 

रागिनी के गर्भावस्था पर सासु माँ की मात्र यही टिप्पणी रही, “ख़राब मत करो। इसका नकारात्मक असर तुम्हारे स्वास्थ्य और शरीर पर पड़ेगा। जो भी होगा, दो होने के बाद ऑपरेशन कराकर निपट लेना। इस बार कुछ अलग लक्षण है। ज़रूर से ज़रूर ये बेटा है।”

राजीव को बेटा-बेटी से कोई मतलब नहीं था। उसे अभी कोई अन्य ज़िम्मेदारी नहीं चाहिए; मतलब नहीं चाहिए। करुणा केवल दो साल की है। उसकी शिक्षा, पालन-पोषण के लिए अभी सोचना है। कौन करेगा मेरी मदद? ना मेरे घर से कोई उम्मीद है ना तुम्हारे घर से? आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक दृष्टि से विचार कर देखो। तुम जाओ अस्पताल। नहीं तो समझ लेना। अनुनय-विनय के बाद धमकी भरा कठोर स्वर राजीव का था। 

“राजीव मेरा बच्चा रहने दो। मुझे यह बच्चा चाहिए। मुझे गर्भपात नहीं कराना,।” हर बार यही दुहराती रही। 

“कौन लेगा तुम्हारी ज़िम्मेदारी? तुम एक बार में देख-समझ-भुगत चुकी हो . . . अभी मैं सचमुच तैयार नहीं हूँ . . . मेरी विवशता समझो रागिनी!

“मेरी माँ की प्राथमिकताओं में अभी तुम नहीं . . . तुम्हारी छोटी देवरानी रहेगी . . . मैं अपनी माँ को तुमसे बेहतर जानता हूँ . . . अभी ख़ुद की नौकरी देखूँगा या तुम्हारी और बच्चे की देखभाल करूँगा? तुम तो मेरा प्यार किसी से भी बाँटने को तैयार नहीं थी। आज की स्थितियों-परिस्थितियों के अनुसार औक़ात-सामर्थ्य भर . . . अभी एक बेटी हमारे लिए पर्याप्त है . . . रागिनी मेरी बात समझो।”

दो सप्ताह इस बकझक में बीत गया। राजीव के पूर्ण दबाव पर रागिनी आत्मसमर्पण करती हुई; पत्नी और माँ पर पति का कठोर निर्णय विजित रहा। अपनी माँ के साथ अपने दो-सवा दो महीने के गर्भ को समाप्त करने अस्पताल पहुँची थी। जिस शारीरिक-मानसिक चोट की क्षतिपूर्ति में जाने कितना समय लगा? . . . क्या राजीव समझ पाता कभी? 

अपने बेटे पर इस नुक़्सान का ठीकरा फोड़ नहीं सकतीं, इसलिए इस बात का ताना आज भी सास देती है रागिनी को, “लाख मना करने के बावजूद जान-बूझकर कर तुम! . . .। मेरे पोते को मार डाली . . . सब तेरी ग़लती है . . . सब तेरी मनमानी है।”

हर बार सुनकर रागिनी का मन-प्राण चीख-चीखकर कहना चाहता कि “अपने होनेवाले पोते की हत्यारन कौन है . . .? काश, यह ख़ुद जान जाती सासू माँ! तो उतना बकवास कभी नहीं करती। और ना ही वो दुर्दिन मुझे भुगतना पड़ता।”

पुरुष राजनीति की सबसे मज़ेदार बात रही इस कहानी में कि रागिनी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण भावुक जब दोनों माओं ने राजीव से इस नुक़्सान पर प्रश्न उठाया। तो सारा का सारा बिल फटा रागिनी के सिर पर, “मेरी क्या ग़लती है? ये तो कुछ बोली ही नहीं थी।”

सुनकर रागिनी ने, राजीव पर अपना मौखिक और भावनात्मक आक्रोश व्यक्त किया। पर फ़ायदा? पति-पत्नी आपस में दोनों एक-दूसरे से . . . लाख झगड़ लें। 

 . . . मर लें . . . पर अब उस नुक़्सान की क्षतिपूर्ति सम्भव थी भला? कितनी आसानी से बेदाग साबित होने की कोशिश थी, या साज़िश थी? 

इन चार महीनों के अंतराल में राजीव ने अपनी ट्रेनिंग पूरी कर केरल के कासरगोड ज़िले में मंजेश्वरम में ड्यूटी ज्वाइनिंग करते हुए किराए के मकान की व्यवस्था कर ली। 

पहले दिन तो जब इधर आया था तो गहन-गंभीर एकाकीपन में ख़ूब रोया था। ख़ैर यहाँ अस्थाई रूप में ड्यूटी मिली है। रागिनी को भी बोल दिया था कि एक सप्ताह बाद फिर से कहीं और जाना पड़ सकता है इसके लिए दिल-दिमाग़ से तैयार रहना। 

पुस्तक की विषय सूची

  1. नन्हा बचपन 1
  2. नन्हा बचपन 2
  3. नन्हा बचपन 3
  4. नन्हा बचपन 4
  5. नन्हा बचपन  5
  6. नन्हा बचपन  6
  7. नन्हा बचपन 7
  8. नन्हा बचपन 8
  9. नन्हा बचपन 9
  10. नन्हा बचपन 10
  11. नन्हा बचपन 11
  12. नन्हा बचपन 12
  13. नन्हा बचपन 13
  14. नन्हा बचपन 14
  15. नन्हा बचपन 15
  16. नन्हा बचपन 16
  17. नन्हा बचपन 17
  18. नन्हा बचपन 18
  19. नन्हा बचपन 19
  20. नन्हा बचपन 20
  21. नन्हा बचपन 21
  22. नन्हा बचपन 22
  23. नन्हा बचपन 23
  24. नन्हा बचपन 24
  25. नन्हा बचपन 25
  26. नन्हा बचपन 26
  27. नन्हा बचपन 27
  28. नन्हा बचपन 28
  29. नन्हा बचपन 29
  30. नन्हा बचपन 30
  31. नन्हा बचपन 31
  32. नन्हा बचपन 32
  33. नन्हा बचपन 33
  34. नन्हा बचपन 34
  35. नन्हा बचपन 35
  36. नन्हा बचपन 36
  37. नन्हा बचपन 37
  38. नन्हा बचपन 38
  39. नन्हा बचपन 39
  40. नन्हा बचपन 40
  41. नन्हा बचपन 41
  42. नन्हा बचपन 42
  43. नन्हा बचपन 43
  44. नन्हा बचपन 44
  45. नन्हा बचपन 45
  46. नन्हा बचपन 46
  47. नन्हा बचपन 47
  48. नन्हा बचपन 48
  49. नन्हा बचपन 49
  50. नन्हा बचपन 50
क्रमशः

लेखक की पुस्तकें

  1. रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

लेखक की अन्य कृतियाँ

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