अमर सुहागन
कथा साहित्य | कहानी वन्दना पुरोहित1 Feb 2024 (अंक: 246, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
“शाऽऽलू शा . . . लू” आवाज़ लगाती हुई मौसी बालकनी में आई बोली, “अरे बेटा शालू! यहाँ बालकनी में क्या कर रही हो?”
शालू बोली, “मौसी, ये आंटी कौन है? जब से आई हूँ देख रही हूँ। ये रोज़ाना इस वक़्त बाहर जाती है। कोई जॉब करती है क्या?”
बालकनी से झाँकते हुए मौसी ने कहा, “अच्छा अच्छा, ये मालीनी आंटी है। कोई जॉब नहीं करती रोज़ाना इस वक़्त दफ़्तर जाती है अपने पति के बारे में मालूम करने।”
शालू की जिज्ञासा बढ़ी, “पति के बारे में मालूम करने। क्यों मौसी?”
मौसी ने कहा, “बेटा उनके पति फ़ौज में फ़ौजी थे। भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर उनकी ड्यूटी थी। सालों पहले लापता हुए उसके बाद आज तक उनकी कोई ख़बर नहीं। पता नहीं ज़िन्दा भी है या मर गए।”
शालू बोली, “हो सकता है मौसी इतने साल हो गए तो अब वे ज़िन्दा भी ना हों।”
मौसी ने समझाया, “बेटा, लेकिन यह बात मालिनी आंटी कभी नहीं मानती। वे इस बात से नाराज़ हो जाती हैं, कहती हैं ‘कोई सबूत है तो बताओ’। फ़ौज के अफ़सर भी कुछ बता नहीं पाते। इन्हें अरसा हो गया इसी तरह पूछताछ करते हुए। एक दिन हमें पार्क में मिली तो बातों-बातों में हमने पूछा अब आपके पति मिले तो आप कैसे पहचान पाओगे? हँसते हुए बोली थी ‘इतने सालों बाद मैं तो पहचान लूँगी अब उनके काले घुँघराले बाल सफ़ेद हो गए होंगे। फ़ौजी की मूँछ भी सफ़ेद होगी लेकिन एकदम कड़क चाल होगी। उनका चेहरा मेरे ससुर की कॉपी था मुझे तो पहचान में कोई दिक़्क़त ना होगी।’ एक साँस भर बोली, ‘वह मुझे नहीं पहचान पाएँगे शायद। मेरा रंग पहले से काला और चेहरे पर चश्मा चढ़ गया है। मेरी काली-काली बालों कि लटें अब सफ़ेद हो चुकी हैं। मेरी ये बड़ी-सी लाल बिंदी और कमर तक लंबे बाल उन्हें बहुत पसंद थे।’ कहते-कहते उस दिन वे बहुत रोई थीं। लेकिन कुछ ही क्षण में अपने आँसू पोंछ ख़ुद ही बोली कि फ़ौजी की पत्नी को आँसू बहाना शोभा नहीं देता। एक न एक दिन यह ख़बर ज़रूर आएगी कि वह ज़िन्दा है और जल्द ही भारत आने वाले हैं। फिर वह धीरे-धीरे भारी क़दमों से अपने घर चली गई। हम नम आँखों से उन्हें देखते रह गए। बेटा शालू, हमारे उन फ़ौजियों की पत्नियाँ जिनके लौटने की कोई ख़बर नहीं वे अमर सुहागन है। वह अपने पति की यादों के सहारे ही जीवन गुज़ार लेती हैं। मालिनी आंटी 30 वर्ष की थी जब उनके पति लापता हुए उसके बाद से इनके दिन सरकार और दफ़्तरों के चक्कर लगाते ही गुज़रे लेकिन इन्हें आज भी इंतज़ार है।”
शालू की आँख की कोर पर आँसू झलकने लगा, “सच मौसी हमें फ़ौजियों के साथ उनके परिवार के बलिदान को नहीं भूलना चाहिए।”
शालू की आँखें भी उन अमर सुहागिनों को नमन करने लगीं।
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सरोजिनी पाण्डेय 2024/02/05 05:42 PM
अत्यन्त मार्मिक! कैसे कैसे कष्ट हैं जीवन में फिर भी अमूल्य है जिन्दगानी।