अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अमर सुहागन 

 

“शाऽऽलू शा . . . लू” आवाज़ लगाती हुई मौसी बालकनी में आई बोली, “अरे बेटा शालू! यहाँ बालकनी में क्या कर रही हो?” 

 शालू बोली, “मौसी, ये आंटी कौन है? जब से आई हूँ देख रही हूँ। ये रोज़ाना इस वक़्त बाहर जाती है। कोई जॉब करती है क्या?” 

बालकनी से झाँकते हुए मौसी ने कहा, “अच्छा अच्छा, ये मालीनी आंटी है। कोई जॉब नहीं करती रोज़ाना इस वक़्त दफ़्तर जाती है अपने पति के बारे में मालूम करने।” 

शालू की जिज्ञासा बढ़ी, “पति के बारे में मालूम करने। क्यों मौसी?” 

मौसी ने कहा, “बेटा उनके पति फ़ौज में फ़ौजी थे। भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर उनकी ड्यूटी थी। सालों पहले लापता हुए उसके बाद आज तक उनकी कोई ख़बर नहीं। पता नहीं ज़िन्दा भी है या मर गए।” 

शालू बोली, “हो सकता है मौसी इतने साल हो गए तो अब वे ज़िन्दा भी ना हों।” 

मौसी ने समझाया, “बेटा, लेकिन यह बात मालिनी आंटी कभी नहीं मानती। वे इस बात से नाराज़ हो जाती हैं, कहती हैं ‘कोई सबूत है तो बताओ’। फ़ौज के अफ़सर भी कुछ बता नहीं पाते। इन्हें अरसा हो गया इसी तरह पूछताछ करते हुए। एक दिन हमें पार्क में मिली तो बातों-बातों में हमने पूछा अब आपके पति मिले तो आप कैसे पहचान पाओगे? हँसते हुए बोली थी ‘इतने सालों बाद मैं तो पहचान लूँगी अब उनके काले घुँघराले बाल सफ़ेद हो गए होंगे। फ़ौजी की मूँछ भी सफ़ेद होगी लेकिन एकदम कड़क चाल होगी। उनका चेहरा मेरे ससुर की कॉपी था मुझे तो पहचान में कोई दिक़्क़त ना होगी।’ एक साँस भर बोली, ‘वह मुझे नहीं पहचान पाएँगे शायद। मेरा रंग पहले से काला और चेहरे पर चश्मा चढ़ गया है। मेरी काली-काली बालों कि लटें अब सफ़ेद हो चुकी हैं। मेरी ये बड़ी-सी लाल बिंदी और कमर तक लंबे बाल उन्हें बहुत पसंद थे।’ कहते-कहते उस दिन वे बहुत रोई थीं। लेकिन कुछ ही क्षण में अपने आँसू पोंछ ख़ुद ही बोली कि फ़ौजी की पत्नी को आँसू बहाना शोभा नहीं देता। एक न एक दिन यह ख़बर ज़रूर आएगी कि वह ज़िन्दा है और जल्द ही भारत आने वाले हैं। फिर वह धीरे-धीरे भारी क़दमों से अपने घर चली गई। हम नम आँखों से उन्हें देखते रह गए। बेटा शालू, हमारे उन फ़ौजियों की पत्नियाँ जिनके लौटने की कोई ख़बर नहीं वे अमर सुहागन है। वह अपने पति की यादों के सहारे ही जीवन गुज़ार लेती हैं। मालिनी आंटी 30 वर्ष की थी जब उनके पति लापता हुए उसके बाद से इनके दिन सरकार और दफ़्तरों के चक्कर लगाते ही गुज़रे लेकिन इन्हें आज भी इंतज़ार है।” 

शालू की आँख की कोर पर आँसू झलकने लगा, “सच मौसी हमें फ़ौजियों के साथ उनके परिवार के बलिदान को नहीं भूलना चाहिए।”

शालू की आँखें भी उन अमर सुहागिनों को नमन करने लगीं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2024/02/05 05:42 PM

अत्यन्त मार्मिक! कैसे कैसे कष्ट हैं जीवन में फिर भी अमूल्य है जिन्दगानी।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

कहानी

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं