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दीपों भरी टोकरी

मैं बस स्टॉप पर खड़ी सिटी बस का इंतज़ार कर रही थी। तभी दो छोटे बच्चे हाथ में दीपक की टोकरी लिए आए और सभी से दीपक लेने का आग्रह करने लगे। मेरे पास आकर दयनीय नेत्रों और मधुर आवाज़ में कहने लगे, “आंटी आंटी दिवाली के दिए हम से ले लो। सही रेट में देंगे।” बच्चों को देख मैंने उनसे ₹50 के दीपक लिए मुझे देखकर एक-दो और महिलाओं ने भी उनसे दीपक लिए तो उनके चेहरे की चमक और मुस्कान ने मुझे भी जैसे सुकून दे दिया। तभी हमारी बस आ गई। 

घर पहुँचने के बाद भी मेरे आगे रह रह कर उन दोनों बच्चों के चेहरे घूम रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जो उम्र बच्चों के खेलने-कूदने की है उस उम्र में उन्हें रोज़ी-रोटी के लिए भागना पड़ रहा है। जैसे-तैसे मैंने अपने मन को मनाया और सुबह की बच्चों की टिफ़िन की तैयारी कर सो गई। सुबह जल्दी से तैयार हो ऑफ़िस लिए निकल गई। 

आज शाम को मेरी नज़र बस स्टैंड पर फिर उन्हें तलाशने लगी जैसे इस बस स्टैंड पर थोड़ी भीड़ हुई और वह दूर से दीपों की टोकरी को सँभालते हुए दौड़े चले आए। सभी से फिर आग्रह करने लगे कुछ नए लोग थे कुछ पुराने उन्होंने दीपक लिए और कुछ कहने लगे, “चलो हटो, अभी नहीं लेने।” उनकी इस आवाज़ को सुन उनका चेहरा रुआँसा-सा हो जाता लेकिन अगले ही क्षण अगर उनसे कोई दीपक लेता तो ख़ुशी से झूम उठते। मैंने आज फिर उनसे कुछ दीपक ले लिए; उनके चेहरे की हँसी मुझे भी ख़ुश कर देती थी। तभी बस आ गई और मैं बस में सवार हो निकल पड़ी। घर पहुँचकर पर्स के साथ ही दीपक की थैली रखी तो पतिदेव बोले, “क्या बात है? रोज़ाना दीपक ख़रीद रही हो? इसकी भी सेल लगी है, क्या?” मैंने हँसते हुए उन बच्चों की बात बताई, मुझे उनकी ख़ुशी में ख़ुशी मिलती है।

तभी पतिदेव बोले, “सुनो कल मेरे ऑफ़िस में देर तक कुछ काम है इसलिए मैं तुम्हें लेने आऊँगा।”

फिर शाम के खाने और बच्चों में व्यस्त हो गई। 

दूसरे दिन शाम को पतिदेव मुझे ऑफ़िस लेने आए। मैं कार में बैठी और उन्होंने कार सिटी बस स्टैंड की तरफ़ ली तो मैंने कहा, “अपना रास्ता तो इधर है।”

वे बोले, “ठहरो तो सही।” 

बस स्टैंड पर कार रोकी तो दीपक बेचने वाले बच्चे खड़े थे। कार के रुकते ही कार के गेट के पास आकर बोले, “दीपक ले लो आंटी।” 

फिर मुझे देखा तो झेंप गए। सोचा होगा रोज़ाना थोड़ी दीपक लेगी। पीछे मुड़ने लगे तो पतिदेव ने आवाज़ लगाई, “आज मुझे लेने हैं,” और टोकरी के सारे दीपक ख़रीद रुपए दे दिए और साथ में कुछ बिस्किट टॉफ़ी और पटाखे उन्हें दिए। ये सब लेकर उनका बालमन ख़ुशी से झूम उठा। वे दोनों झूमते हुए एक-दूसरे का हाथ पकड़े ख़ुशी से झूमते हुए सड़क के उस पार चले गए। 

मुझे उन्हें देखकर आनंद का अनुभव हो रहा था। मैंने पतिदेव से कहा, “इतने दीपक?”

तो बोले, “इस बार रंगीन लाइटों से नहीं दीपमाला से दिवाली रोशन करेंगे और उसमें तुम्हारी ख़ुशी भी शामिल होगी।” 

मैं उन्हें देखती रह गई। 

दीपावली के दिन बच्चे पटाखे छुड़ाने में मस्त हो रहे थे। हम दोनों निकट खड़े उनका ध्यान रख रहे थे। दीपावली की रात दीपमाला से सजा घर बहुत ही सुंदर लग रहा था। दीपों की मंद रोशनी पतिदेव के प्रेम और मेरी छोटी-छोटी ख़ुशी को वर्णित कर रही थी। 

मुझे अपने पतिदेव की दीपों भरी टोकरी की दिल वाली . . . दिवाली हमेशा याद रहेगी। 

कभी-कभी अपने साथी का ज़रा-सा साथ भी हमें रोमांचित कर देता है। यही सही मायने में दांपत्य है जो एक दूसरे की ख़ुशी को महत्त्व दे। 

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