मीठी यादें
कथा साहित्य | कहानी वन्दना पुरोहित15 Aug 2022 (अंक: 211, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
बादलों की गड़गड़ाहट व चमकती बिजली सुषमा की चिंता को और बढ़ा रही थी। आज वर्षा की चेतावनी व मौसम के हाल जानने के बावजूद शर्मा साहब घर से बाहर निकल गए थे। उन्हें घर से निकले 2 घंटे हो चुके थे मौसम के कारण नेटवर्क भी गड़बड़ चल रहा था। फ़ोन भी नहीं लग रहा था ऊपर से कौंधती बिजली उनकी घबराहट व चिंता में घी का काम कर रही थी। वे कभी राम-राम के नाम का जाप करने लगती तो कभी शर्मा जी के लिए बड़बड़ाती, “अपने आपको जवान समझते हैं, निकल पड़े। आज ना जाते तो क्या हो जाता? अगर घुटने में दर्द ज़्यादा हो गया तो फिर बिस्तर से उठ ना पाएँगे। इस बार घुटने में दर्द हुआ तो मैं हाथ तक न लगाऊँगी।”
बरामदे में चक्कर लगाते हुए सुषमा की नज़र बार-बार मेन गेट तक जा रही थी तभी चमकती बिजली के बीच में मेन गेट पर छाता लिए शर्मा साहब दिखाई दिए और वे दौड़कर बरामदे का गेट खोलने गई। गेट खोलते ही देखा शर्मा साहब छाता होने के बावजूद भीग गए थे। उन्हें भीगा देख सुषमा का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उन्होंने चुपचाप अपने कमरे से टॉवल लाकर रख दिया और बरामदे की कुर्सी पर बैठ गई। शर्मा साहब समझ गए कि आज सुषमा का ग़ुस्सा रौद्र रूप धारण करने वाला है। वे भी चुपचाप हाथ मुँह पोंछ कपड़े बदल आये।
अचानक सुषमा के पास रखी टेबल पर शर्मा साहब ने दाल के पकौड़े रखे। उनकी ख़ुश्बू तो पहले ही सुषमा तक पहुँच रही थी लेकिन अपने आप को क़ाबू करे वह ग़ुस्से में बैठी रही। प्लेट देख आँखों की त्यौरियाँ ऊँची कर सुषमा बोली, “यह किसके लिए?”
शर्मा साहब” सुषमा के कंधे पर हाथ रख हल्का मुस्कुराते हुए बोले, “अरे भाई, पार्क के पास वाली दुकान पर गरमा-गरम पकौड़े निकल रहे थे तो मुझे आपकी याद आ गई। जब हमारी नई-नई शादी हुई थी तुम हमेशा एक ही फ़रमाइश करती दाल के पकौड़े; लेकिन अब तुम्हें फ़रमाइश करे अरसा हो गया इसलिए मैं ले आया। वैसे कल तुम्हारा सोमवार का व्रत है तो आज अपनी पसंद के पकौड़े खा लो। वैसे भी घंटे भर इंतज़ार किया तब तक़दीर में यह पकौड़े हासिल हुए हैं।”
सुषमा का ग़ुस्सा अब थोड़ा नरम पड़ गया था हल्का सा मुस्कुराते हुए बोली, “आपको आज भी याद है।”
शर्मा साहब भी नज़र मिलाते हुए बोले, “वह पहला सावन और तुम्हारा साथ, भुलाए नहीं भूलता। बारिश आते ही हम भीगने निकल पड़ते थे। अब उम्र के इस पड़ाव में मीठी यादें ही रह गई हैं। हम तुम साथ घूमने तो आजकल कहीं जाते नहीं। तुम दस बहाने बनाती हो और बारिश से कतराती हो।”
सुषमा जी का ग़ुस्सा काफूर हो चुका था वे शर्मा जी के घुटने पर हाथ रख बोली, “मेरी छोड़ो, तुम्हारे घुटने भी अब साथ नहीं देते हैं इसलिए मना करती हूँ।”
शर्मा जी बात टालते हुए बोले, “सुषमा पहले पकौड़े खा लो फिर तुम्हारे हाथ की गरमा-गरम चाय मसाला डालकर ले आओ।”
दोनों ने इत्मीनान से पकौड़ों का आनंद लिया और पुरानी यादों को याद कर आज सावन की बारिश का आनंद खिड़की से ले रहे थे। सुषमा जल्दी से चाय बना लाई और खिड़की खोल दोनों हाथों में हाथ पकड़े, खिड़की से हाथों को भीगो इस प्रेम भरे सावन में भीग रहे थे।
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